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Battle of umberkhind between Shivaji and kartalab khan

अफजल खां की हत्या से प्रेरित था उम्बरखिंड का युद्ध, शिवाजी ने 20 हजार मुगलों को दी थी करारी शिकस्त

स्टोरी शुरू होती है साल 1659 ई. से जब मुगल बादशाह औरंगजेब के उत्तर लौट जाने के बाद छत्रपति शिवाजी ने अपनी विजयों का सिलसिला एक बार फिर से आरम्भ कर दिया, जिसकी कीमत चुकानी पड़ी सबसे पहले बीजापुर को। शिवाजी ने समुद्र तटीय क्षेत्र कोंकण पर आक्रमण कर उसके उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ अन्य पहाड़ी दुर्गों को भी अपने अधिकार में ले लिया। ऐसे में स्वाभाविक था कि बीजापुर का सुल्तान आदिलशाह उनके विरूद्ध सख्त कार्रवाई करता।

बीजापुर के सुल्तान ने अफजल खां के नेतृत्व में दस हजार की सैनिक टुकड़ी शिवाजी को कैद करने के लिए भेजी। खूंखार योद्धा अफजल खां की लंबाई सात फीट से ज्यादा थी। अफजल खां ने सबसे पहले कोंकण में मार्च किया और शिवाजी से मिलने की मांग की। दरअसल अफजल खान युद्ध से पहले ही छल से शिवाजी महाराज की हत्या करना चाहता था। उसने शिवाजी महाराज को प्रतापगढ़ के पास मिलने का संदेश भेजा। शिवाजी ने अफजल खान का यह संदेश स्वीकार किया और दोनों की मुलाकात का स्थान तय हुआ।

अफजल खां ने शिवाजी से वादा किया कि वह उन्हें बीजापुर के सुल्तान से माफी दिलवा देगा। किन्तु ब्राह्मण दूत कृष्णाजी भास्कर ने अफजल का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। फिर क्या था, साल 1659 में नवंबर महीने की 20 तारीख को जब शिवाजी और अफजल खान की मुलाकात प्रतापगढ़ के पास शामियाने में हुई, उस वक्त शिवाजी अपने लबादे के नीचे एक चेनमेल पहनकर और अपनी आस्तीन में बाघनख छिपाकर ले गए थे। मुलाकात के दौरान अफजल खां ने शिवाजी की पीठ में चाकू घोपने की कोशिश की तब पहले से ही सर्तक शिवाजी महाराज ने बाघनख से अफजल खां की आंतें चीरकर रख दी।

अफजल खां की हत्या के तकरीबन एक महीने बाद शिवाजी महाराज ने पन्हाला किले के पास बीजापुर के आदिलशाही जनरल रूस्तम जमान को करारी शिकस्त दी। इस शिकस्त से घबराकर बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने मुग़ल बादशाह औरंगजेब से मदद की गुहार लगाई।

इसके बाद मुगल बादशाह ने दक्कन के वाइसराय शाइस्ता खान को आदिलशाह को मदद देने की जिम्मेदारी सौंपी। दक्कन में नियुक्त शाइस्ता खां एक विशाल मुगल फौज का सेनापति था, उसने कोंकण को शिवाजी के प्रभाव से मुक्त कराने के लिए उज्बेक फौजदार करतलब खान को तकरीबन 20 हजार की मुगल फौज के साथ भेजा। दरअसल करतलब खान की मंशा शिवाजी महाराज की मराठा सेना पर अचानक हमला करना था लेकिन उसकी चाल उलटी पड़ गई।

उम्बरखिंड की लड़ाई ( 3 फरवरी 1661)

दक्कन में नियुक्त मुगल सेनापति शाइस्ता खान के आदेश पर 20 हजार की मुगल फौज के साथ करतलब खान और राय बागान ने राजगढ़ किले पर हमला करने के लिए कूच किया। बता दें कि उज्बेक सूबेदार करतलब खान ने राजगढ़ किले पर हमले की गुप्त योजना बनाई थी लेकिन शिवाजी महाराज के दक्ष जासूसों ने इसकी सूचना उन्हें पहले ही दे दी थी।

इस हमले के लिए करतलब खान ने महाराष्ट्र के खोपोली शहर के पास सह्याद्री पर्वत श्रृंखला में स्थित उम्बरखिंड का रास्ता चुना था। जासूसों से मिली सूचना के मुताबिक शिवाजी महाराज अपने एक हजार मराठा लड़ाकों के साथ उम्बरखिंड की पहाड़ियों को चारों तरफ से घेरकर पहले से ही इन्तजार कर रहे थे।

उम्बरखिंड की पहाड़ियों के उपर मौजूद शिवाजी महाराज की एक हजार सैनिकों वाली मराठा सेना कई घुड़सवारों के अतिरिक्त छोटे-बड़े पत्थरों, राइफल और तीन-धनुष से लैस थी। उम्बरखिंड की पहाड़ी पर जंगल होने के कारण मराठा सैनिक करतलब खान और उसकी मुगल फौज को नजर नहीं आ रहे थे। इस प्रकार करतलब खान की मुगल फौज सह्याद्री पहाड़ियों से एक संकरे रास्ते से नीचे उतरकर जैसे ही उम्बरखिंड पहुंची तभी पहाड़ के ऊपर से शिवाजी और उनकी सेना ने अचानक हमला कर दिया।

शिवाजी ने उम्बरखिंड में गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अख्तियार की थी। शिवाजी के सैनिकों ने सभी सड़कों को अवरुद्ध कर रखा था। करतलब खान की मुगल फौज पर तीर और तोप के गोले सहित पत्थरों से हमला जारी था ऐसे में 20 हजार मुगल सैनिकों पर शिवाजी के एक हजार सैनिक भारी पड़े। लिहाजा महज तीन घंटे में ही करतलब खान और उसकी फौज ने आत्मसमर्पण कर दिया। मुगल फौज के आत्मसमर्पण के बाद करतलब खान ने शिवाजी महाराज से क्षमा प्रार्थना की। बावजूद इसके शिवाजी ने करतलब खान की सेना के सारे हथियार, घोड़े और रसद आदि अपने कब्जे में ले लिए।

शिवाजी और मराठा सैनिक मुगल फौज का सारा साजो-सामान अपने कब्जे में करने के बाद राजगढ़ की तरफ चले गए। उम्बरखिंड की लड़ाई जीतने के बाद मराठों की ताकत में मानसिक रूप से इतना इजाफा हुआ कि उन्होंने एक बड़ी योजना बना डाली।

मुगल सेनापति शाइस्ता खान पर हमला

चैत्र का महीना था, मुसलमानों के रोजे चल रहे थे। ऐसे में मुगल सैनिकों को केवल रात में ही खाने का मौका मिलता था। इस अवसर का लाभ उठाकर शिवाजी महाराज ने दक्कन में नियुक्त मुगल सेनापति शाइस्ता खां का काम तमाम करने की योजना बनाई। योजना के मुताबिक 6 अप्रैल, 1663 को शिवाजी ने अपने चुने हुए 400 मराठा सैनिकों के साथ बारात का साज सजाया और पूना में प्रविष्ट हो गए।

शिवाजी ने अपनी सैन्य टुकड़ी को तीन भागों में बांटकर आधी रात के समय शाइस्ता खां पर हमला कर दिया।शिवाजी महाराज के हमले के दौरान शाइस्ता खाँ अपनी बेगमों और रखैलों के बीच बेसुध सो रहा था। शिवाजी ने जैसे अपनी तलवार से पर्दे को फाड़कर जनानखाने में प्रवेश किया तो देखा कि शाइस्ता खान अपनी बीवियों के बीच घिरा बैठा काँप रहा था। अपने शौहर की जान बचाने के लिए शाइस्ता खान की एक बीवी ने दीपक बुझा दिया, इतने में शाइस्ता खान ने खिड़की छलांग लगा दी। तब तक शिवाजी की तलवार से शाइस्ता खान की तीन उँगलियाँ कट चुकी थीं। अंधेरे की वजह से शिवाजी को लगा कि शाइस्ता खान मारा गया। इस हमले में जहां 50 मराठा सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी वहीं 400 मुगल फौजी मारे गए। शिवाजी के इस हमले से हतोत्साहित होकर शाइस्ता खां जब औरंगजेब के पास पहुंचा तब उसने क्रोधित होकर उसे बंगाल भेज दिया।

इस घटना ने जहां एक तरफ मुगल साम्राज्य की शान का घटाया वहीं शिवाजी के हौसले तथा प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया। इसी बीच शिवाजी ने एक और दुस्साहिक अभियान किया। उन्होंने 1664 में सूरत में मौजूद मुगलों के एक महत्वपूर्ण किले पर धावा बोल दिया और उसे जी भरकर लूटा और धनदौलत से लदकर वापस लौटे।

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