भारत का इतिहास

History of Alauddin Khilji

अलाउद्दीन खिलजी (1296 से 1316 ई.)

खिलजी क्रान्ति से तात्पर्य

सत्ता पर तुर्की अमीर वर्ग के एकाधिकार की समाप्ति। सल्तनत से जुड़े श्रेष्ठ पद अब जातीय अथवा नस्लीय आधार पर नहीं अपितु योग्यता के आधार पर प्राप्त किए जा सकते थे। रक्त की शुद्धता व उच्च कुलीनता पर आधारित बलबन का राजत्व सिद्धान्त खिलजी काल में समाप्त हो गया।

यद्यपि खिलजी सुल्तान तुर्क थे लेकिन उन्होंने गैर तुर्कों को भी प्रशासन में शामिल किया। इतना ही नहीं खिलजी काल में साम्राज्यवादी तथा आर्थिक नीतियों में प्रबल परिवर्तन देखने को मिले। इन्हीं परिवर्तनों को मध्यकालीन इतिहास में खिलजी क्रान्ति कहा जाता है।

जलालुद्दीन खिलजी की निर्मम हत्या

 खिलजी वंश का संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी (1290- 1296) एक निष्ठावान, निष्कपट, दयालु और उदार व्यक्ति था लेकिन वह शाही सत्ता का दृढ़ता के साथ प्रयोग करने में असमर्थ रहा। जलालुद्दीन खिलजी जब दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठा तब वह 70 वर्ष का वृद्ध व्यक्ति था। हांलाकि वह एक योग्य सेनापति था लेकिन अब वह युद्धप्रिय नहीं रह गया था।

जलालुद्दीन खिलजी ने सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा के अनुकूल व्यवहार नहीं किया और न ही उसके अनुकूल उसकी महत्वकांक्षाएं रहीं। बतौर उदाहरण- ‘कुछ माह पश्चात जलालुद्दीन खिलजी जब बलबन के लाल महल में गया तब वह बाहर के फाटक पर ही घोड़े से उतर गया और बलबन के सिंहासन को देखकर रो पड़ा तथा सिंहासन पर बैठने से इनकार कर दिया’।

जलालुद्दीन की इसी दुर्बलता का लाभ उठाकर उसके दामाद व भतीजे अलाउद्दीन खिलजी को बलपूर्वक सिंहासन हथियाने का उचित अवसर मिल गया। भिलसा, चंदेरी और देवगिरि को लूटकर अपार धन लेकर अलाउद्दीन खिलजी कड़ा-मानिकपुर के रास्ते लौट रहा था, उस वक्त जलालुद्दीन ग्वालियर में मौजूद था। लूट में मिले अपार कोष और प्रशिक्षित सेना की सहायता से अलाउ्दीन को अपनी योजना कार्यान्वित करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।

हांलाकि अमीर-ए-हाजिब अहमद चप ने सुल्तान जलालुद्दीन को सलाह दी कि अलाउद्दीन को मार्ग में ही रोककर उससे देवगिरी से प्राप्त धन छीन लेना चाहिए अन्यथा वह धन उसे शक्तिशाली बना देगा जो राज्य के हित में नहीं होगा। परन्तु सुल्तान ने उसकी सलाह को ठुकरा दिया।

जलालुद्दीन जब दिल्ली लौट गया तब अलाउद्दीन ने एक षडयंत्र के तहत अपने भाई अलमास बेग को पत्र लिखा कि वह बहुत भयभीत है क्योंकि उसने सुल्तान की आज्ञा के बिना देवगिरि पर आक्रमण किया और वह सुल्तान को देवगिरि की सम्पूर्ण सम्पत्ति सौंपने को तैयार है बशर्ते सुल्तान स्वयं कड़ा-मानिकपुर आए अन्यथा वह बंगाल भाग जाएगा अथवा आत्महत्या कर लेगा।

अलाउद्दीन की चाल चल गई क्योंकि अपने सभी वफादार सरदारों की सलाह ठुकरा सुल्तान जलालुद्दीन उससे मिलने नदी मार्ग से मानिकपुर पहुंच गया। जबकि उसकी सेना अहमद चप के नेतृत्व में स्थल मार्ग से गई। वहीं अलाउद्दीन भी गंगा नदी पाकर मानिकपुर पहुंच गया। अलमास बेग की प्रार्थना पर जलालुद्दीन ने अपने शस्त्र उतार फेंके तथा अपने सरदारों के शस्त्र भी उतरवा दिए थे जबकि अलाउद्दीन की सेना गंगा तट पर पंक्तिबद्ध खड़ी थी।

गंगा नदी के तट पर अलाउद्दीन अपने चाचा जलालुद्दीन के पैरों पर गिर पड़ा। सुल्तान ने उसे उठाकर गले लगाया और उसे आश्वस्त करते हुए अपनी नाव की तरफ बढ़ा तभी अलाउद्दीन के इशारे पर उसके एक सरदार इख्तियारूद्दीन ने सुल्तान को धक्का देकर भूमि पर गिरा दिया और उसका सिर काट लिया। यह घृणित कृत्य 20 जुलाई 1296 ई. को किया गया, इस बारे में बरनी का कहना है कि “शहीद सुल्तान के कटे हुए मस्तक से अभी रक्त टपक रहा था, जब शाही चंदोबा अलाउद्दीन के सिर के उपर उठाया गया और वह सुल्तान घोषित किया गया।”  इतना ही नहीं सुल्तान जलालुद्दीन के कटे हुए सिर को कड़ा-मानिकपुर और अवध की सीमाओं में एक साधारण अपराधी के सिर की भांति घुमा-घुमाकर जनसाधारण को दिखाया गया।

अलाउद्दीन खिलजी का संक्षिप्त जीवन-परिचय

इस प्रकार अलाउद्दीन खिलजी (वास्तविक नाम अलीगुर्शप) 1296 ई. में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। सुल्तान बनते ही उसने अबुल मुजफ्फर सुल्तान अलाउद् दुनिया-वा दीन मुहम्मद शाह खलजी की उपाधि ग्रहण की। जलालुद्दीन खिलजी के भाई शिहाबुद्दीन मसूद खिलजी का पुत्र अलाउद्दीन के शिक्षा-दीक्षा की विशेष जानकारी नहीं मिलती है लेकिन इतना अवश्य है कि वह शस्त्र शिक्षा में निपुण था। जलालुद्दीन खिलजी ने अपनी एक पुत्री का विवाह अलाउद्दीन खिलजी से तथा दूसरी पुत्री का विवाह उसके छोटे भाई अलमास बेग से किया था। सुल्तान बनने के बाद जलालुद्दीन खिलजी ने अलाउद्दीन खिलजी को ‘अमीर-ए-तुजुक’ तथा अलमास बेग को ‘अखूरबेग’ का पद दिया था।

मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने में महत्वपूर्ण भूमिका के कारण अलाउद्दीन को कड़ा-मानिकपुर की सूबेदारी मिली थी। 1292 ई. में सुल्तान की आज्ञा से भिल्सा को लूटा, उसके बदले में उसे अवध की सूबेदारी दी गई। 1296 ई. में देवगिरी पर आक्रमण कर अतूल सम्पत्ति हासिल की जिससे उसके सम्मान और शक्ति में वृद्धि हुई।

साम्राज्य विस्तार के दौरान अपनी विजयों और सफलताओं से प्रोत्साहित होकर अलाउद्दीन खिलजी ने सिकन्द-ए-सानी (सिकन्दर द्वितीय) की उपाधि धारण की और उसे अपने सिक्कों पर अंकित करवाया। वह इतना अधिक महत्वाकांक्षी हो उठा कि सम्पूर्ण विश्व को जीतकर एक नवीन धर्म चलाने की बात सोचने लगा। परन्तु उसके मित्र एवं वफादार कोतवाल अला-उल-मुल्क ने सलाह दी कि पहले वह भारत के विस्तृत प्रदेश को जीतने का प्रयत्न करे और नवीन धर्म चलाने विचार त्याग दे क्योंकि यह कार्य शासकों का नहीं वरन पैगम्बरों का होता है। अतः अलाउद्दीन खिलजी ने सफल गृहनीति के द्वारा एक निरकुंश राजतंत्र की स्थापना की तथा अपने राज्य का विस्तार कर भारत में मुस्लिम साम्राज्यवाद को पूर्णता पर पहुंचा दिया।

जलाली सरदारों का कठोरतापूर्वक दमन

दिल्ली के सिंहासन पर बैठते ही अलाउद्दीन ने सबसे पहले जनता में दिल खोलकर धन बांटे जिससे लोग बहुत जल्द ही उसके चाचा के वध की घटना को भूल गए। इसके बाद उसने अपने वफादार सरदारों को बड़े-बड़े पद और सम्मानित उपाधियां प्रदान की।

परन्तु अलाउद्दीन खिलजी की मुख्य समस्या अर्कली खां और उसके परिवार तथा उन वफादार जलाली सरदारों से थी जो मुल्तान से थे। ऐसे में अलाउद्दीन ने उलूग खां तथा जफरखां के नेतृत्व में चालीस हजार सैनिकों की एक शक्तिशाली सेना मुल्तान पर आक्रमण करने के लिए भेजी। कुछ माह के घेरे के पश्चात अर्कली खां ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके पश्चात उसके परिवार के सदस्य तथा जलाल सरदार बन्दी बना लिए गए। रास्ते में सुल्तान अलाउद्दीन के आदेश पर अर्कली खां, रूकनुद्दीन इब्राहिम, अहमद चप और मलिक अलूग को अन्धा कर दिया गया।

बाद में हांसी के कोतवाल ने अर्कली खां, उसके दो पुत्रों और रूकनुद्दीन इब्राहिम का वध करवा दिया। इसके अतिरिक्त नुसरतखां के सुपूर्द किए गए अहमद चप और मलिक अलगू भी कत्ल कर दिए गए।1297 और 1299 ई. में हुए दो मंगोल आक्रमणों को विफल करने के बाद उसने अधिकांश जलाली सरदारों को अन्धा करवा दिया और कुछ को कैद कर उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली। इसके बाद अपने वफादार सरदारों का गुट बनाया जो उसके लिए सहायक सिद्ध हुए।

अलाउद्दीन खिलजी की राजस्व तथा लगान व्यवस्था

अलाउद्दीन खिलजी की राजस्व व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य एक शक्तिशाली एवं निरकुंश राज्य की स्थापना करना था। साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा तथा मंगोल आक्रमणों से सुरक्षा के लिए उसे एक विशाल सेना की आवश्यकता थी जिसके लिए राज्य की आय में वृद्धि करना आवश्यक था। अधिक से अधिक राजस्व एकत्रित करने के उद्देश्य से उसने लगान व्यवस्था की प्राचीन परम्पराओं को तोड़कर एक नवीन व्यवस्था की नींव डाली।

पहला परिवर्तन उसने उन व्यक्तियों पर किया जो अब किसी भी रूप में राज्य की सेवा नहीं कर रहे थे। उन सभी व्यक्तियों से भूमि छीन ली गई जो राज्य द्वारा प्रदत्त सम्पत्ति, इनाम वक्फ आदि के रूप में मिली हुई थीं। उसने योग्यता तथा राज्य की सेवा के आधार व्याक्तियों को भूमि प्रदान की तथा इसका स्पष्ट ब्यौरा रखा कि किस व्यक्ति के पास कौन सी और कितनी भूमि है। अलाउद्दीन के इस सुधार से राज्य की भूमि (खालसा भूमि) में वृद्धि हुई, केवल योग्य व्यक्तियों के पास भूमि रही और पुराने सरदारों का प्रभाव कम हुआ।

अलाउद्दीन ने दूसरा कदम खूत (जमीदारों), चौधरी और मुकद्दमों (मुखिया) के खिलाफ उठाया जिन्होंने अपने पद को वंशानुगत कर रखा था, इन सभी से भूमि छीनकर इनके विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया गया। अब इन सब से सभी प्रकार के ‘कर’ वसूल किया जाने लगा। ऐसे में अब खूत (जमींदार) और बलाहार (साधारण किसान) में कोई अन्तर नहीं रहा।

अलाउद्दीन ने लगान (खराज) पैदावार का ½ भाग कर दिया और वो भी गल्ले के रूप में। यह पहला सुल्तान था जिसने भूमि पैमाइश के आधार पर लगान वसूल किया। इसके लिए बिस्वा’ को ईकाई माना गया। इसके साथ ही उसने दो नए कर लागू किए- मकान कर और चराई कर। जजिया, सिंचाई कर तथा आयात-निर्यात कर पूर्ववत ही रहे। ‘करही’ नाम का एक अन्य कर भी था जिसके बारे में कुछ सटीक जानकारी नहीं मिलती है।

राज्य के किसानों से उनके पैदावार का 80 फीसदी तक ‘कर’ के रूप में वसूली की जाती थी। व्यापारिक कर के रूप में मुसलमानों से 5 फीसदी तथा हिन्दूओं से 10 फीसदी ‘कर’ लिया जाता था।  अपनी लगान व्यवस्था को पूरे राज्य में समान रूप से लागू करने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने एक अलग विभाग दीवान-ए-मुस्तखराज की स्थापना की थी और हजारों की संख्या में आमिल, मुंशरिफ, मुहस्सिल, गुमाश्ता, नवसिन्दा तथा सरहंग नामक पदाधिकारियों की नियुक्ति की थी।

रिश्वत और बेईमानी रोकने के लिए उसने लगान अधिकारियों की वेतन वृद्धि भी की तथा आवश्यकता पड़ने पर उन्हें कठोर दण्ड के रूप में वर्षों जेल में रहना पड़ता था। अलाउद्दीन ने भ्रष्टाचार को पूर्णतया समाप्त कर दिया ऐसा सम्भव प्रतीत नहीं होता लेकिन अपने कठोर शासन से लगान व्यवस्था के उद्देश्य में सफल रहा।

बाजार नियंत्रण नीति (Market control Policy)

अलाउद्दीन खिलजी की बाजार व्यवस्था को लेकर विभिन्न इतिहासकारों के विभिन्न मत हैं। चूंकि सुलतान ने केन्द्र में एक बड़ी सेना रखी और उसे नकद वेतन देता था। अत: इस संबंध में जियाउद्दीन बरनी लिखता है कि यदि उतनी बड़ी सेना को साधारण वेतन भी दिया जाता तो भी राज्य का खजाना पांच या छह वर्ष में ही समाप्त हो जाता। अत: अलाउद्दीन ने सेना के व्यय में कमी करने के लिए सैनिकों के वेतन में कमी की। परन्तु उसके सैनिक सुविधापूर्वक रह सकें इसके लिए उसने वस्तुओं के मूल्य निश्चित किए और उनकी दरें कम कर दीं। इसके अतिरिक्त वह यह भी चाहता था कि वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि न हो।      

बाजार नियंत्रण नीति को सफल बनाने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने चार प्रमुख कदम उठाए। 1- सभी वस्तुओं के मूल्यों को सुनिश्चित किया। 2- प्रत्येक वस्तुओं के लिए पृथक-पृथक बाजार व्यवस्था। 3- वस्तुओं का उचित संग्रह एवं वितरण। 4- उचित बाजारों का प्रबन्ध।

वस्तुओं का मूल्य निर्धारण

अलाउद्दीन खिलजी ने भूमिकर बढ़ाकर आय में पर्याप्त वृद्धि की थी लेकिन यह आय उसकी विशाल सेना का व्यय वहन करने में अक्षम थी। अतः उसने वस्तुओं के मूल्यों में कमी व कीमत सुनिश्चित करने का निर्णय लिया।उसने सावधानी से उन सभी वस्तुओं की सूची बनवायी जो सैनिक के दैनिक जीवन में काम आती थीं। कुछ प्रमुख वस्तुओं की मूल्य सूची निम्नवत है।

गेहूं- 7.5 जीतल प्रति मन,  जौ- 4 जीतल प्रति मन, चना- 5 जीतल प्रति मन, चावल-5 जीतल प्रति मन

शक्कर- 1.5 जीतल प्रति मन, गुड़- 1/3 जीतल प्रति मन, घी (भगवत) 1 जीतल प्रति 2.5 सेर

 सरसों का तेल- 1 जीतल प्रति 3 सेर, नमक- 1 जीतल प्रति 12 मन, 1 लठ्ठा रेशमी कपड़ा- 1 टंका में 20 गज

घोड़े- 100-120 टंका उच्च श्रेणी, दासी- 5-12 टंका, दास- 10 -15 टंका, दुधारू भैस- 10-12 टंका, दुधारू गाय- 3-4 टंका।

सुल्तान ने जिन वस्तुओं की कीमत सुनिश्चित की वह उसके शासन के अन्त तक यथावत रहीं। सैनिकों के अलावा सामान्य नागरिकों को भी वे सभी वस्तुएं उपलब्ध रहीं जिससे उन्हें लाभ मिला और बेईमानी कम हुई।

आपूर्ति की व्यवस्था

मूल्यों की स्थिरता हेतु वस्तुओं की बराबर आपूर्ति अनिवार्य थी जिसके लिए सुल्तान ने निम्नलिखित कार्य किए।

1- राज्य में उत्पन्न होने वाली वस्तुओं के पैदावार का निर्धारण या वृद्धि।

2- विदेशों या राज्य से अपर्याप्त वस्तुओं के आयात की उत्तम व्यवस्था।

3- वस्तुओं के संग्रह हेतु सरकारी गोदामों का निर्माण।

4-कर के रूप में भी अन्न ही देने की व्यवस्था। 5- आवश्यकता से अधिक अन्न सामग्री रखना निषेध अथवा कठोर दण्ड। 6- व्यापारियों पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण।

उचित वितरण

वस्तुओं के मूल्य निर्धारण तथा आपूर्ति की तरह ही वस्तु वितरण की भी उचित व्यवस्था थी। प्रत्येक क्षेत्र की जनसंख्या के आधार पर माल उपलब्धता निश्चित की गई। प्रत्येक व्यापारी को अपना नाम दीवाने-रियासत कार्यालय में लिखवाना पड़ता था। इसके साथ ही उपभोक्ता वर्ग को आज्ञापत्र (राशनकार्ड) दिए गए थे उन्हीं के हिसाब से वस्तुएं मिलती थीं।

बाजार प्रबन्ध

प्रत्येक वस्तु के लिए अलग-अलग बाजार निश्चित किए गए, जिसमें मुख्य रूप से तीन तरह के बाजार थे। मण्डी, कपड़ों तथा निर्यात व विदेशों से आने वाले माल के लिए सराय--अदल घोड़ों, मवेशियों तथा गुलामों के लिए अलग बाजार और दैनिक जीवन के उपभोग​ (विशेष रूप से खाद्यान्न) वस्तुओं के लिए अलग बाजार की व्यवस्था की गई थी।

इस संबंध में  फतवा--जहांदारी में जिया-उद्-दिन बरनी अलाउद्दीन खिलजी की बाजार नीति के बारे में लिखता है- “सुल्तान का विचार था कि वस्तुओं का मूल्य राज्य की ओर से निश्चित हो, किसी को निश्चित मूल्य से अधिक कर वसूलने की आज्ञा न हो, बाजार में निरीक्षक तथा अन्य पदाधिकारी नियुक्त किए जाएं जो इस बात का देखरेख करते रहें कि राजाज्ञाओं का किसी प्रकार से भी उल्लंघन न हो।”  अर्थात् इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था कि सुल्तान द्वारा निश्चित किए गए मूल्यों पर ही वस्तुएं बेची जाएं और तौल में भी ठीक हो।

अलाउद्दीन खिलजी का आदेश था कि मूल्य नियंत्रण संबंधी आदेशों का उल्लंघन करने वालों को कठोर दंड दिया जाए और दीवान--रियासत नाजिर याकूब ने उन्हें यथाशक्ति क्रियान्वित किया। बाजार के नियमों का ठीक प्रकार से अनुपालन कराने के लिए मुहतसिब (सेंसर) और नाजिर (नाप-तौल अधिकारी) भी नियुक्त किए गए। मलिक कबूल को शहना--मण्डी नियुक्त किया, जिसे बाजार का अधीक्षक कहा जाता था। बाजार के सभी व्यापारियों को शहना--मण्डी के कार्यालय में अपना नाम दर्ज करवाना पड़ता था। बाजार का निरीक्षण करने वाले अधिकारी बरीद--मण्डी की नियुक्ति की गई थी। वस्तुओं की बिक्री का परमिट जारी करने वाला अधिकारी परवाना-नवीस होता था।

बता दें कि दीवान--रियासत के कठोर निरीक्षण के बावजूद व्यापारी ग्राहकों को छलते थे, खोटे बाट रखते थे और अच्छी किस्म की वस्तुएं अलग रखते थे। इस​के लिए अलाउद्दीन खिलजी अपने छोटे गुलाम लड़कों को कुछ जीतल देकर भिन्न-भिन्न वस्तुएं खरीदने के लिए भेजता था। नाजिर इन गुलाम लड़कों द्वारा लाए गए सामानों की जांच करता था। ​यदि कोई दुकानदार कम तौलता था तो उसके शरीर से उतनी ही मात्रा में मांस काट लिया जाता था।

अलाउद्दीन खिलजी का राजत्व सिद्धान्त

अलाउद्दीन खिलजी एक मुस्लिम सुल्तान होते हुए भी कभी इस्लाम के सिद्धान्तों का पालन नहीं किया और न ही किसी उलेमा वर्ग से सलाह ली और न ही खलीफा के नाम का सहारा लिया। वह राजा के दैवीय अधिकारों में विश्वास रखने वाला था। वह निरकुंश सत्ता एवं प्रभुत्व सम्पन्न राजतंत्र में विश्वास रखता था। वह स्वयं को केन्द्रीय सत्ता का धूरी मानता था जिसके चारो तरफ राज्य रूपी पहिया घूमता रहता था। सुल्तान के अधिकारों पर धर्म कोई प्रतिबन्ध लगाए यह उसे स्वीकार नहीं था। उसके अधीनस्थ सभी पदाधिकारी एक कर्मचारी की तरह कार्य करते थे जो केवल उसकी राजाज्ञा का पालन करते थे। निष्कर्षतः उसने कभी राजनीति को धर्म से प्रभावित नहीं होने दिया। 

गुप्तचर विभाग का गठन

अलाउद्दीन खिलजी ने अनुभव किया कि उसके राज्य में जब भी विद्रोह हुए उसका कारण गुप्त सूचनाओं का सही समय पर प्राप्त नहीं होना था। इसलिए उसने एक गुप्तचर विभाग का गठन किया। दीवान-ए-बरीद (गुप्चर विभाग का पदाधिकारी) तथा मुनहिस (गुप्तचर) राज्य की सभी घटनाओं एवं स्थानों की पर्याप्त जानकारी देते रहते थे। अलाउद्दीन का गुप्तचर विभाग इतना सफल हुआ कि उसके विरूद्ध कोई भी व्यक्ति बगावत का एक शब्द नहीं बोल सकता था।

रणथम्भौर पर अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण

तराईन के द्वितीय युद्ध 1192 ई. में विजय प्राप्त करने के बाद मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविन्दराज को अजमेर वापस लौटा दिया था। गोरी के गजनी लौटते ही हरिराज ने गोविन्दराज को अजमेर से खदेड़ दिया। तब गोविन्दराज ने कुतुबुद्दीन ऐबक से मदद मांगी तत्पश्चात ऐबक ने हरिराज का दमन किया जिससे दुखी होकर हरिराज ने आत्महत्या कर ली। इस प्रकार 1194 ई. में रणथम्भौर में चौहानों का शासन स्थापित हुआ। गोविन्दराज को रणथम्भौर में चौहान वंश का संस्थापक माना जाता है। 

गोविन्दराज के बाद उसका पुत्र वल्लनदेव, इसके बाद वीर नारायण फिर उसका पुत्र बागभट्ट रणथम्भौर का शासक बना। बागभट्ट के बाद उसका पुत्र जैत्रसिंह शासक बना। जैत्रसिंह के सबसे योग्य और छोटे पुत्र हम्मीर देव चौहान को रणथम्भौर का सबसे प्रतापी शासक माना जाता है।

सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी उसे पराजित करने में असफल रहा था। अमीर खुसरो के अनुसार, जलालुद्दीन खिलजी मार्च 1291 ई. में दिल्ली से रणथम्भौर की ओर रवाना हुआ और झाइन पर अधिकार कर लिया। झाईन में हुए संघर्ष में हम्मीर देव का सेनानायक गुरूदास सैनी मारा गया। इसके पश्चात उसने आगे बढ़कर रणथम्भौर दुर्ग की घेराबन्दी की लेकिन काफी दिनों के बाद भी वह राणा हम्मीरदेव की मजबूत घेराबन्दी को नष्ट करने में असक्षम रहा। इसके बाद जून 1291 ई. में वह दिल्ली लौट गया।

इसके बाद जब अलाउद्दीन खिलजी सुल्तान बना तो राजस्थान विजय की योजना बनाई लेकिन रणथम्भौर दुर्ग जीते बिना यह सम्भव नहीं था। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार, राणा हम्मीरदेव द्वारा अलाउद्दीन खिलजी के मंगोल सेनापति मुहम्मदशाह को शरण देना भी रणथम्भौर आक्रमण का दूसरा सबसे बड़ा कारण था। इसलिए दोनों में संघर्ष होना स्वाभाविक था।

अलाउद्दीन खिलजी ने 1299 ई. के अन्त में उलूग खां और नुसरत खां के नेतृत्व में शाही सेना को रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। लेकिन उनका आक्रमण विफल हुआ और इस संघर्ष में नुसरत खां मारा गया। तुर्की सेना को पीछे हटना पड़ा। इसके बाद स्थिति की गम्भीरता देखकर स्वयं अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशाल सेना के साथ आक्रमण किया और रणथम्भौर दुर्ग की घेराबन्दी कर दी। एक वर्ष के निरन्तर घेरे के पश्चात भी न तो किले को जीता जा सका और न ही राजपूतों ने आत्मसमर्पण ही किया।

इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने षडयंत्र का सहारा लेकर हम्मीरदेव के पास सन्धि प्रस्ताव भेजा। हम्मीरदेव ने अपने दो सेनापतियों रणमल और रतिपाल को सन्धि के लिए भेजा लेकिन खिलजी ने इन दोनों को दुर्ग सौंपने का लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया। आखिरकार जुलाई 1301 ई. में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर दुर्ग को जीत लिया। इससे पूर्व राजपूत स्त्रियों ने जौहर कर लिया था और राणा हम्मीरदेव के साथ राजपूत सैनिक भी युद्ध में मारे जा चुके थे।

रानी पद्यमिनी के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण

पद्मिनी की कहानी का मुख्य आधार 1540 ई. में मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखी गई काव्य पुस्तक पद्मावत है। काव्य पद्मावत के अनुसार, अलाउद्दीन खिलजी का चित्तौड़ पर आक्रमण करने का एक प्रमुख कारण राणा रतनसिंह की अत्यन्त सुन्दर और विदुषी पत्नी पद्मिनी को हासिल करना था।

आठ महीने की लम्बी घेराबन्दी के बाद भी जब अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ दुर्ग को जीतने में असमर्थ रहा तब उसने यह शर्त रखी कि यदि वह रानी पद्मिनी की शक्ल देख लेगा तो वापस लौट जाएगा। राणा रतन सिंह ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और अलाउद्दीन को दुर्ग के अन्दर बुलाकर दर्पण में रानी पद्मिनी की शक्ल दिखाई। सुल्तान खिलजी दुर्ग से लौट रहा था तो रतनसिंह राजपूती शिष्टाचार के तहत उसे छोड़ने के लिए उसके खेमों तक गया जहां रतनसिंह को कैद करके दिल्ली ले जाया गया।

रानी पद्मिनी ने अपने दो राजपूत सरदारों गोरा-बादल से विचार-विमर्श कर 1600 पालकियों में अपनी दासियों की जगह चुने हुए सैनिकों को बैठाकर गाजे-बाजे के साथ दिल्ली के लिए रवाना हुई। दिल्ली पहुंचकर रानी पद्मिनी ने सुल्तान के पास सूचना भिजवाई कि वह शाही हरम में शामिल होने से पूर्व केवल एक बार राणा रतन सिंह से मिलना चाहती है।

इसके बाद सुल्तान अलाउद्दीन से स्वीकृति मिलते ही रानी पद्मिनी अपने राजपूतों सैनिकों के साथ राणा रतन सिंह से मिलने पहुंची और अचानक आक्रमण करके राणा को छुड़ा लिया। उसी रात्रि सरदार बादल के साथ रानी पद्मिनी और राणा रतन सिंह मेवाड़ के लिए रवाना हुए। शाही सेना को मार्ग में रोकने की जिम्मेदारी गोरा की थी लेकिन युद्ध करते हुए उसकी मृत्यु हो गई। हांलाकि राणा रतन सिंह और रानी पद्मिनी सुरक्षित चित्तौड़ पहुंच गए।

राणा रतनसिंह ने चित्तौड़ पहुंचने के बाद कुम्भलगढ़ के शासक देवपाल पर आक्रमण किया जिसने उसकी अनुपस्थिति में पद्मिनी को प्राप्त करने का प्रयत्न किया था। इस युद्ध मे राणा रतन सिंह ने देवपाल को मार दिया परन्तु स्वयं घायल हो गया और कुछ दिनों के बाद उसकी मृत्यु हो गई। रानी पद्मिनी राणा के साथ सती हो गई। इसके बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर उस किले पर कब्जा कर लिया।

अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु

अलाउद्दीन खिलजी ने तलवार के दम पर ही राजगद्दी हासिल की थी अतः तलवार के द्वारा ही उसका और उसके शासन का अंत हो गया। अलाउद्दीन खिलजी के अन्तिम दिन बेहद कष्टप्रद साबित हुए। उसका बड़ा बेटा खिज्र खां भोग-विलासी हो चुका था, उसकी पत्नी मलिका-ए-जहान उससे उदासीन होकर अपने विलास में मस्त थी तथा अपने भाई अलप खां के साथ मिलकर मलिक काफूर की शक्ति को कमजोर करने मे लगी हुई थी।

अलाउद्दीन खिलजी का जब स्वास्थ्य खराब हो गया तब उसने महसूस किया कि उसकी पत्नी और उसका पुत्र उसकी परवाह नहीं करते तब उसने 1315 ई. में मलिक काफूर को दक्षिण भारत से बुला लिया। लेकिन मलिक काफूर ने सुल्तान की मृत्यु निकट जानकर सत्ता स्थापित करने का प्रयत्न किया। अलाउद्दीन जब बिस्तर पर था तब उसने अलप खां की महल में ही हत्या कर दी।

मलिका-ए-जहान को कैद कर लिया गया तथा खिज्र खां को पहले अमरोहा भेजा गया और बाद में ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया। मलिक काफूर राज्य का सर्वेसर्वा बन गया ऐसी स्थिति में अलाउद्दीन खिलजी का ऐश्वर्य और उसकी सत्ता नष्ट हो रही थी। कुछ विद्वानों का कहना है कि मलिक काफूर ने अलाउद्दीन खिलजी को धीमा जहर दे दिया था। आखिरकार 5 जनवरी 1316 ई. को उसकी मृत्यु हो गई।

अलाउद्दीन खिलजी से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

- अफगानिस्तान स्थित हेलमन्द नदी घाटी के आस-पास बसे लोगों को क्या कहा जाता था- खिलजी

- अलाउद्दीन खिलजी ने उपाधि धारण की थी- ‘यास्मिन-उल-खिलाफत-नासिरी-अमीर-उल-मिमुनिन’

- गुजरात विजय के दौरान मलिक काफूर को खरीदा था- नुसरत खां ने।

- हजार दीनारी कहा जाता था- मलिक काफूर को।

अलाउद्दीन खिलजी के समय दिल्ली का कोतवाल था- अलाउल मुल्क।

- अलाउद्दीन खिलजी के समय दक्षिण भारत को किसने जीता था- मलिक काफूर ने।

- अलाउद्दीन खिलजी ने रायरायन की उपाधि दी थी- देवगिरी के शासक रामचन्द्रदेव को।

- अलाउद्दीन खिलजी के समय दक्षिण पूर्व तेलंगाना का शासक था- काकतवंशीय प्रतापरूद्र देव

- सीरी का किला, अलाई दरवाजा, हजार खम्भा महल किसने बनवाया था- अलाउद्दीन खिलजी ने

- प्रतापरूद्र देव ने विश्व प्रसिद्ध कोहनूर हीरा किसे दिया था- मलिक काफूर को। ,

- अलाउद्दीन खिलजी को विश्व का सुल्तान, युग का विजेता, जनता का चरवाहा, पृथ्वी के शासकों का सुल्तान जैसी उपाधियों से विभूषित करने वाला व्यक्ति- अमीर खुसरो (खजाइनुल फुतूह में)

- अलाउद्दीन खिलजी ने अधीन रहने वाले दक्षिण भारत के राज्य- देवगिरी, तेलंगाना, होयसल और पाण्डय।

- अलाउद्दीन खिलजी ने संरक्षण प्रदान किया था- अमीर खुसरो और अमीरहसन देहलवी को।

- हिन्दी में कविता लिखने वाला प्रथम मुस्लिम कवि- अमीर खुसरो।

- राशनिंग व्यवस्था लागू की थी- अलाउद्दीन खिलजी ने।

- अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम रखा था- खिज्राबाद

-जालौर के शासक कान्हड़देव के विरूद्ध अलाउद्दीन ने किस नौकरानी के नेतृत्व में सेना भेजी थी- गुले बिहिश्त

-दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की तुलना की जाती है- जर्मनी के संस्थापक बिस्मार्क से।

- सम्भावित प्रश्न

- अलाउद्दीन खिलजी के राजत्व सिद्धान्त और गुप्तचर विभाग पर टिप्पणी कीजिए?

.- अलाउद्दीन खिलजी के बाजार प्रबन्ध पर टिप्पणी कीजिए?

- - अलाउद्दीन खिलजी ने सर्वप्रथम जलाली सरदारों का कठोरतापूर्वक दमन क्यों किया ? विस्तार से लिखिए।

- अलाउद्दीन खिलजी की राजस्व एवं लगान व्यवस्था की विशद विवेचना कीजिए?

- अलाउद्दीन खिलजी की बाजार नियंत्रण नीति पर विस्तार से चर्चा कीजिए?

- अलाउद्दीन खिलजी के रणथम्भौर विजय का विस्तार से वर्णन कीजिए?

- क्या रानी पद्मिनी के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, विस्तार से उल्लेख कीजिए?

- एक शक्तिशाली शासक के रूप में अलाउद्दीन खिलजी की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए?