
ब्रिटिश हुकूमत के दौरान अंग्रेज स्वामी जाति के होने के प्रति बेहद सचेत रहते थे। इस बात का अहसास भारतीय समाज के बड़े से बड़े व्यक्ति को तब होता था जब वह भूल से भी गोरों के लिए आरक्षित रेल डिब्बे में अथवा जहाज में चढ़ता। इतना ही नहीं, काले होने के कारण उसे नौकरी हो अथवा व्यवसाय, सभी जगह भेदभाव का शिकार होना पड़ता था। इस स्टोरी में हम आपको यह बताने का प्रयास करेंगे कि अंग्रेजों ने खुद को श्रेष्ठतर साबित करने के लिए भारतीयों के साथ किस हद तक घृणित व्यवहार किया था।
ज्यादातर काले आदमियों के साथ बर्बरता
अक्सर काले भारतीयों को लातों और घूंसों के रूप में अंग्रेजों के नक्सलवाद का सामना करना पड़ता था। अंग्रेज अधिकारी अपने पंखा-कुलियों को तमीज सिखाते, इसके अलावा शिकार के समय प्राय: गोली चलने की दुर्घटनाएं हो जाया करती थीं जिसका शिकार भी काला आदमी ही होता था। बतौर उदाहरण- 1880 से 1900 के बीच गोली चलने की ऐसी कम से कम 81 दुर्घटनाएं दर्ज की गईं। ऐसी घटनाओं के मामले में श्वेतों के आधिपत्य वाले न्यायालय हास्यास्पद रूप से हल्के दंड देते थे।
बंगाल में यूरोपीयन क्लबों के बाहर लिखा होता था-'डॉग्स एंड इंडियंस आर नॉट अलाउड', यानि कुत्तों और भारतीयों का प्रवेश वर्जित है। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि भारतीयों के साथ अंग्रेज कितना घृणित व्यवहार करते थे। हांलाकि अंग्रेज राजनीतिज्ञ अधिक मानवीय और दूरदर्शी थे ऐसे में वे कभी-कभी नस्लवाद की घोर फूहड़ता को सीमित करने का प्रयास भी करते थे। लॉर्ड कर्जन ने दो कुख्यात मामलों में अंग्रेज सिपाहियों के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की थी। इस सम्बन्ध में पहला यह था कि एक बर्मी स्त्री के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना थी। जबकि दूसरे मामले में एक रसोइए की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई थी क्योंकि उसने स्त्रियों की दलाली करने से मना कर दिया था।
कई बार अंग्रेज सिपाही सुन्दर महिला को बलात उठा ले जाते थे और विरोध करने वालों को कोड़ों से पीटते थे। 1770 के दशक में एक अंग्रेज साहब की दिनचर्या का वर्णन विलियम मैकिनटॉश ने कुछ इस प्रकार किया है- “ठीक सात बजे दरबान गेट खोलता है, इसके बाद रसोईयों, चपरासियों, हरकारों, चोबदारों तथा हुक्काबरदारों का आना-जाना शुरू हो जाता है। आठ बजे जमादार उनके कमरे की साफ-सफाई करता है। इसके बाद साहब जैसे ही अपना बेड छोड़ते हैं, उन्हें सिर झुकाकर तीन बार सलाम करने वालों की लाइन लग जाती है।
साढ़े आठ बजे नौकर-चाकर ही साहब को कमीज, ब्रीचेस और स्टॉकिंग पहनाते हैं। थोड़ी देर बाद नाई उनकी हजामत बनाता है, कान साफ करता है और नाखून काटता है। इसके बाद रसोइया उन्हें चाय और टोस्ट परोसता है। रात में बेडरूम में जाने के बाद साहब के मनोरंजन के लिए एक महिला भेजी जाती हैं, जो रातभर उनके साथ रहती है।”
बता दें कि 1857 विद्रोह के दौरान तकरीबन 2,000 अंग्रेजों की हत्या हुई थी, अत: इसके प्रतिशोधस्वरूप 10 मिलियन भारतीयों का नरसंहार किया गया। जलियावाला बाग की हिंसक घटना से तकरीबन सभी भारतीय परिचित हैं। इसमें जनरल डायर ने बिना किसी चेतावनी के 1650 राउंड गोलियां चलवाई थी जिसमें 379 लोग मारे गए जब कि 1137 लोग घायल हुए। जो लोग अपनी जान बचाने के लिए कुएं में कूद गए थे, उस कुएं से 120 शव निकाले गए। जबकि भारतीय आंकड़ों के मुताबिक मृतकों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है। आस्टेलियन रिसर्च स्कॉलर जैसन हिकेल और डायलन सुलविन के मुताबिक ब्रिटिश जुल्म के कारण 1880 से 1920 के बीच तकरीबन 10 करोड़ भारतीयों की मृत्यु हुई।
नौकरियों और व्यवसायों में भेदभाव
1878 में मद्रास में मुत्तुस्वामी अय्यर को जब उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया तब अंग्रेजी अखबार ‘मद्रास मेल’ ने यह कहकर विरोध किया कि देशी अधिकारियों को समान परिस्थितियों में यूरोपीय अधिकारियों के बराबर वेतन नहीं मिलना चाहिए। इससे उत्पन्न होने वाले हंगामे के फलस्वरूप राष्ट्रवादी समाचारपत्र ‘हिन्दू’ की स्थापना हुई।
सेना में ऊंचे से ऊंचा पद जो किसी भारतीय को मिल सकता था वह ‘सूबेदार’ का था जिसमें 60 से 70 रुपए मासिक वेतन मिलता था और असैनिक प्रशासन में ‘सदर अमीन’ का पद था जिसका वेतन 500 रुपए मासिक था। अंग्रेजों की दृष्टि से सेना एवं प्रशासन के उच्च एवं वरिष्ठ पदों पर भारतीयों को न रखना तर्कसम्मत था। इस बात को आप कुछ इस तरह समझ सकते हैं, आई.सी.एस की परीक्षाओं को साथ-साथ भारत और इंग्लैंड में करने की मामूली मांग का भी पचास वर्षों तक कड़ा विरोध होता रहा। जुलाई 1895 में एल्गिन ने रोजबेरी को पत्र लिखा कि, “हम तभी शासन कर सकते हैं जब यह मानकर चलें कि हम राज करने वाली जाति के हैं।” अंग्रेज नस्लवाद के प्रति कितने सचेत थे इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण यह है कि ब्रिटिश अधिकारियों की प्रतीक्षा में कुर्सी पर भी बैठने की अनुमति नहीं थी। इसके लिए बकायदा मुहर लगा ‘कुर्सी नशीन’ नाम से सर्टिफिकेट जारी होता था।
नौकरियों के अलावा व्यापार के क्षेत्र में भी भारतीयों को नक्सली भेदभाव का सामना करना पड़ा। भारतीय व्यापारियों को यूरोप में बने सामानों का व्यापार व व्यवसाय करने से प्रतिबंधित कर दिया गया। विनिमय बैंकों, आयात-निर्यात फर्मों, एवं जहाजरानी प्रतिष्ठानों पर पूर्णरूप से अंग्रेजों का ही नियंत्रण था। भारतीय व्यापारियों को इंग्लैंड केवल कच्चे माल, खाद्यान्न, कच्ची कपास, अफीम, गेहूँ, नील आदि का निर्यात करता था।
1813 के चार्टर अधिनियम ने ब्रिटिश नागरिकों के लिए एकतरफा मुक्त व्यापार की अनुमति दी जिसने ब्रिटेन में मशीन से बने कपड़ों ने भारतीय बाजार में बाढ़ ला दी। वहीं दूसरी तरफ भारतीय वस्त्रों पर 80 फीसदी तक ‘कर’ लगा दिया गया जिससे भारतीय कपड़े महंगे हो गए। यहां तक कि 1820 के बाद यूरोपीय बाजारों से भारतीय निर्यात पर लगभग रोक लगा दी गई। इससे भारतीय व्यवसायियों को सिर्फ घाटा ही नसीब हुआ। अंग्रेजों ने ऐसी नीति बनाई कि भारत से उसे हर तरह का कच्चा माल मिले और उसका तैयार किया माल भारत खरीदे। ऐसे में भारतीय व्यापारी इस मुकाबले में पिछड़ते चले गए।
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