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Unique meeting of the great European conqueror Alexander with the 15 monks of India

महान यूरोपीय विजेता सिकन्दर की भारत के 15 संन्यासियों से अनोखी मुलाकात

महान यूरोपीय विजेता सिकन्दर मैसीडोन के शासक फिलिप द्वितीय का पुत्र था। सिकन्दर जब 20 वर्ष का था तभी उसके पिता की मृत्यु हो गई तत्पश्चात वह मैसीडोन का राजा बना। सिकन्दर महत्वाकांक्षी शासक था। वह बचपन से ही विश्व सम्राट बनने के सपने देखा करता था।

सिकन्दर में अदम्य उत्साह, साहस और वीरता कूट-कूटकर विद्यमान थी। मैसीडोन और यूनान विजय के पश्चात सिकन्दर ने विश्व विजय की एक व्यापक योजना तैयार की। विश्व विजय के क्रम में सिकन्दर ने एशिया माइनर, सीरिया, मिस्र, बेबीलोन, बैक्ट्रिया, सोग्डियाना आदि को अपने अधीन कर लिया। 331 ई.पू. में आरबेला के प्रसिद्ध में उसने विशाल पारसीक सेना को परास्त किया, उसकी इस आश्चर्यजनक सफलता से सम्पूर्ण हखामनी साम्राज्य उसके चरणों में नतमस्तक हो गया।

चूंकि पश्चिमोत्तर भारत की राजनी​तिक परिस्थितियां इस समय अराजकता के दौर से गुजर रही थीं। अत: यह क्षेत्र सिकन्दर की विजयों के लिए अतिउपयुक्त था। ऐसे में हखमनी साम्राज्य को अपने अधीन करने के पश्चात सिकन्दर ने 326 ईसा पूर्व के बसन्त के अन्त में एक विशाल सेना के साथ भारतीय विजय के लिए प्रस्थान किया।

इस समय भारत के पश्चिमोत्तर भाग में अनेक छोटे-छोटे जनपद, राजतंत्र और गणतंत्र विद्यमान थे। बावजूद इसके यहां के शासक आपसी ईष्या और घृणा के कारण किसी भी आक्रमणकारी का संगठित रूप से सामना करने में अक्षम थे। जहां राजतंत्र, गणतंत्रों की सत्ता समाप्त करना चाहते थे, वहीं गणतंत्रों के लिए राजतंत्रों की सत्ता असह्य थी।

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सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखकों में कर्टियस के मुताबिक, ‘तक्षशिला के राजा आम्भी तथा कैकयनरेश पोरस में शत्रुता थी।’ ​एरियन लिखता है कि पोरस और अबीसेयर्स ने मिलकर मालव एवं क्षुद्रकों पर आक्रमण किया था। यही नहीं पोरस और उसके भतीजे के बीच सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। सम्बोस और मोसिकनोस भी एक-दूसरे के शत्रु थे। इस आपसी घृणा एवं संघर्ष के माहौल ने सिकन्दर का कार्य सरल बना दिया।

ऐसे में पुष्कलावती तथा सिन्धु नदी के बीच स्थित सभी छोटे-छोटे प्रदेशों को जीतकर निचली काबुल घाटी में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात यूनानी विजेता सिकन्दर ने सिन्धु नदी पारकर भारत भूमि पर कदम रखे।

सिन्धु तथा झेलम नदियों के बीच तक्षशिला के शासक आम्भी का राज्य था। आम्भी ने अपनी प्रजा तथा सेना के साथ सिकन्दर के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया। इतना ही नहीं आम्भी ने अपनी राजधानी में सिकन्दर का भव्य तरीके से स्वागत किया। तक्षशिला के दरबार में अनेक पड़ोसियों राजाओं ने बहुमूल्य सामग्रियों के साथ आत्मसमर्पण किया। इस उपलब्धि से उत्साहित होकर सिकन्दर ने झेलम तथा चिनाब के मध्यवर्ती प्रदेश के शासक पोरस (पुरू) से आत्मसमर्पण की मांग की।

गौरव और स्वाभिमान से परिपूर्ण पोरस के लिए सिकन्दर की यह शर्त असहनीय थी, इसलिए उसने यह कहला भेजा कि वह सिकन्दर के दर्शन रणक्षेत्र में ही करेगा। इतिहासकार एरियन के अनुसार, “पोरस की सेना बहुत विशाल थी। उसकी सेना में चार हजार बलिष्ठ अश्वारोही, तीन सौर रथ, दो सौ हाथी तथा तीस हजार पैदल सैनिक थे।” पोरस और सिकन्दर के बीच हुए भीषण युद्ध में पोरस का बेटा मारा गया था लेकिन छह फुट का लम्बा जवान पोरस विशालकाय हाथी पर बैठकर आखिरतक लड़ता रहा। जब सिकन्दर ने आम्भी को आत्मसमर्पण के संदेश के साथ पोरस के पास भेजा तो घायल पोरस की भुजाएं एक बार फिर से आम्भी का वध करने के लिए फड़क उठीं।

एक प्रसिद्ध सिक्के के अनुसार, पोरस ने अपने भाले से जबरदस्त प्रहार किया लेकिन घोड़े पर सवार आम्भी संयोगवश बच गया। अंतत: यूनीनी सैनिकों ने पोरस को बन्दी लिया, जब उसे सिकन्दर के समक्ष लाया गया तब पोरस के शरीर पर 9 घाव थे। सिकन्दर ने पोरस से पूछा कि तुम्हारे साथ कैसा बर्ताव किया जाए? तब पोरस ने बड़ी निर्भिकता से उत्तर दिया- जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। यह उत्तर सुनकर सिकन्दर अति प्रसन्न हुआ और उसने पोरस का समस्त राज्य लौटा दिया तथा उसके राज्य का उससे भी अधिक विस्तार कर दिया। इस प्रकार पोरस की पराजय भी जय में परिवर्तित हो गई।

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पोरस के खिलाफ झेलम के युद्ध में यद्यपि सिकन्दर की विजय हुई थी लेकिन भारतीय सैनिकों ने यूनानी सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे। यह युद्ध इतना भीषण था कि सिकन्दर का प्रिय घोड़ा बउकेफला भी मारा गया था। यही वजह है कि पोरस से युद्ध के बाद सिकन्दर के सैनिकों ने व्यास नदी के पास आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। यहां तक कि सिकन्दर के जोशीलें भाषणों तथा अनेक प्रलोभनों के बावजूद भी यूनानी सैनिक आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सके। इस घटना से सिकन्दर इतना लज्जित हुआ कि वह तीन दिन तक अपने शिविर में ही पड़ा रहा और आखिरकार सैनिकों की वापसी का आदेश दे दिया।

भारत के संन्यासियों से प्रभावित हुआ सिकन्दर महान

ग्रीक यात्रियों के विवरणों से चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में संन्यासियों के मौजूदगी होने की जानकारी मिलती है। भारत आक्रमण के दौरान यूनानी विजेता सिकन्दर ने तक्षशिला के पास ऐसे पन्द्रह संन्यासियों को देखा जो सांसारिक जीवन को त्याग कर ध्यान, तपस्या और समाधि में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। 

सिकन्दर इन संन्यासियों की साधना-विधि जानने को उत्सुक हुआ इसलिए उसने ओनेसिक्रितस को संन्यासियों से मिलने को भेजा। उनमें से एक संन्यासी ने कहा, “अश्वारोहियों के लम्बे चोगे और ऊँचे बूट पहनकर कोई भी व्यक्ति साधना-विधि नहीं जान सकता है। यदि सचमुच इसे जानना चाहते हो तो अपने सभी वस्त्र उतारकर गर्म चट्टानों पर हमारे साथ बैठना होगा।”

ग्रीक लेखकों ने एक वृद्ध संन्यासी से मुलाकात का ​उल्लेख किया है जिसका नाम दण्डी था, जो जंगल में पर्णकुटी में निवास करता था। दण्डी के अनेक शिष्य थे। सिकन्दर ने दण्डी नामक संन्यासी से मिलने के लिए ओनेसिक्रितस को भेजा। ओनेसिक्रितस ने दण्डी के पास जाकर कहा, “परमशक्तिशाली सिकन्दर ने तुम्हें बुलाया है। वह सभी मनुष्यों का स्वामी है और वह तुम्हें सन्तुष्ट कर देगा। यदि तुमने उसके आदेश का पालन नहीं किया तो वह तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर देगा।”

दण्डी नामक संन्यासी पहले तो ओनेसिक्रतस की बात शान्तिपूर्वक सुनता रहा, फिर हंसते हुए कहा कि सबका अधिपति ईश्वर है वह कभी किसी का बुरा नहीं करता। ज्योति, जीवन, शान्ति, जल, शरीर और आत्मा का वही स्रष्टा है। मैं उस ईश्वर का उपासक हूं जो युद्ध नहीं करता जिसे हत्या से घृणा है।

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सिकन्दर ईश्वर नहीं क्योंकि उसे एक दिन मरना है। वह अपने को संसार का स्वामी कैसे समझ सकता है। सिकन्दर जिन उपहारों का मुझे लालच दिखा रहा है, मेरी दृष्टि में उनका कोई महत्व नहीं है, वे मेरे लिए सर्वथा निरूपयोगी हैं। लोग जिन वस्तुओं का संग्रह करते हैं, मेरे लिए उसका कोई उपयोग नहीं है। सांसारिक वस्तुओं से मनुष्य को केवल चिन्ता और दुख की प्राप्ति होती है। मैं घास-फूस के बिस्तर पर निश्चिन्त होकर सोता हूं। बतौर उदाहरण ​यदि मेरे पास भी सोना होता तो मुझे ऐसी सुख की नींद कैसे आ सकती थी। सिकन्दर मेरा सिर तो काट सकता है लेकिन मेरी आत्मा को नष्ट करने की शक्ति उसमें नहीं है। सिकन्दर अपनी शक्ति केवल उन्हीं लोगों को दिखाए तो जो सोने और सम्पत्ति की चाह रखते हैं और जो मौत से डरते हैं।

दण्डी नामक संन्यासी ने कहा कि वह सिकन्दर के पास नहीं जाएगा, यदि​ सिकन्दर को दण्डी से कुछ प्राप्त करना है तो वह मेरे पास आ सकता है। ओनेसिक्रितस से दण्डी का उत्तर सुनकर सिकन्दर महान दण्डी से मिलने का उत्सुक हो उठा। इस प्रकार विश्व के अनेक देशों को जीतने वाला सिकन्दर एक वृद्ध संन्यासी से परास्त हो गया।

सिकन्दर ने अनुभव किया है कि भारत में संन्यासियों का एक ऐसा वर्ग मौजूद है जिसकी दृष्टि में मिट्टी और सोने में कोई अन्तर नहीं है, जो न तो मौत से डरता है और न ही धन सम्पत्ति के लालच में आ सकता है। भारत का संन्यासी अपने समस्त सुखों को त्यागकर केवल तप, योग और आध्यात्म चिन्तन में अपना समय व्य​तीत करता है। भारत का यह संन्यासी वर्ग केवल मोक्ष प्राप्ति को ही अपना लक्ष्य बनाता है।