चुनार का रहस्यमयी किला- भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश (जनसंख्या के हिसाब से) के मिर्जापुर जिले में गंगा नदी के तट पर स्थित एक अतिप्राचीन किला जो पूरे देश में चुनार का किला, चुनारगढ़ अथवा चरणाद्रि आदि कई नामों से विख्यात है। पौराणिक तथा सामरिक दृष्टि से चुनार का किला इतना महत्वपूर्ण है कि इससे भारतीय इतिहास के कई बड़े शासकों का नाम जुड़ा, जैसे- राजा बलि, विक्रमादित्य, राजा भर्तृहरि, बुंदेलखण्डी वीर आल्हा, पृथ्वीराज, बाबर, हुमायूं, शेरशाह सूरी, अकबर, औरंगजेब, अवध के नवाब सहित महाराजा चैत सिंह तथा गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स।
इस किले के बारे में एकबारगी यह भी कहा गया था कि “जिसने चुनार किले को अपने अधीन कर लिया, उसने भारत के भाग्य को भी नियंत्रित किया।” उपरोक्त सभी हस्तियों का एक रोचक इतिहास चुनार के किले से सम्बद्ध है। महान साहित्यकार देवकी नंदन खत्री ने चुनारगढ़ किले के तिलिम्स को केन्द्र बिन्दु में रखकर ‘चन्द्रकांता’ नामक उपन्यास की रचना की। वर्षों पहले दूरदर्शन पर चन्द्रकांता नामक धारावाहिक का प्रसारण बेहद लोकप्रिय हुआ था। उपरोक्त सभी हस्तियों से इतर इस स्टोरी में हम आपको बताने जा रहे हैं कि चुनारगढ़ किले में मौजूद राजा भर्तृहरि की समाधि स्थल के लिए मुगल बादशाह औरंगजेब को फरमान क्यों जारी करना पड़ा था।
चुनारगढ़ किले में है संन्यासी भर्तृहरि की समाधि- उज्जैन के महाराजा गंधर्वसेन के दो पुत्र थे, बड़े पुत्र का नाम भर्तृहरि तथा छोटे पुत्र का नाम विक्रमादित्य था। परम्परानुसार गंधर्वसेन के बाद उज्जैन की राजगद्दी भर्तृहरि को मिली। राजा भर्तृहरि की तीन पत्नियों में से एक का नाम पिंगला था जो बेहद खूबसूरत थी। पिंगला की खूबसूरती के आगे राजा भर्तृहरि राजकाज के कामों को भी अनदेखा कर देते थे। वह हर पल पिंगला के प्रेम में ही डूबे रहते थे। प्रेम के वशीभूत होकर उन्होंने अपनी एक अमूल्य अंगूठी रानी पिंगला को दी थी। एक दिन अचानक राजा भर्तृहरि ने उस अमूल्य अंगूठी को रानी पिंगला की सेवा करने वाली दासी के हाथों में देखा।
राजा भर्तृहरि ने उस दासी से पूछा कि तुम्हे यह अंगूठी किसने दी। तब दासी ने उत्तर दिया कि महाराज ! आपका सेनापति मुझसे बहुत प्रेम करता है, इसलिए उसने ही मुझे यह अंगूठी दी है। इसके बाद राजा भर्तृहरि को सेनापति से पता चला कि उसे वह अंगूठी रानी पिंगला ने दी थी। क्योंकि रानी पिंगला उस सेनापति से प्रेम करती थी। अंत में जब राजा भर्तहरि को अपनी पत्नी पिंगला की बेवफाई का पता चला तो उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने अपना सम्पूर्ण राज्य अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंपकर संन्यासी जीवन जीने का निर्णय ले लिया।
फिर क्या था, गुरु गोरखनाथ का शिष्यत्व ग्रहण कर तथा नाथ सम्प्रदाय से दीक्षा लेने के बाद राजा भर्तृहरि चुनार आ गए तत्पश्चात एक योगी के रूप में मां गंगा के किनारे मौजूद एक चट्टान पर रहने लगे। कहते हैं नाथ सम्प्रदाय के योगी बने राजा भर्तृहरि ने सौ श्लोकों वाले ‘वैराग्यशतक’ की रचना चुनारगढ़ के किले में ही की थी। राजा भर्तृहरि की उपदेशात्मक कहानियां आज भी भारतीय जनमानस में बेहद प्रचलित हैं। राजा भर्तृहरि केवल नाथ सम्प्रदाय ही नहीं वरन पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों में ‘बाबा भरथरी’ के नाम से विख्यात हैं।
चुनार दुर्ग पर लगे शिलालेखों के मुताबिक, उज्जैन नरेश विक्रमादित्य ने इस किले का निर्माण करवाया था ताकि उनके भाई भर्तृहरि की तपस्या में कोई विघ्न-बाधा न पड़े, साथ ही जंगली जानवरों से उनकी रक्षा हो सके। दरअसल गुरु गोरखनाथ के माध्यम से अपने भाई को खोजते हुए विक्रमादित्य भी चुनार आए और उन्होंने अपने भाई भर्तृहरि के लिए एक परकोटे का निर्माण करवा दिया, कालान्तर में कई राजाओं ने इस दुर्ग का थोड़ा-थोड़ा निर्माण करवाया जिससे इस किले को सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाने लगा। मान्यता है कि चुनार किले के पश्चिमी तरफ गंगा के जलस्तर से ऊपर की गुफा में भृतहरि ने समाधि ली थी। चूंकि योगी भर्तृहरिनाथ की इस तपोभूमि पर नाथ सम्प्रदाय के लोगों के आने का सिलसिला जारी रहा ऐसे में भक्तों की असुविधा को देखते हुए दुर्ग के अन्दर ही सोनवा मंडप के नजदीक योगी भर्तृहरि की समाधि बना दी गई। चुनार किले में वह काला पत्थर आज भी मौजूद है जहां राजा भर्तृहरि एक संन्यासी के रूप में पूजा-अर्चना करते थे। ऐसी मान्यता है कि योगी भर्तृहरि अदृश्य रूप में इस किले के परिक्षेत्र में आज भी विराजमान हैं।
राजा भर्तृहरि की समाधि से जुड़ी एक रहस्यमयी बात- नाथ सम्प्रदाय से जुड़े योगी भर्तृहरि नाथ की इस सिद्ध समाधि पर आकर जो भी मन्नतें मांगता है, उसकी मुराद पूरी होती है। परन्तु इससे जुड़ी एक रहस्यमयी बात यह है कि भर्तृहरि नाथ की समाधि स्थल में एक सुराख है, ऐसे में मनौती मानते समय यदि कोई श्रद्धापूर्वक इस सुराख में तेल डालेगा तो कुछ बूंदों में यह सुराख भर जाएगा अन्यथा यदि मन में श्रद्धा नहीं है तो चाहे कितना भी तेल डाला जाए यह सुराख कभी नहीं भरेगा।
मुगल बादशाह औरंगजेब का चुनारगढ़ आगमन- हिजरी 1082 (तकरीबन 1670-71 ई.) के दौरान मुगल बादशाह औरंगजेब का चुनारगढ़ किले में आगमन हुआ। मुगल इतिहास में ‘जिन्दा पीर’ के नाम से विख्यात मुगल बादशाह औरंगजेब ने जोगी भर्तृहरि नाथ की समाधि पर आकर आवाज दी और कोई उत्तर नहीं मिलने पर उसने इस समाधि स्थल को तुड़वाकर मस्जिद बनवाने का आदेश दिया।
मुगल सैनिक इस समाधि को तोड़ने के लिए जैसे ही आगे बढ़े समाधि के छिद्र से बड़ी संख्या में मधुमक्ख्यिों ने निकलना शुरू किया। इसके बाद इन मधुमक्खियों को नष्ट करने के लिए औरंगजेब ने 17 कूपा खौलता हुआ तेल डलवाया। लेकिन न ही वह छेद भरा और न ही मधुमक्ख्यिों का निकलना समाप्त हुआ। बल्कि इन मधुमक्ख्यिों की संख्या दोगुनी हो गई। इसके बाद औरंगजेब ने योगी भर्तृहरि नाथ का अस्तित्व स्वीकार करते हुए माफी मांगी और यह बात कही कि जब भी कोई बादशाह यहां आए इस समाधि की इज्जत करे और इसकी खिलाफत करने की हिमाकत नहीं करे। कहा जाता है कि इस घटना के बाद औरंगजेब ने फिर कभी हिन्दू मंदिरों को तोड़ने का आदेश नहीं दिया।
औरंगजेब का फरमान- मुगल बादशाह औरंगजेब ने एक फरमान जारी किया जिसके मुताबिक, “राजा भर्तहरि की समाधि स्थल पर पूजा-अर्चना के खर्च के लिए धनराशि दी जाए ताकि इसके खिदमतगार बादशाहत को कायम रखने के लिए दुआं करते रहें। चूंकि इन खिदमतगारों को जागीर और जमीन नहीं दी गई है इसलिए इन्हें और इनके वंशजों को भी पूजा के बावत धनराशि मिलती रहे। ऐसा कहा जाता है कि औरंगजेब से लेकर ब्रिटिश राज में सन 1947 तक पूजा-अर्चना हेतु धनराशि मिलती रही। इसके बाद यह धनराशि मिलनी बंद हो गई। तमाम प्रयासों के बाद भी इस समाधि स्थल की मरम्मत अथवा पूजा-पाठ के लिए कोई भी धनराशि नहीं मिली।
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