उत्तर प्रदेश का गाजीपुर जिला स्वयं में एक विस्तृत इतिहास समेटे हुए है। गुलाबों का शहर गाजीपुर कभी सुगंधित ‘गुलाब जल’ के लिए मशहूर था लेकिन यह शहर अब अपनी गुलाबी फिजां से मरहूम होता जा रहा है। मौजूदा समय में गाजीपुर जिले की पहचान महज ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस के मकबरे तथा अफीम फैक्ट्री तक सिमट चुकी है।
ब्रिटिश शासन के दौरान रविन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकान्द तथा महात्मा गांधी के पावन कदमों ने गाजीपुर की धरती को स्पर्श किया परन्तु इन सबसे परे भारत के जिस महान राजनीतिज्ञ को इस जिले से बेहद खास लगाव हो चुका था, उसका नाम था सुभाषचन्द्र बोस। अपने राजनीतिक संघर्ष के दिनों में सुभाष चन्द्र बोस दो बार गाजीपुर आए। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस गाजीपुर जिले से क्यों इतना खास लगाव रखते थे यह जानने के लिए इस रोचक स्टोरी को जरूर पढ़ें।
सुभाष चंद्र बोस का प्रथम आगमन (1938 ई.)
नेताजी सुभाष चंद्र बोस साल 1938 में पहली बार गाजीपुर आए थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के गाजीपुर आगमन में तत्कालीन जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बाबू परशुराम राय ने महती भूमिका निभाई थी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने गाजीपुर के टाउन हॉल में आयोजित जनसभा को सम्बोधित भी किया था। जनसभा के दौरान नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को सुनने के लिए लोगों की भारी भीड़ जुटी थी।
गाजीपुर के रायगंज मोहल्ले में बाबू परशुराम राय का आवास था और यही से कांग्रेस पार्टी का कार्यालय संचालित होता था। बाबू परशुराम राय के परिवार के लोग कोलकाता में कारोबार करते थे। बाबू परशुराम राय के पहल पर ही सुभाष चन्द्र बोस ने साल 1938 में गाजीपुर आने का निमंत्रण स्वीकार किया था। टाउनहाल में आयोजित सुभाष चन्द्र बोस की जनसभा के बाद गाजीपुर के असंख्य लोगों ने भारत माता की आजादी के लिए स्वयं को होम कर दिया।
सुभाष चंद्र बोस का द्वितीय आगमन (1940 ई.)
महात्मा गांधी से हुए राजनीतिक टकराव के पश्चात नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने 29 अप्रैल 1939 ई. को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद 3 मई 1939 ई. को सुभाषचन्द्र बोस ने ‘आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक’ नाम से एक नई पार्टी का गठन कर लिया। मुंबई में आयोजित फारवर्ड ब्लॉक के स्थापना सम्मेलन में गाजीपुर के ही स्वामी सहजानंद सरस्वती ने भी बतौर विशिष्ट अतिथि अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी।
आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के स्थापना के बाद नेताजी ने देशव्यापी दौरे की योजना तैयार की। अत: साल 1940 में फारवर्ड ब्लॉक की ओर से आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गाजीपुर आए। गाजीपुर आगमन के दौरान सुभाष चन्द्र बोस झुन्नु लाल चौराहा स्थित राम कृष्ण भट्ट के घर रूके थे। इस दौरान नेताजी सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक यानि तकरीबन 6 घंटे तक गाजीपुर में रूके रहे।
शाम 4 बजे नेताजी ने टाउन हॉल में एक जनसभा को संबोधित किया। साल 1940 में टाउनहाल में आयोजित कार्यक्रम का नेतृत्व कांग्रेस की जनपद इकाई की तरफ से पंडित दलश्रृंगार दूबे ने किया था। कार्यक्रम के दौरान मूसलाधार बारिश हो रही थी फिर भी सुभाष चन्द्र बोस ने विशाल जन समूह को सम्बोधित किया। काफी देर तक चली इस जनसभा का संचालन गाजीपुर के प्रतिष्ठित साहित्यकार व स्वतंत्रता सेनानी श्रीकृष्ण राय हृदयेश ने किया था। इस जनसभा में राजनीतिक पक्ष गौड़ हो चुका था।
उसी दिन सुभाष चन्द्र बोस के निर्देश पर फॉरवर्ड ब्लॉक की जिला इकाई का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष विश्वनाथ सिंह गहमरी बनाए गए। इस पूरे घटनाक्रम को विस्तार से जानने के लिए ख्यातिलब्ध साहित्यकार डॉ. पी.एन. सिंह की चर्चित पुस्तक ‘गाजीपुर के गौरव बिंदु’ को पढ़ सकते हैं।
गाजीपुर में आयोजित कार्यक्रम की समाप्ति के बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने दिन का बना ठंडा भात खाया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया था ताकि आयोजकों को उनके भोजन प्रबन्ध को लेकर कोई परेशानी न हो। गाजीपुर में आयोजित कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद नेताजी बलिया पहुंचे थे।
आजाद हिंद फौज के सिपाही थे गाजीपुर के 29 रणबांकुरे
ब्रिटिश भारतीय सेना के एक अधिकारी मोहन सिंह ने मलाया में 15 दिसम्बर 1941 ई. को आजाद हिन्द फौज का गठन किया था। इसके बाद 12 जून 1942 को रास बिहारी बोस द्वारा आयोजित बैंकाक (मलेशिया) में इंडिया इंडिपेंडेस लीग के एक सम्मेलन में सुभाष चन्द्र बोस को लीग तथा आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सौंपने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार 7 जुलाई 1943 ई. को सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज की कमान अपने हाथों में ले ली।
धर्म,जाति से उपर उठकर आजाद हिन्द फौज में भर्ती किए गए शुरूआती सैनिकों की संख्या तकरीबन 60 हजार थी। आपको यह बात जानकर हैरानी होगी कि आजाद हिन्द फौज में 40 फीसदी के करीब मुसलमान सैनिक थे। आजाद हिन्द फौज में शामिल सैनिकों में से 29 लोग गाजीपुर के थे।
आजाद हिन्द फौज में शामिल गाजीपुर के 29 सिपाहियों में से एक नाम मशहूर एक्टर और भोजपुरी फिल्मों के जन्मदाता नजीर हुसैन का भी था। इसके अतिरिक्त नेताजी के निकट सहयोगियों में गाजीपुर के कैप्टन अब्दुल गनी, कर्नल जव्वाद खां और अनिरुद्ध कुशवाहा का नाम भी बड़े आदर से लिया जाता है। इसके अतिरिक्त गफ्फार अंसारी, जहीर अहमद और गहमर गांव के छह रणबांकुरे आजाद हिंद फौज में कार्यरत थे।
मशहूर फिल्म अभिनेता नजीर हुसैन
भोजपुरी फिल्मों के जन्मदाता और हिन्दी सिनेमा के मशहूर एक्टर नजीर हुसैन गाजीपुर के उसिया गांव के रहने वाले थे। नजीर हुसैन के पिता शहबजाद खान रेलवे में गार्ड की नौकरी करते थे। पिता की सिफारिश पर नजीर हुसैन को भी रेलवे में नौकरी मिल गई लेकिन कुछ महीने बाद उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी और साल 1940 में ब्रिटिश सेना में भर्ती हो गए। लेकिन अंग्रेजों के दुर्व्यवहार को देखकर उन्होंने यह नौकरी भी छोड़ दी इसके बाद सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गए।
साल 1945 में ब्रिटिश सेना द्वारा रंगून पर अधिकार कर लिए जाने के बाद आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को जापानी सेना के साथ आत्मसमर्पण करना पड़ा था। इस दौरान आजाद हिंद फौज के अन्य सिपाहियों के साथ नजीर हुसैन को भी कैद कर लिया गया। इस दौरान नजीर हुसैन को देश की आजादी के बाद रिहा किया गया।
1960 के दशक में नजीर हुसैन ने अभिनय और लेखन के क्षेत्र में कदम रखा। नजीर हुसैन की पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ ने धमाल मचा दिया। इसके बाद उन्होंने हमार संसार, बलम परदेसिया, चनवा के ताके चकोर, चुटकी भर सेनूर, रूस गइल सईया हमार जैसी कई यादगार फिल्मों में काम किया।
नजीर हुसैन ने कई सुपरहिट हिन्दी फिल्मों जैसे- 'परिणीता', 'जीवन ज्योति', 'मुसाफिर', 'अनुराधा', 'साहिब बीवी और गुलाम', 'नया दौर', 'कटी पतंग', 'कश्मीर की कली' में भी अपने अभिनय क्षमता की छाप छोड़ी। 15 मई 1922 को जन्मे नजीर हुसैन का इंतकाल 16 अक्टूबर 1987 को हुआ था।
कैप्टन अब्दुल गनी खां जो कभी वापस नहीं लौटे
थाना दिलदारनगर के मिर्चा गांव निवासी कैप्टन अब्दुल गनी खान के पिता सुल्तान खान ब्रिटिश सेना में सूबेदार थे। तीव्र बुद्धिवाले कैप्टन अब्दुल गनी कानून विषय से स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद गाजीपुर कोर्ट में प्रेक्टिस करने लगे थे। लम्बे-चौड़े कद काठी के मालिक कैप्टन अब्दुल गनी का नाम कुछ ही दिनों में गाजीपुर के नामी वकीलों में शुमार किया जाने लगा।
परन्तु अब्दुल गनी की इच्छा ब्रिटिश आर्मी ज्वाइन करने की थी लिहाजा वे ब्रिटिश सेना में भर्ती हो गए। सिकन्दराबाद से आर्मी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उनकी पहली पोस्टिंग जाट रेजीमेंट पंजाब में हुई। ब्रिटिश सेना में नौकरी के दौरान वह जल्द ही कैप्टन के पद तक जा पहुंचे। छुट्टी के दिनों में कैप्टन अब्दुल गनी अपने गांव आए हुए थे, इसी दौरान उन्हें गाजीपुर में सुभाष चन्द्र बोस का भाषण सुनने का मौका मिला, जिससे प्रभावित होकर उन्होंने कैप्टन पद को ठोकर मार दी और आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गए।
कैप्टन अब्दुल गनी खां अंतिम समय तक नेतीजी के साथ रहे। 1945 में जापान की हार के बाद नेताजी जब अज्ञात यात्रा पर निकल गए और आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की गिरफ्तारी हो गई थी तब कैप्टन अब्दुल गनी खां का एक अर्दली युसूफ खां कोलकाता से उनकी तलाश में गाजीपुर पहुंचा।
उसने कैप्टन अब्दुल गनी के घरवालों को बताया कि उसने ही कैप्टन अब्दुल गनी खां को नेताजी के साथ अज्ञात यात्रा पर जाने के लिए छोड़ा था। कैप्टन अब्दुल गनी खां के बेटे अब्दुल कादिर ख़ां ने हरपल अपने पिता का इंतजार किया परन्तु उनका कुछ पता नहीं चला। काफी अर्से तक मिर्चा गांव के प्रधान रहे अब्दुल कादिर ख़ां अब वयोबृद्ध भी हो चुके हैं।
नेताजी की निजी सुरक्षा में तैनात रहने वाले कर्नल जव्वाद खां
गाजीपुर के बारा गांव निवासी कर्नल जव्वाद खां को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की निजी सुरक्षा में तैनात रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। सुभाष चन्द्र बोस से प्रभावित होकर जव्वाद खां ने आजाद हिन्द फौज ज्वाइन की थी। चूंकि कर्नल जव्वाद खां का निशाना अचूक था अत: उनकी इसी प्रतिभा से प्रभावित होकर सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हें अपनी निजी सुरक्षा में तैनात कर लिया था।
जापान की पराजय के पश्चात 1945 ई. में आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा था। आजाद हिन्द फौज के अन्य सिपाहियों के साथ कर्नल जव्वाद खां ने भी वर्मा के जंगलों से भारत की ओर प्रस्थान किया। महीनों तक एक ही जूता पहने रहने के कारण पैर का चमड़ा गल चुका और हड्डियां नजर आने लगी थीं।
भारत की सीमा में प्रवेश करते ही अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को लाल किले में कैद कर लिया। अंग्रेजी खुफिया एजेंसी को इस बात की सूचना थी कि कर्नल जव्वाद खां नेताजी की निजी सुरक्षा में तैनात थे, इसलिए अंग्रेजों ने नेताजी के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाही।
इस दौरान आजाद हिन्द फौज के कई सिपाहियों को फांसी की सजा दे दी गई लेकिन अंग्रेजो ने जव्वाद खां को फांसी की सजा माफ करने का लालच देकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाही। कर्नल जव्वाद खां ने जब अपना मुंह नहीं खोला तब उन्हें 95 दिनों तक घोर यातना दी गई।
कर्नल जव्वाद खां पर अंग्रेजों ने कोड़े बरसाए, उनके जख्मों पर नमक छिड़का फिर भी कर्नल जव्वाद खां केवल इतना ही कहते रहे कि ‘जब नेताजी आएंगे तो तुम्हे देश छोड़कर जाना होगा’। आजादी के बाद जब आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को रिहा किया गया तब कर्नल जव्वाद खां भी अपने गांव बारा लौट आए। परन्तु अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक कर्नल जव्वाद खां बिल्कुल खामोश ही रहे और नेताजी सुभाष चन्द्र से जुड़े रहस्यों के प्रति सर्तक रहे। आखिरकार 1987 ई. में कर्नल जव्वाद खां का इंतकाल हो गया।
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