खिलजी वंश के सबसे ताकतवर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के राज्यारोहण के साथ ही दिल्ली सल्तनत के साम्राज्यवादी युग का सूत्रपात होता है। अनवरत युद्धों के जरिए अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी सल्तनत का प्रभावशाली विस्तार किया। अलाउद्दीन ने अकबर की भांति हिन्दू राजाओं को पूर्व स्थिति में रहने दिया और केवल ‘कर’ वसूल किया।
उत्तर प्रदेश, मध्य भारत, बंगाल, गुजरात, राजस्थान पर विजय प्राप्त करने वाले अलाउद्दीन खिलजी ने विध्यांचल पर्वतमाला को पारकर दक्षिणी प्रायद्वीप को जीतने का प्रयास किया। दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात अलाउद्दीन खिलजी ने ‘सिकन्दर-ए-सानी’ (सिकन्दर द्वितीय) की उपाधि ग्रहण की। अलाउद्दीन ने अपने सिक्कों तथा सार्वजनिक प्रार्थनाओं में भी स्वयं को दूसरा सिकन्दर घोषित किया।
अलाउद्दीन खिलजी अपनी अनवरत विजयों से इतना महत्वाकांक्षी हो उठा कि वह यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर की तरह सम्पूर्ण विश्व को जीतने की बात सोचने लगा। ऐसे में आपका यह सोचना बिल्कुल लाजिमी है कि ‘सिकन्दर-ए-सानी’ की उपाधि धारण करने वाला अलाउद्दीन खिलजी क्या अपनी विश्व विजय योजना को अंजाम दे पाया? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए यह रोचक स्टोरी जरूर पढ़ें।
अलाउद्दीन खिलजी की विशाल एवं शक्तिशाली सेना
अलाउद्दीन खिलजी एक कर्मठ सैनिक, सर्वश्रेष्ठ सेनापति, कुशल कूटनीतिज्ञ, बेहतरीन शासन प्रबन्धक, महान विजेता तथा शक्तिशाली सुल्तान था। हांलाकि व्यक्तिगत दृष्टि से अलाउद्दीन स्वार्थी और क्रूर था। प्रेम एवं नैतिकता से रहित अलाउद्दीन खिलजी का एकमात्र लक्ष्य सफलता था और उसकी प्राप्ति के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता था।
अति महत्वाकांक्षी सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के पास एक विशाल तथा शक्तिशाली सेना थी। दिल्ली का वह पहला सुल्तान था, जिसके पास इतनी विशाल एवं स्थायी सेना थी। सैनिकों को हथियार, प्रशिक्षण, रसद, वस्त्र तथा नकद वेतन आदि सुल्तान से प्राप्त होते थे। जिस सैनिक के पास एक घोड़ा होता था, उसे सालाना 234 टंका वेतन मिलता था जबकि दो घोड़े वाले सैनिक को सालाना 378 टंका वेतन मिलता था।
इतिहासकार फरिश्ता लिखता है कि “अलाउद्दीन खिलजी की सेना में 4 लाख 75 हजार घुड़सवार थे।” जाहिर है, पैदल सैनिकों की संख्या इससे भी अधिक होगी। सम्भव है, घुड़सवार और पैदल सैनिकों की कुल संख्या तकरीबन 10 लाख के आस-पास रही होगी।
इसके अतिरिक्त हाथी भी सेना का एक भाग थे, उसकी सेना में पत्थर फेंकने वाली मशीनों (तोपों) का भी इस्तेमाल किया जाता था। धनुष-बाण, तलवार, भाला, कटार आदि युद्ध के मुख्य शस्त्र थे। सैनिकों की सुरक्षा के लिए शिरस्त्राण, कवच और ढाल का प्रयोग किया जाता था।
‘विश्व विजय’ का स्वप्न देखता था अलाउद्दीन खिलजी
अलाउद्दीन खिलजी सम्पूर्ण विश्व को जीतने के स्वप्न देखता था। इसीलिए उसने ‘सिकन्दर-ए-सानी’ (सिकन्दर द्वितीय) की उपाधि धारण की। अलाउद्दीन खिलजी के मित्र और दिल्ली के कोतवाल अलाउलमुल्क ने उसे समझाया कि परिस्थितियां उनती अनुकूल नहीं है, जितनी सिकन्दर के समय थीं।
सिकन्दर के पास अरस्तु जैसा योग्य सलाहकार एवं बुद्धिमान व्यक्ति था जबकि अलाउद्दीन के पास ऐसा कोई योग्य व्यक्ति नहीं था जो उसकी अनुपस्थिति में राजकाज की व्यवस्था कर सके। ऐसे में अलाउद्दीन खिलजी ने अलाउलमुल्क की सलाह मानकर ‘विश्व विजय’ की योजना त्याग दी और अपने सैन्य अभियानों को भारत की सीमाओं तक ही सीमित रखा।
अलाउद्दीन खिलजी ने उत्तर भारत के शक्तिशाली शासकों में जैसलमेर, गुजरात, रणथम्भौर, बंगाल, चित्तौड़, मालवा, सिवाना और जालौर को जीतने के बाद दक्षिण भारत के देवगिरी, तेलंगाना, होयसल, पांडय राज्यों को अपने अधीन कर एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की।
उत्तर पश्चिम में सिन्धु नदी अलाउद्दीन खिलजी के राज्य की सीमा था, किन्तु 1306 ई. के बाद उसके राज्य क्षेत्र का प्रभाव काबुल तथा गजनी तक चला गया था। पूर्व में अलाउद्दीन खिलजी का राज्य अवध (वर्तमान उत्तर प्रदेश) तक था। सम्भवत: उड़ीसा, बंगाल और बिहार उसके राज्य में नहीं थे। कश्मीर पर भी सुल्तान का कब्जा नहीं था। हांलाकि पंजाब से लेकर दक्षिण में विन्ध्याचल तक का क्षेत्र उसके राज्य में सम्मिलित था।
राजस्थान के तकरीबन सभी राजा उसके अधीन थे, उनके सभी महत्वपूर्ण किलों पर अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार था। गुजरात भी अलाउद्दीन खिलजी के अधीन था। दक्षिण भारत में पाण्डय राज्य के अतिरिक्त अन्य सभी राज्यों ने उसकी आधीनता स्वीकार कर ली थी।
मंगोल आक्रमणों को कुचलने वाला एकमात्र सुल्तान
खूंखार मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खां की मृत्यु के पश्चात मंगोल साम्राज्य विभाजित हो चुका था, पारस्परिक युद्धों के कारण मंगोलों की शक्ति पहले की अपेक्षा कमजोर हो चुकी थी। बावजूद इसके एशिया में मंगोल उस समय तक महान शक्ति थे। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत का एकमात्र सुल्तान था जिसके समय में मंगोलों के सबसे अधिक और भयंकर आक्रमण हुए। अलाउद्दीन खिलजी ने मंगोलों के विरूद्ध जबरदस्त सफलता प्राप्त की।
मंगोलों का पहला आक्रमण - ट्रान्सआक्सियाना के शासक दवाखां ने एक लाख की सेना के साथ कादर को भारत पर आक्रमण करने के लिए भेजा। मंगोलों की सेना ने पंजाब में दाखिल होकर लाहौर के सीमावर्ती क्षेत्रों को लूटना शुरू किया। तत्पश्चात अलाउद्दीन खिलजी के सेनानायक जफरखां और उलूगखां ने जालन्धर के निकट मंगोलों को करारी शिकस्त दी।
इस युद्ध में तकरीबन 20 हजार मंगोल मारे गए। मंगोल सेना के कई बड़े अधिकारी मारे गए, इसके अलावा बड़ी संख्या में मंगोल स्त्रीयों और बच्चों को गुलाम बनाकर दिल्ली भेज दिया गया।
मंगोलों का दूसरा आक्रमण - दवाखां के भाई सलदीखां के नेतृत्व में मंगोलों ने साल 1229 में दूसरा आक्रमण किया। सलदी ने सिबिस्तान पर कब्जा कर लिया। इसके बाद अलाउद्दीन के सेनानायक जफरखां ने सलदीखां को पराजित कर सिबिस्तान उससे छीन लिया। इतना ही नहीं, सलदी सहित अनेक स्त्री- पुरूषों को बन्दी बनाकर दिल्ली भेज दिया गया।
मंगोलों का तीसरा आक्रमण - सलदीखां की मृत्यु का बदला लेने तथा भारत विजय के उद्देश्य से मंगोल शासक दवाखां ने अपने पुत्र कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में 2 लाख मंगोलों की शक्तिशाली सेना भारत भेजी। कुतलुग ख्वाजा की शक्तिशाली मंगोल सेना बिना किसी बड़े प्रतिरोध के दिल्ली के निकट पहुंच गई।
इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी के साथ नुसरतखां, जफरखां तथा उलूग खां ने क्रमश: मंगोल सेना के मध्य भाग, वामपक्ष तथा दाहिने पक्ष पर हमला किया। इस भीषण हमले में मंगोल भाग खड़े हुए किन्तु जफरखां ने मंगोलों का 18 कोस तक पीछा किया।
जफरखां जब एक हजार सैनिकों के साथ वापस लौट रहा था तभी तार्गी के नेतृत्व में दस हजार मंगोलों ने उसे घेर लिया। बावजूद इसके जफरखां ने भीषण युद्ध किया। हांलाकि इस युद्ध में जफर खां मारा गया किन्तु उसके शौर्य और खिलजी सेना की दृढ़ता से भयभीत मंगोल उसी रात्रि 30 कोस पीछे हट गए और फिर वापस चले गए।
मंगोलों का चौथा आक्रमण - मंगोलों का चौथा आक्रमण तब हुआ जब अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ किले के घेरे से वापस लौटकर दिल्ली पहुंचा ही था। चूंकि अलाउद्दीन की एक बड़ी सेना तेलंगाना आक्रमण पर जा चुकी थी अत: दिल्ली की सेना अपर्याप्त और दुर्बल स्थिति में थी।
ऐसे में अलाउद्दीन खिलजी ने स्वयं की सुरक्षा के लिए सीरी किले में अपनी सैन्य व्यवस्था को मजबूत किया। मंगोल किसी भी किले को घेरा डालकर फतह करने में दक्ष नहीं थे, अत: मंगोल सीरी किले की 2 महीने तक घेराबन्दी के बाद दिल्ली तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्रों को लूटकर वापस लौट गए।
मंगोलों का पांचवां आक्रमण - साल 1305 में तार्ताक और अलीबेग की अगुवाई में 50 हजार की मंगोल सेना ने एक बार फिर से आक्रमण किया। सल्तनत के किलों से बचते हुए मंगोल सेना बड़ी आसानी से अमरोहा तक पहुंच गई। इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर तथा गाजी मलिक को मंगोलों के विरूद्ध भेजा।
खिलजी के इन दोनों सेनापतियों ने मंगोलों को करारी शिकस्त दी तथा तार्ताक और अलीबेग को कैद करके दिल्ली ले आए, जहां उन्हें बेरहमी कत्ल कर दिया गया।
मंगोलों का अंतिम आक्रमण - 1306 ई. में अलीबेग और तार्ताक की मौत का बदला लेने के लिए मंगोलों ने एक बार फिर से आक्रमण किया किन्तु यह उनका अंतिम आक्रमण सिद्ध हुआ। मंगोलों की एक सेना कबक के नेतृत्व में मुल्तान होती हुई रावी नदी की तरफ बढ़ी जबकि मंगोलों की दूसरी सेना इकबालमन्द और तईबू की अगुवाई में नागौर की तरफ बढ़ी।
मंगोलों के विरूद्ध अलाउद्दीन खिलजी ने एकबार फिर से मलिक काफूर और गाजी मलिक को भेजा। मलिक काफूर ने मंगोल नेता कबक को रावी नदी के तट पर परास्त करके कैद कर लिया और तेजी से नागौर की तरफ बढ़ा। मलिक काफूर के अचानक आक्रमण से इकबालमन्द और तईबू की मंगोल सेना पराजित होकर भाग खड़ी हुई।
कबक के साथ 20 हजार मंगोलों को कैदकर दिल्ली लाया गया। इन सभी मंगोलों को हाथियों से कुचलवा कर उनके सिरों की एक मीनार ‘बदायूं दरवाजे’ पर बनाई गई, जबकि मंगोल स्त्री-बच्चों को गुलाम बनाकर उन्हें विभिन्न स्थानों पर बेच दिया गया।