ब्लॉग

Who was the court jeweler from whom Mughal emperors bought jewellery?

कौन था वह दरबारी जौहरी जिससे बड़ी मात्रा में आभूषण खरीदते थे मुगल बादशाह ?

मुगल बादशाह अपनी शान-शौकत के लिए पूरी दुनिया में विख्यात थे। मुगल दरबार की चमक-दमक देखते ही बनती थी। पादशाहों के शाही पोषाक इत्र की खूशबू से परिपूर्ण तरह-तरह के हीरे, जवाहरात, मोती, मूंगे, माणिक तथा सोने-चांदी के आभूषणों से लदे होते थे। ऐसे में आप सोच रहे होंगे कि आखिर में मुगल बादशाह अपने आभूषण कहां से खरीदते होंगे। जी हां, दोस्तों इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुगल पादशाह हीरे-जवाहरातों की खरीददारी विदेशी जौहरियों से भी करते थे परन्तु इनका एक दरबारी जौहरी भी हुआ करता था जो मुगल राजघराने को आभूषणों की सप्लाई करता था। इस स्टोरी में आज हम आपको एक ऐसे ही घरेलू जौहरी का इतिहास बताने जा रहे हैं जिससे मुगल काल के सबसे ताकतवर बादशाहों में शामिल जहांगीर और शाहजहां आभूषण खरीदते थे।

हीरे-जवाहरात और मुगल बादशाह- मुगल बादशाह जहांगीर तथा शाहजहां के शासनकाल में अनेक यूरोपीय यात्री भारत आए। इनमें से कुछ को इन बादशाहों के सम्पर्क में आने का मौका भी मिला। उनके यात्रा विवरण में मुगलकाल का राजनीतिक इतिहास तो नहीं मिलता लेकिन इन यूरोपीय यात्रियों ने तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक स्थिति के अतिरिक्त मुगल बादशाहों के निजी जीवन पर यथेष्ट प्रकाश डाला है। ऐसे में उन यूरोपीय यात्रियों के यात्रा वृत्तांतों से जहांगीर तथा शाहजहां के आभूषण प्रेम की भी जानकारी मिलती है।

ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक कर्मचारी और व्यापारी विलियम हाकिन्स भारत में 1608 से 1613 तक ठहरा। वह फारसी भाषा का जानकार था और मुगल बादशाह जहांगीर उससे इतना प्रभावित था कि हांकिस को वह अपनी शराब की पार्टियों में भी आमंत्रित करता था।

विलियम हाकिन्स के यात्रा विवरणों से जानकारी मिलती है कि मुगल बादशाह जहांगीर को जवाहरातों का शौक था। जहांगीर की माला (तसबीह) बेहद कीमती मोती, माणिक्य, हीरे, पन्ने और मूंगे की बनी होती थी। किस दिन कौन-कौन से और कितनी मात्रा में हीरे-जवाहरात पहनने हैं-इस हिसाब से वे विभाजित थे। वहीं विदेशी यात्री एडवर्ड टैरी को मुगल बादशाह जहांगीर को देखने का अवसर मिला था। एडवर्ट टैरी 1617 में मांडू आया था फिर वहां अहमदाबाद चला गया। मुगल बादशाह जहांगीर के आभूषण शौक के बारे में एडवर्ट  टैरी लिखता है कि, “इस दुनिया में ऐसा बादशाह शायद ही कोई हुआ हो जो इतने हीरे-जवाहरात रोज बदलता हो।

यदि हम मुगल बादशाह शाहजहां की बात करें तो उसके शासनकाल में मुग़ल साम्राज्य की समृद्धि और शान-शौकत अपने चरमोत्कर्ष थी। पादशाह शाहजहां के वैभव को देखकर हर कोई च​कित रह जाता था। शाहजहां जब राजकुमार था तब एक बेहद खूबसूरत लड़की जो मीना बाजार में हीरे-मोती और रेशमी कपड़े बेच रही थी, उससे 20 हजार रुपए में हीरा खरीदकर उस लड़की को अपना दिल दे बैठा। जी हां, वो लड़की कोई और नहीं बल्कि एतमाउद्दौला की बेटी अर्जुमंद बानो थी जो शाहजहां से शादी के बाद मुमताज महल के नाम विख्यात हुई।

शाहजहां के सोने-चांदी का संग्रह शायद दुनिया में सबसे शानदार था तभी उसके मयूर सिंहासन (तख़्त-ए-ताऊस) में 1150 किलो शुद्ध सोने का इस्तेमाल किया गया था। इस सिंहासन में विदेशों से मंगवाए गए कीमती जवाहरात जड़े थे। सिंहासन में बने दोनों मोरों के सीने पर लाल मणिक तथा पीछे की तख्ती पर कीमती हीरे जड़े हुए थे। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि शाहजहां को हीरे-जवाहरातों से कितना प्रेम रहा होगा।

मुगल राजघराने के घरेलू जौहरी थे शांतिदास झावेरी - मुगल काल में अहमदाबाद नगर के सबसे धनी जौहरी और व्यापारी शांतिदास झावेरी मुगल राजघरानों, अमीरों तथा उमरा वर्ग को आभूषण बेचते थे। मुगल फरमानों से जानकारी मिलती है कि शांतिदास झावेरी मुगल बादशाह जहांगीर तथा शाहजहां के दरबारी जौहरी थे। साल 1584 में अहमदाबाद के झावेरीवाड़ा में जन्मे शांतिदास झावेरी (जवाहरी) के पिता का नाम सहस्र किरण और मां का नाम सौभाग्य देवी था। मारवाड़ क्षेत्र के ओसवाल जैन (बनिया मूल) शांतिदास के माता-पिता ओसियां से अहमदाबाद चले गए थे। ऐसे में शांतिदास झावेरी ने सर्राफा व्यवसाय का विस्तार कर खुद को अहमदाबाद नगर के सबसे धनी व्यापारी के रूप में स्थापित कर लिया। गुजरात ही नहीं वरन दुनिया के सबसे अमीर व्यापारी विरजी वोरा के साथ मिलकर शांतिदास झावेरी ने भारत में डच ईस्ट इंडिया कम्पनी में ज्यादातर पूंजी निवेश की थी अत: सोने-चांदी के रूप में मजबूत ब्याज भुगतान ने उसे एक प्रभावशाली साहूकार बना दिया।

जहांगीर और शाहजहाँ द्वारा जारी फरमानों से पता चलता है कि एक घरेलू जौहरी के रूप में शांतिदास के सम्बन्ध मुगल राजघराने से बेहद करीबी हो चुका था। आधुनिक जैन पम्परा के स्रोतों के मुताबिक, पादशाह शाहजहां उन्हें ‘मामा’ कहकर सम्बोधित करता था तथा एक समय शांतिदास को गुजरात का कार्यकारी ​गवर्नर नियुक्त किया था। वहीं पादशाह जहांगीर ने शांतिदास को ‘नगर सेठ’ की उपाधि दी थी।

पादशाह जहांगीर और दारा शिकोह के फरमानों से यह जानकारी मिलती है कि शांतिदास झावेरी को मुगल राजघरानों को आभूषण सप्लाई करने की जिम्मेदारी गई थी। साल 1539 में मुमताज महल के पिता आसफ खान ने शांतिदास झावेरी से बड़ी मात्रा में आभूषणों की खरीददारी की थी। यह जानकारी मिलती है कि आसफ खां के निधन के बाद शाहजहां ने शांतिदास से उन आभूषणों के बदले पैसे वापस करने के लिए मजबूर किया था। शाहजहाँ के शासनकाल में जारी किए फरमान के मुताबिक पादशाह के शादी की सालगिरह के उत्सव पर गहने खरीदने की जिम्मेदारी भी शांतिदास को ही दी गई थी।

चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर का निर्माण-

शांतिदास झावेरी तथा उनके भाई वर्धमान ने कहीं सुन रखा था कि मंदिर बनवाने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है, इसलिए उन्होंने अहमदाबाद स्थित बीबीपुरा (वर्तमान में सरसपुर) में चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर का निर्माण करवाया। चिंतामणि-प्रशस्ति के मुताबिक, शांतिदास तथा उनके बड़े भाई वर्धमान ने इस मंदिर का निर्माण सन 1621 ई.में शुरू करवा दिया जो 1625 में बनकर तैयार हो गया। इस मंदिर के निर्माण में कुल नौ लाख रुपए खर्च हुए थे।

साल 1645 में शाहजहां ने अपने तीसरे बेटे औरंगजेब को गुजरात का गवर्नर नियुक्त किया। शहजादे औरंगजेब ने चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर को तुड़वाकर मस्जिद में बदलने का आदेश दिया। 10 जनवरी को 1666 को सूरत से अहमदाबाद पहुंचे फ्रांसीसी यात्री एम.डी थेवेनोट के मुताबिक, “चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में औरंगजेब ने सबसे पहले एक गाय की हत्या करवाई तत्पश्चात इस मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मानव तथा पशु आकृतियों को तुड़वा दिया।” इस बात की पुष्टि एक अन्य फ्रांसीसी यात्री और जौहरी टैवर्नियर ने भी ​है कि “शहजादे औरगंजेब ने इस मंदिर को मस्जिद में परिवर्तित करवा दिया।”

हांलाकि शांतिदास के निवेदन पर मुगल बादशाह शाहजहां ने 3 जुलाई 1648 को एक फरमान जारी किया जिस पर राजकुमार दारा शिकोह का निशान और मुहर था। यह फरमान गुजरात के डिप्टी गवर्नर गैरत खान के नाम जारी किया गया था। इस फरमान के मुताबिक, बादशाह शाहजहाँ के आदेश पर यह मंदिर जैनियों को वापस कर दिया गया। हांलाकि इस धर्मस्थल का इस्तेमाल कभी मस्जिद के रूप में नहीं हुआ और न ही इसमें जैन मतावलम्बी दोबारा पूजा-पाठ के लिए तैयार हुए। बावजूद इसके शांतिदास मुख्य प्रतिमा को बचाने में सफल रहे और उन्होंने शहर में एक और जैन मंदिर बनवाया।

इसे भी पढ़ें : भारत का वह अमीर व्यापारी जिससे हमेशा कर्ज लेती थी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी

इसे भी पढ़ें : चुनार का किला- राजा भर्तृहरि की समाधि स्थल और औरंगजेब का फरमान