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What happened to Goswami Tulsidas's wife Ratnavali?

गोस्वामी तुलसीदास की पत्नी रत्नावली का क्या हुआ?

गोस्वामी तुलसीदास की पत्नी का नाम रत्नावली था। यह बात सर्वविदित है कि गोस्वामी तुलसीदास अपनी पत्नी के प्रति बेहद आसक्त थे, वह उसका वियोग सहन नहीं कर सकते थे। ऐसे में एक बार रत्नावली अपने मायके चली गई तब उसी रात तुलसीदास भी भारी बारिश में नदी पारकर ससुराल पहुंच गए। लेकिन रत्नावली ने जब तुलसीदास को भटकारा कि ​तुम जितना प्रेम इस हाड़-मास और चर्म की देह करते हो, ​यदि भगवान राम से करते तो भवसागर से पार हो जाते है। रत्नावली की इस फटकार का तुलसीदास के हृदय पर इस कदर प्रभाव हुआ कि वह घर छोड़कर वैरागी बन गए।

कहते हैं, विक्रम सम्वत 1604 में तुलसीदास गृहस्थ जीवन त्यागकर जब वैरागी बने तब रत्नावली ​महज 27 वर्ष की थीं। पंडित मुरलीधर चतुर्वेदी लिखित 'रत्नावली चरित्र' के अनुसार, रत्नावली संवत 1651 तक जीवित रहीं। मतलब साफ है, गोस्वामी तुलसीदास के संन्यासी जीवन वरण करने के बाद रत्नावली 47 वर्षों तक जीवित रहीं। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि इस अवधि में क्या गोस्वामी तुलसीदास ने कभी रत्नावली की सुध ली। गोस्वामी तुलसीदास की पत्नी रत्नावली ने अपना जीवन कैसे व्यतीत किया? इन सभी प्रश्नों की जानकारी के लिए यह रोचक स्टोरी अवश्य पढ़ें।

रत्नावली का संक्षिप्त जीवन-परिचय

कासगंज के सोरों शूकरक्षेत्र के बदरिया गांव में पैदा हुई रत्नावली की जन्मतिथि विक्रम सम्वत 1577 है। रत्नावली के पिता का नाम दीनबन्धु पाठक और माता का नाम दयावती था। 12 वर्षीय रत्नावली का विवाह विक्रम सम्वत 1589 में चित्रकूट जिले के राजापुर गांव निवासी आत्माराम दूबे के पुत्र तुलसीदास के साथ हुआ। पंडित मुरलीधर चतुर्वेदी कृत 'रत्नावली चरित्र' के मुताबिक, जब रत्नावली का गौना हुआ तब वह 16 वर्ष की थीं और तुलसीदास गृहस्थ जीवन त्यागकर जब वैरागी बने तब रत्नावली ​महज 27 वर्ष की थीं। 21 मार्च, 1594 ई. को चैत्री सोमवती अमावस्या के दिन 74 वर्ष की उम्र में रत्नावली का निधन हो गया।

रत्नावली के प्रति आसक्त थे गोस्वामी तुलसीदास

तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति इतने आसक्त थे कि वह एक क्षण भी उसका वियोग सहन नहीं कर सकते थे। कुछ वर्ष पश्चात तुलसीदास और रत्नावली से एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम तारक था। परन्तु दुर्भाग्यवश तारक कालकवलित हो गया। इस अपूर्णनीय क्षति से दुखी होकर रत्नावली अपने भाई के साथ मायके चली गई। अत: पत्नी रत्नावली के वियोग में बेचैन तुलसीदास ससुराल के लिए रात में ही निकल पड़े।

भारी बारिश हो रही थी, नदी किनारे पहुंचे तो वहां कोई नाव नहीं थी। तभी उन्हें नदी किनारे लाश बहती नजर आई, उसी लाश पर बैठकर किसी तरह से नदी पार की। ससुराल पहुंचकर तुलसीदास ने दरवाजा खटखटाया लेकिन जब दरवाजा नहीं खुला तो घर के पीछे उन्हें एक रस्सी लटकती दिखी और उसी रस्सी के सहारे वह छत पर चढ़ गए और सीधे पत्नी के कमरे में पहुंचे। हड़बड़ाई पत्नी रत्नावली ने कहा कि इतनी रात में वो भी भारी बारिश में आप ऊपर कैसे आए। तब तुलसीदास ने कहा-रस्सी के सहारे। जब रत्नीवली ने नीचे देखा तो रस्सी नहीं, वहां सांप था। अर्थात तुलसीदास कामासक्ति में सांप को ही रस्सी समझकर छत पर चढ़ गए थे।

इस कामासक्ति को देखकर रत्नावली ने तुलसीदास को धिक्कारते हुए कहालाज न लागत आपको दौरे आयहु साथ। धिक धिक ऐसे प्रेम को कहा कहौं मैं नाथ॥ आगे रत्नावली ने जब यह पंक्तियां कहीं तो तुलसीदास के ज्ञानचक्षु खुल गए-अस्थि चरम मय देह मम, ता में ऐसी प्रीत। तैसी जो श्रीराम महं, होती न तो भव भीति।। अर्थात- जितनी प्रीति इस हाड़, मांस व चर्म के देह के प्रति है, यदि उतनी ही राम में होती तो भव सागर से पार उतर जाते। पत्नी के इस वाक्य ने तुलसीदास के भावुक हृदय पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि उनका वासनामय अनुराग वैराग्य में परिवर्तित हो गया और तुलसीदास एक संन्यासी के रूप में आजीवन रामभक्ति में लीन हो गए।

वैवाहिक जीवन से विरक्त होकर गोस्वामी तुलसीदास विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए काशी पहुंचे। काशी में रहते हुए गोस्वामी तुलसीदास को हनुमानजी से साक्षात्कार हुआ। हनुमानजी के निर्देश पर ही तुलसीदास को चित्रकूट में भगवान श्रीराम के दर्शन प्राप्त हुए।

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इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास ने राम​चरितमानस, हनुमान चालीसा, हनुमान बाहुक, विनय पत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली, रामाज्ञाप्रश्न, बरवै रामायण, रामलला नहछू, कृष्ण गीतावली, वैराग्य संदीपनी, पार्वती मंगल और जानकी मंगल जैसे महान ग्रन्थों की रचना की।

आखिर में भगवान श्रीराम की यशगाथा गाते हुए विक्रम सम्वत 1680 में तुलसीदास परलोक सिधार गए। उनके मृत्यु के सम्बन्ध में यह दोहा बेहद प्रसिद्ध है- सम्वत सोलह सो अस्सी, असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तजौ शरीर।।

तुलसीदास के घर त्यागने के बाद रत्नावली का जीवन

कहते हैं, विक्रम सम्वत 1604 में तुलसीदास गृहस्थ जीवन त्यागकर जब वैरागी बने तब रत्नावली ​महज 27 वर्ष की थीं। पंडित मुरलीधर चतुर्वेदी लिखित 'रत्नावली चरित्र' के अनुसार, रत्नावली का निधन 74 वर्ष की उम्र में संवत 1651 में हुआ। मतलब साफ है, गोस्वामी तुलसीदास के संन्यासी जीवन वरण करने के बाद रत्नावली 47 वर्षों तक जीवित रहीं।

रत्नावली यदि अपने पति को धिक्कारती नहीं तो वे रामबोला से गोस्वामी तुलसीदास कैसे बनते। परन्तु यह सच है कि तुलसीदास के वैरागी बनते ही विदुषी महिला रत्नावली अवसाद एवं दुखों से घिर गईं।  भारतीय समाज में पति के बिना किसी स्त्री की दशा कैसी होती है, यह आप भलीभांति जानते हैं।

रत्नावली की एक पीड़ा यह भी थी कि तुलसीदास उसे उस समय छोड़कर चले गए जब वह सो रही थी। रत्नावली को अपने पति गोस्वामी तुलसीदास का वियोग बहुत अखर रहा था, ऐसे में वह दिन-रात बेचैन रहती थीं और बार-बार यह अनुरोध करती रहीं कि सिर्फ एक बार उनके पति परमेश्वर (गोस्वामी तुलसीदास) के दर्शन हो जाए।  हांलाकि गोस्वामी तुलसीदास ने रत्नावली की प्रार्थना सुनी अथवा नहीं, इस बात के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। लिहाजा रत्नावली ने अपने पति तुलसीदास की स्मृतियों मे ही पूरी उम्र गुजार दी। आखिरकार रत्नावली 74 वर्ष की उम्र में 21 मार्च, 1594 ई. को चैत्री सोमवती अमावस्या के दिन परलोक गमन कर गईं।

रत्नावली के दोहे

रत्नावली ने अपने एकाकी जीवन में असंख्य दोहों की रचना की। तुलसीदास के वियोग का दुख रत्नावली के दोहों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। रत्नावली द्वारा रचित दोहों की भाषा और भाव दृष्टि उच्चकोटि की है। कहीं-कहीं रत्नावली के दोहे तुलसीदास के दोहों से भी उत्कृष्ट प्रतीत होते हैं। परन्तु भारतीय समाज ने रत्नावली के जीवन और उनकी काव्य प्रतिभा दोनों को ही उपेक्षित रखा।

रत्नावली के निम्नलिखित दोहों से उनके वैवाहिक जीवन की गूढ़ जानकारी मिलती है

वैस बारहीं कर गह्यो, सोरहि गौन कराय। सत्ताइस लागत करी, नाथ रतन असहाय॥

अर्थात- बारह वर्ष की उम्र में मेरे स्वामी ने मुझे ग्रहण किया, सोलह साल की उम्र में मेरा गौना कराकर ले आए थे। और सत्ताईस वर्ष की उम्र मुझे असहाय छोड़कर चले गए।

तुलसीदास के घर छोड़कर जाने के बाद रत्नावली स्वयं को ही दोषी मानती ​थीं, वह लिखती हैं कि

जनमि बदरिका कुल भई, हों पिय कंटक रूप। विंधत दुखित ह्वै चलि गए, रत्नावली उर भूप॥

अर्थात- मेरा जन्म बदरिका के कुलीन परिवार में हुआ परन्तु मैं पति के लिए कांटे के समान हो गई। मेरी वाणी से व्यथित होकर मेरे हृदय के राजा मुझे छोड़कर चले गए।

तुलसीदास के अनासक्त हो जाने और स्वयं के एकाकी होने पर रत्नावली लिखती हैं

धिक मो कहँ बचन लगि, मो पति लह्यो विराग। भई वियोगिनी निज करनि, रहूँ उड़वति काग॥

अर्थात- धिक्कार है मुझे क्योंकि मेरे ही वचनों के कारण मेरे पति आनसक्त हो गए। अब अपनी ही करनी के कारण वियोगिनी बनकर कौए उड़ा रही हूं।

रत्नावली अपने पति तुलसीदास से कुछ इस प्रकार क्षमा-याचना कर रही हैं

छमा करहु अपराध सब, अपराधिनी के आय। बुरी भली हों आपकी, तजउ न लेउ निभाय॥

अर्था​त- आप मेरे सभी अपराधों को क्षमा कर दीजिए, मैं बुरी हूं या भलीं हूं, मैं आपकी ही हूं इसलिए मेरा त्याग न कीजिए और मुझे स्वीकार कीजिए।

रत्नावली कहती हैं कि मेरे पति आज भी मेरे मन में बसे हैं

जदपि गए घर सों निकरे, मो मन निकरे नाहिं। मन सों निकरों ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं॥

अर्थात- मेरे पति भले ही घर छोड़कर चले गए लेकिन मेरे मन में आज भी मौजूद हैं। मेरे मन से वे तभी निकलेंगे जिस दिन मेरे प्राण इस शरीर से निकल जाएंगे।

रत्नावली अपने दोहे के माध्यम से तुलसीदास को यह संदेश देना चाहती हैं कि श्रीराम सर्वत्र विद्यमान हैं, इसलिए गृहस्थ होकर भी आप राम का ध्यान कर सकते हैं

सबहिं तीरथनु रमि रह्यौ, राम अनेकन रूप। जहीं नाथ आऔ चले, ध्याऔ त्रिभुवन भूप॥

अर्थात- श्रीराम सभी तीर्थों में अनेक रूपों में रमण कर रहे हैं, इसलिए हे नाथ! आप चले आइए और यहीं ध्यान कीजिए।

तुलसीदास के घर छोड़कर चले जाने का दुख रत्नावली कुछ इस प्रकार व्यक्त करती हैं

दीन बंधु कर घर पली, दीनबंधु कर छांह। तौउ भई हों दीन अति, पति त्यागी मो बाहं॥

अर्थात- मैं दीनबन्धु (पिता) के घर पली और दीन-बन्धु (गरीबों के साथी तुलसीदास) से विवाह हुआ। बावजूद इसके मैं संतप्त हो गई क्योंकि मेरे पति ने मेरी बाहं छोड़ दी।

रत्नावली अपने भाग्य को कुछ इस प्रकार कोस रही हैं

कबहहूँ कि ऊगे भाग रवि, कबहूँ कि होय विहान। कबहूँ कि विकसै उर कमल, रत्नावलि सकुचान॥

अर्थात- क्यों कभी मेरे भाग्य रूपी सूर्य का उदय होगा, या कभी मेरा भाग्य प्रभात की भांति प्रकाशित होगा। क्या कभी मेरा मुरझाया हुआ भाग्य कमल की तरह विकसित होगा।

किसी स्त्री के व्याभिचारी होने पर उसे कैसा दुख भोगना पड़ता है, इस बारे में रत्नावली कहती हैं कि— 

जो व्यभिचार विचार उर, रतन धरै तिय सोय। कोटि कलपि बसि नरक पुनि, जनमि कूकरी होय॥

अर्थात- जो महिला पराए पुरूष के साथ समागम के लिए संकल्प मात्र करती है, उसे करोड़ों वर्षों तक कुतिया बनकर नरक भोगना पड़ता है।

रत्नावली के अन्य दोहे कुछ इस प्रकार हैं-

  1. पति बरतत जेहि वस्तु नित, तेहि धरि रतन सम्हारी। समय-समय नित द्वै पियहि, आलस मदहि बिसारि॥
  2. दुष्ट नारि, तिमी मित सठ, ऊतर दैनो दास। रतनावलि अहिवास घर, अन्त काल जनु पास॥
  3. कहाँ हमारे भाग अस, जो पिय दरसन देयँ। वाहि पाछिली दीठि सों, एक बार लषि लेयँ।।
  4. नारि सोइ बड़भागिनी, जाके पीतम पास। लषि लषि चष सीतल करै, हीतल लहै हुलास।।
  5. रतनावलि भवसिंधु मधि, तिय जीवन की नाव। पिय केवट बिन कौन जग, षेय किनारे लाव।।
  6. भूषन रतन अनेक नग, पै न सील सम कोइ। सील जासु नैनन बसत, सो जग भूषण होइ॥
  7. रतन भाव भरि भूरि जिमि, कवि पद भरत समास। तिमी उचरहु लघु पद करहि, अरथ गंभीर विकास॥
  8. पति सेवति रत्नावली, सकुची धरि मन लाज। सकुच गई कछु पिय गए, सज्यो न सेवा साज॥
  9. जे तिय पति हित आचरहिं, रहि पति चित अनुकूल। लखहिं न सपनेहूँ पर पुरुष, ते तारहिं दोउ कूल॥
  10. धरम सदन संतति चरित, कुल कीरति कुल रीति। सबहिं बिगारति नारि इक, करि पर नर सों प्रीति॥
  11. जानि परै कहुं रज्जु अहि, कहुं अहि रज्जु लखात। रज्जु रज्जु अहि-अहि कबहुं, रतन समय की बात॥
  12. अनृत वचन माया रचन, रतनावलि बिसारी। माया अनरित कारने, सति तजि त्रिपुरारि॥
  13. मोइ दीनो संदेस पिय, अनुज नंद के हाथ। रतन समुझि जनि पृथक मोइ, जो सुमिरत रघुनाथ॥
  14. जाके कर में कर दयो, माता पिता व भ्रात। रतनावलि सह वेद विधि, सोइ कहयो पति जात॥
  15. वनिक फेरुआ भिछु कण, जनि कबहुं पतिआय। रत्नावलि जेइ रूप धरि, ठगजन ठगत भ्रमाय॥
  16. तिय जीवन ते मन सरिस, तौलों कछुक रुचै न। पिय सनेह रस राम रस, जौ लौ रतन मिलै न॥
  17. एकु-एकु आखरु लिखे, पोथी पूरति होइ। नेकु धरम तिमी नित करो, रत्नावलि गति होइ॥
  18. पति के जीवन निधन हू, पति अनिरुचत काम। करति न सो जग जस लहति, पावति गति अभिराम॥
  19. दान भोग अस नासजै, रतन सु धन गति तीन। देत न भोगत तासु धन, होत नास में लीन॥
  20. सब रस रस इक ब्रह्मा रस, रतन कहत बुध लोय। पै तिय कहं पिय प्रेम रस, बिंदु सरिस नहिं सोय॥
  21. नयन बचन तिय वासन निज, निर्मल नीचे धार। करतब रतन बिचारि तिमी, ऊँचे राखि उदार॥
  22. चतुर बरन को विप्र गुरु, अतिथि सबन गुरु जानि। रतनावलि तिमी नारि को, पति गुरु कह्यो प्रमानि॥
  23. स्वजन सषी सों जनि करहु, कबहूँ ऋन ब्यौहार। ऋन सों प्रीति प्रतीत तिय, रतन होति सब छार॥
  24. रतन करहु उपकार पर, चहहु न प्रति उपकार। लहहिं न बदलो साधुजन, बदलो लघु ब्यौहार॥
  25.  रतन बाँझ रहिबो भलौ, भले न सौउ कपूत। बाँझ रहे तिय एक दुष, पाइ कपूत अकूत॥

(लेखक  : रत्नावली के बाकी बचे असंख्य दोहों का संग्रह नहीं कर पाया, इसके लिए खेद है।)

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