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Veer Tejaji and his beloved mare Lilan became immortal

वीर तेजाजी के साथ ही अमर हो गई उनकी प्रिय घोड़ी लीलड़, पढ़ें रोचक इतिहास

राजस्थान के लोक देवताओं में तेजाजी का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है। वीर ​तेजाजी के मंदिर परबतसर, खड़नाल, सुरसरा और ब्यावर में बने हुए हैं, जहां प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ल पंचमी से पूर्णिमा तिथि तक विशाल मेला लगता है।​ राजस्थान के हर गांव में एक चबूतरे पर स्थापित लोक देवता तेजाजी की मूर्ति आसानी से देखी जा सकती है। वीर तेजाजी ने गायों की रक्षा हेतु अपने जीवन का बलिदान कर दिया था। गौ रक्षार्थ मेरों के साथ हुए युद्ध में तेजाजी के साथ ही उनकी प्रिय घोड़ी लीलड़ ने भी अद्भुत पराक्रम का परिचय दिया था। इस स्टोरी में लोक देवता तेजाजी और उनकी घोड़ी लीलड़ से जुड़े रोचक इतिहास का वर्णन है।

वीर तेजाजी का जीवन परिचय- वीर तेजाजी का जन्म 1073 ई. में माघ शुक्ल चतुर्दशी को मारवाड़ के नागौर परगने के खड़नाल नामक गांव में हुआ था। जाट परिवार में जन्मे तेजाजी के पिता का नाम ताहड़ देव और माता का नाम रामकुंवरी था। तेजाजी के जन्म के समय उनके दादाजी बक्साजी खड़नाल गांव के मुखिया थे। भगवान शिव के परम उपासक ताहड़जी और रामकुंवरी देवी के पुत्र तेजाजी की आभा को देखकर बचपन में ही वीर तेजाजी को लोग ‘तेजा बाबा’ कहने लगे थे। वीर तेजाजी की बहन का नाम राजल था। तेजाजी का विवाह परबतसर तहसील के पनेर नामक गांव में हुआ था। तेजाजी की पत्नी का नाम पेमल था जो रायमलजी जागी की पुत्री थी। ऐसा कहा जाता है कि पेमल से पूर्व तेजाजी के पांच विवाह हो चुके थे, ऐसे में पेमल उनकी अन्तिम पत्नी थी। राजस्थान में प्रचलित लोक गीतों तथा कथाओं से यह पता चलता है कि गायों की रक्षा में अपना जीवन समर्पित करने वाले तेजाजी को ‘सांपों का देवता’ भी माना जाता है। वीर तेजाजी की गौरव गाथा को स्थानीय भाषा में तेजा गायन कहा जाता है। राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा अन्य राज्यों के श्रद्धालुजन वीर तेजाजी को भगवान शिव का अवतार मानते हैं। धनुष-बाण, भाला और तलवार धारण करने वाले वीर तेजाजी की प्रिय घोड़ी का नाम ‘लीलड़’ था।

वीर तेजाजी की अद्भुत घोड़ी लीलड़- वीर तेजाजी के पिता ताहड़देवजी अपने गांव खड़नाल में भूस्वामी की हैसियत रखते थे। उन दिनों लाखी नामक बंजारा अपना माल इसी गांव से होते हुए सिन्ध प्रदेश ले जाया करता था। लाखी बंजारा के पास सफेद रंग की एक शानदार घोड़ी थी। एक बार लाखी बंजारा सिन्ध प्रदेश जा रहा था तभी उसकी श्वेत घोड़ी ने खड़नाल में ही एक खेजड़ी वृक्ष के नीचे दोपहर के वक्त मादा बछेड़े लीलड़ को जन्म दिया। परन्तु लीलड़ को जन्म देते ही उसकी मां स्वर्ग सिधार गई। दर-दर भटकने वाले व्यापारी लाखी बंजारे ने मादा बछेड़े लीलड़ को ताहड़देवजी को सौंप दिया। इसके बाद बचपन से ही लीलड़ घोड़ी अपने स्वामी वीर तेजाजी की जिन्दगी में शामिल हो गई। ताहड़देवजी ने लीलड़ को गाय का दूध पिलाकर बड़ा किया। बालक तेजाजी अपनी प्रिय घोड़ी लीलड़ को प्यार से सिणगारी कहते थे। वक्त के साथ तेजाजी और लीलड़ दोनों ही जवानी की दहलीज में पहुंच गए। बलिष्ठ लीलड़ की अपने स्वामी तेजाजी के प्रति वफादारी और समझदारी काबिले तारीफ थी। इन दोनों के बीच प्रेम इतना कि वीर तेजाजी जहां भी जाते थे, उनके साथ लीलड़ का होना अनिवार्य था। वीर तेजाजी को युद्धकला में पारंगत होते समय लीलड़ ने उनका भरपूर साथ दिया।

गौ-रक्षार्थ मेरों से युद्ध- लोक गीतों के अनुसार, वीर तेजाजी पत्नी पेमल को विदा कराने अपने ससुराल पनेर गए थे। अभी रास्ते में ही थे तभी भंयकर वर्षा से नदी-नाले उफान पर हो गए बावजूद इसके दिव्य घोड़ी लीलड़ ने बड़ी सुगमता से अपने स्वामी तेजाजी को दुर्गम रास्ते पार करा दिए। वीर तेजाजी अभी पनेर में ही थे तभी लाछा गुर्जरी की गायों को मेर लोग चुरा ले गए। लाछा गुर्जरी की प्रार्थना पर वीर तेजाजी ने मेरों का पीछा किया और भयंकर युद्ध के बाद वे उन गायों को छुड़ाने में सफल हो गए। लेकिन इस संघर्ष में वीर तेजाजी बुरी तरह घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े तत्पश्चात एक नाग के काटने से सुरसरा (किशनगढ़) में उनकी मृत्यु हो गई। चूंकि वीर तेजाजी की मृत्यु भाद्रपद शुक्ल दशमी के दिन हुई थी, इसीलिए यह तिथि जनसाधारण में तेजा दशमी के नाम से प्रचलित है।

कहा जाता है कि पृथ्वी पर अचेत पड़े वीर तेजाजी को छोड़कर उनके मृत्यु का समाचार देने के लिए लीलड़ सुरसरा से सीधे उनके गांव खड़नाल आ गई। लीलड़ के आंखों की अश्रुधारा देखकर ही तेजीजी की मां रामकुंवरी समझ गईं कि उनका वीर पुत्र अब इस दुनिया में नहीं रहा। लीलड़ को अकेली देख तेजाजी की बहिन राजल भी बेहोश होकर गिर पड़ी और होश आने पर अपने घरवालों से अनुमति लेकर खड़नाल के पास ही पूर्वी जोहड़ में सती हो गई। भाई के पीछे सती होने का यह एक अनूठा उदहारण है। खड़नाल गाँव के पूर्वी जोहड़ में राजल बाई का मंदिर है। वीर तेजाजी की घोड़ी लीलड़ खड़नाल के ही धुवा तालाब की पाल पर आकर बैठ गई और फिर कभी नहीं उठी। लीलण घोड़ी का मंदिर खड़नाल स्थित तालाब के किनारे पर बना है जहां ग्रामीण आज भी लीलड़ की पूजा करते हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि लोक देवता वीर तेजाजी की घोड़ी लीलड़ के नाम पर रेल मंत्रालय ने साल 2015 में एक आदेश जारी कर जयपुर-जैसलमर इंटरसिटी एक्सप्रेस का नाम बदलकरलीलण एक्सप्रेस कर दिया।

सर्प से जुड़ी दन्तकथा- कहा जाता है कि लाछा गुर्जरी के आग्रह पर वीर तेजाजी उसकी गायों को मेरों से मुक्त कराने के लिए जा रहे थे तभी बीच रास्ते (सुरसरा में) एक नाग मिला जो उन्हें काटने के लिए आगे बढ़ा। तब तेजीजी ने उस नाग को यह वचन दिया कि गायों को छुड़ाने के बाद वह स्वयं उसके पास आ जाएंगे। गायों को तो छुड़वा लिया लेकिन मेरों के साथ हुए संघर्ष में तेजाजी बुरी तरह से घायल हो गए थे। ऐसे में पूरा शरीर चोटिल होने के कारण सांप ने डसने से मना कर दिया तब तेजाजी ने उस सर्प के सम्मुख अपनी जीभ आगे कर दी। इस प्रकार सर्पदंश से भाद्रपद शुक्ल दशमी तिथि को तेजीजी की मृत्यु हो गई। वीर तेजाजी की पत्नी पेमल भी उन्हीं के साथ सती हो गई।

ऊंटनी चराते आसू देवासी को इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी माना जाता है जिसने ग्वालों के सहयोग से वीर तेजाजी तथा उनकी पत्नी पेमल का दाह संस्कार किया था। वीर तेजाजी के अनुयायी इन्हें नाग देवता के रूप में भी पूजते हैं। ऐसी मान्यता है कि सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति के दाएं पैर में तेजाजी की तांती (डोरी) बांधने के बाद शरीर में विष नहीं चढ़ता है। निष्कर्षतया गायों को मुक्त कराने हेतु मेरों के साथ हुए भयंकर युद्ध में वीर तेजाजी तथा उनकी प्रिय घोड़ी लीलड़ के शौर्य प्रदर्शन ने उन्हें सर्वदा के लिए अमर कर दिया।

वीर तेजाजी का मुख्य मंदिर- वीर तेजाजी की जन्मस्थली खड़नाल (नागौर) में मुख्य मंदिर निर्मित है। तलवार धारण किए हुए, अश्वारोही योद्धा के रूप में जिनकी जिह्वा को सांप काट रहा है, मंदिर में वीर तेजाजी की मूर्ति स्थापित है। प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ल दशमी यानि तेजा दशमी के दिन खड़नाल में एक विशाल पशु मेले का आयोजन होता है। इस मेले में लाखों श्रद्धालु गाजे-बाजे के साथ शामिल होते हैं और अपने लोक देवता वीर तेजाजी के दर्शन कर उन्हें  झंडे, नारियल तथा चूरमे का प्रसाद चढ़ाते हैं। स्थानीय भाषा में मंदिर के चबूतरे को थान तथा पुजारी को घोड़ला कहा जाता है। हैरानी की बात यह है कि तेजाजी के मंदिरों में मुख्य पुजारी का काम निम्न वर्ग के लोग ही करते हैं। तेजा दशमी के दिन श्रद्धालु अपने घरों में चूरमा-बाटी समेत अन्य व्यंजनों को तैयार कर वीर तेजाजी को भोग लगाते हैं तथा अपने परिजनों की विषैले सांपों से रक्षा की कामना करते हैं।

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