उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी वाराणसी से महज 10 किमी. पूर्वोत्तर में स्थित सारनाथ बौद्ध धर्म के चार प्रमुख तीर्थों (लुम्बिनी, बोधगया और कुशीनगर के अतिरिक्त) में से एक है। दरअसल महात्मा बुद्ध ने सारनाथ में ही पांच ब्राह्मण शिष्यों- कौंडिन्य,अस्साजी, भद्दिया, वप्पा और महानमा को अपना पहला उपदेश दिया था, जिसे ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ कहा गया है।
अत: पवित्र स्थल सारनाथ को बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार का प्राथमिक केन्द्र बनने सौभाग्य प्राप्त हुआ। सारनाथ से अपने ब्राह्मण अनुयायियों के साथ भगवान बुद्ध वाराणसी गए जहां यश नामक एक धनी श्रेष्ठिपुत्र को उन्होंने अपना शिष्य बनाया।
इसके अतिरिक्त भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद जब उनका अंतिम संस्कार किया गया तब उनके शरीर के राख एवं अस्थियों को विभाजित करके आठ स्तूपों के नीचे दफनाया गया, सारनाथ स्थित धमेख स्तूप इन्हीं स्तूपों में से एक है।
गौतम बुद्ध के एक अन्य नाम सारंगनाथ से ही वर्तमान सारनाथ शब्द की उत्पत्ति हुई। अब आप यह सोच रहे होंगे कि सारनाथ तो महात्मा बुद्ध का प्रथम उपदेश स्थल है फिर वह सारनाथ के स्वामी कैसे हुए? इस रोचक तथ्य को जानने के लिए यह स्टोरी जरूर पढ़ें।
सारनाथ के स्वामी थे गौतम बुद्ध
सारनाथ में कभी घना जंगल था जहां हिरण विचरण किया करते थे इसलिए इस जगह का नाम मृगदाव (हिरनों का जंगल) पड़ा। जातक कथाओं के अनुसार, भगवान बुद्ध किसी पूर्व जन्म में मृगदाव में 500 हिरणों के राजा थे। निग्रोधमृग के नाम से पुकारा जाने वाला यह सुवर्ण मृग सभी हिरणों से अत्यधिक शक्तिशाली और सुन्दर था। मृगदाव में निग्रोधमृग के समान एक और हिरण था उसका नाम साखा था, वह भी 500 हिरणों का स्वामी था।
उन दिनों वाराणसी का राजा प्रतिदिन हिरण का मांस खाता था, इसलिए उसके सैनिक मृगदाव से प्रतिदिन किसी न किसी हिरण का शिकार किया करते थे। इस शिकार के दौरान अक्सर एक से ज्यादा हिरण मारे जाते थे, इस आपदा से बचने के लिए हिरणों ने यह तय किया कि हर रोज एक हिरण स्वयं ही अपना बलिदान करेगा।
इसी क्रम में एक दिन मादा हिरण की बारी आई जो गर्भवती थी, इसलिए वह हिरणों के एक अन्य स्वामी साखा के पास जाकर उससे प्रार्थना करने लगी कि उसके बदले वह किसी अन्य हिरण को राजा के पास भेजा जाए। तब साखा ने उस गर्भवती हिरणी से कहा कि तुम्हारे लिए यह नियम परिवर्तित नहीं किया जा सकता है इसलिए तुम्हे अपना बलिदान देना ही होगा।
अंत में वह गर्भवती हिरणी विलाप करते हुए स्वर्णमृग निग्रोधराज के पास पहुंची, तब निग्रोधराज ने उस गर्भवती हिरणी के बदले अपना बलिदान देने का निर्णय लिया। इसके बाद जैसे ही राजा के पास यह बात पहुंची कि स्वर्णमृग निग्रोधराज अपना बलिदान देने को तत्पर है, तब उसने कारण जानना चाहा। इसके बाद निग्रोधराज ने राजा को गर्भवती हिरणी की कथा सुनाई। इसके बाद वाराणसी के राजा ने न केवल निग्रोधराज के साथ ही उस गर्भवती हिरणी को अभयदान दे दिया बल्कि मृगदाव के समस्त पशु-पक्षियों को हमेशा-हमेशा के लिए प्राणदान दे दिया। स्वर्णमृग निग्रोधराज के इसी महान बलिदान के कारण लोग उसे 'सारंगनाथ' (मृगों के नाथ) कहने लगे जो कालान्तर में सारनाथ में परिवर्तित हो गया।
बौद्ध धर्म का प्रमुख तीर्थस्थल है सारनाथ
बौद्ध धर्म के चार प्रमुख तीर्थों (लुम्बिनी, बोधगया और कुशीनगर के अतिरिक्त) में से एक सारनाथ में भारत, चीन, जापान, कंबोडिया, तिब्बत, म्यांमार, श्रीलंका के बौद्ध मतानुयायियों का आगमन सालभर होता रहता है। इसके अतिरिक्त दुनिया के अन्य देशों के पर्यटकों का हुजूम भी सारनाथ में देखने को मिलता है।
सारनाथ स्थित धमेख स्तूप जहां भगवान बुद्ध की अस्थियां रखी हुई हैं, बौद्ध अनुयायियों के लिए एक महान तीर्थस्थल है। इसके अतिरिक्त सारनाथ में मौजूद अशोक का सिंह चतुर्मुख स्तम्भशीर्ष, भगवान बुद्ध का मन्दिर, सम्राट अशोक निर्मित चौखंडी स्तूप, जैन मंदिर, राजकीय संग्रहालय, चीनी बौद्ध मन्दिर, मूलगंध कुटी विहार तथा नवीन विहार सैलानियों को बेहद आकर्षित करते हैं।
धमेख स्तूप- सारनाथ स्थित धमेख स्तूप में भगवान बुद्ध की अस्थियां रखी हुई हैं। धमेख स्तूप की नींव मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल में पड़ी। इसके बाद सारनाथ की इस सबसे आकर्षक संरचना का विस्तार कुषाण काल में हुआ और यह स्तूप गुप्तकाल में बनकर तैयार हुआ। धमेख स्तूप के निर्माण में ईंट,रोड़ी और पत्थरों का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। स्तूप के निचले तल में पत्थरों पर फूलों की शानदार नक्काशी तथा गुप्त लिपि में चिह्न अंकित हैं।
अशोक का सिंह चतुर्मुख स्तम्भशीर्ष- सारनाथ में सम्राट अशोक ने जो स्तम्भ स्थापित करवाया था उसे सिंह चतुर्मुख स्तम्भशीर्ष कहा जाता है। हांलाकि यह स्तम्भ अपने मूल स्थान पर खड़ा है लेकिन उसका शीर्ष भाग सारनाथ राजकीय संग्रहालय में रखा हुआ है। अशोक स्तम्भ की प्रारंभिक उंचाई 55 फीट थी जो अब महज 7 फीट 9 इंच तक सिमट चुकी है।
सिंहचतुर्मुख स्तम्भशीर्ष को राष्ट्रीय चिह्न के रूप में स्वीकार किया गया है। हांलाकि भारत सरकार द्वारा स्वीकार किए गए इस राष्ट्रीय प्रतीक में केवल केवल तीन सिंह दिखाई देते हैं और चौथा सिंह छुपा हुआ है। चक्र केंद्र में दिखाई देता है, सांड दाहिनी ओर और घोड़ा बायीं ओर और अन्य चक्र की बाहरी रेखा बिल्कुल दाहिने और बाई छोर पर हैं।
राष्ट्रीय चिह्न के नीचे सत्यमेव जयते अंकित है। इतना ही नहीं, भारत के तिरंगे झण्डे के मध्य में सफेद पट्टी में दिखने वाला चक्र भी सिंह चतुर्मुख स्तम्भशीर्ष से ही लिया गया है, इसके अतिरिक्त ज्यादातर भारतीय सिक्कों पर अशोक का सिंह चतुर्मुख रहता है।
मूलगंध कुटी विहार- मूलगंध कुटी विहार वह स्थान है, जहां कभी भगवान बुद्ध ने अपना पहला वर्षाकाल व्यतीत किया था। मूलगंध कुटी विहार की दीवार पर सुन्दर भित्तिचित्र बने हुए हैं जो महात्मा बुद्ध के सम्पूर्ण जीवन को दर्शाते हैं। मूलगंध कुटी विहार का निर्माण साल 1931 में श्रीलंकाई महाबोधि सोसाइटी द्वारा करवाया गया था।
चौखंडी स्तूप- सारनाथ स्थित चौखंडी स्तूप का उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी किया है। लाल पत्थरों एवं ईटों से निर्मित यह स्तूप चौकोर आकार का है। कुर्सी के आकार पर क्रमशः घटती हुई तीन मंजिलें ठोस ईंटों से बनाई गई हैं, इसलिए इसे चौखंडी स्तूप कहते हैं। चौखंडी स्तूप बौद्ध धर्म प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है, ऐसी मान्यता है कि यही वह जगह है जहां से भगवान बुद्ध ने अपने प्रथम पांच शिष्यों को उपदेश दिए थे।
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