पहली अगस्त 1920 ई. को लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के देहावसान के बाद असहयोग आन्दोलन की शुरूआत हुई।1 इसी के बाद भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी का अवतरण एक युगपुरूष के रूप में हुआ। गांधीजी ने अपने आन्दोलनों के संचालन में उदारवादियों एवं अनुदारवादियों के विचारों को समन्वित रूप से पेशकर भारतीय राजनीति को एक नई दिशा प्रदान की जिससे देश-विदेश में उनके प्रति आकर्षण बढ़ा। इस आकर्षण से युवा वर्ग विशेष रूप से प्रभावित हुआ। गांधीजी की भाषा, रहन-सहन एवं कार्यशैली संतों की थी, इससे अनके युवा राजनीति में खिंचे आए। इन्ही युवाओं और संतों में स्वामी सहजानन्द सरस्वती भी थे। वे राजनीति में महात्मा गांधी से प्रभावित होकर प्रविष्ट हुए।2
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (सन 1885 ई.) के महज पांच वर्ष बाद यानि 1889 ई. में महाशिवरात्रि के दिन स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जन्म हुआ था।3 आपको जानकारी के लिए बता दें कि भारत की पावन भूमि पर वर्ष 1889 ई. के कुछ आगे या पीछे देश की पांच विभूतियों ने जन्म लिया, वे हैं- पं.जवाहरलाल नेहरू, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार तथा स्वामी सहजानन्द सरस्वती। ये सभी कर्मभेद और दृष्टिभेद के बावजूद अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व से इतिहास के अमर हस्ताक्षर सिद्ध हुए।4
स्वामी सहजानन्द सरस्वती अखिल भारतीय किसान सभा के संस्थापक, अग्रणी नेता तथा अग्रगामी सिद्धांतकार थे। इस मंजिल तक पहंचने में उनके व्यक्तित्व का विकास कई पड़ावों से गुजरने के बाद हुआ। पहले उन्होंने संन्यास ग्रहण किया तत्पश्चात शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया। इसके बाद समाजसुधार एवं पत्रकारिता से गुजरते हुए वे राजनीति में आ पहुंचे।5 भारतीय राजनीति में स्वामी सहजानन्द सरस्वती एक गांधीवादी के रूप में प्रविष्ट हुए। कांग्रेस के एक समर्पित सिपाही के रूप में ब्रिटीश साम्राज्यवाद के समूल नाश के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन उन्होंने राष्ट्र के नाम समर्पित कर दिया।
महात्मा गांधी की ही तरह स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने एक समन्वयवादी के रूप में असहयोग आन्दोलन (1920 ई.) तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन (1930 ई.) में सक्रिय भूमिका निभाई। इसलिए स्वामी सहजानन्द सरस्वती को कई बार जेलयात्रा भी करनी पड़ी। इस प्रकार 1920 से 1934 ई. तक स्वामीजी महात्मा गांधी से पूर्णतया प्रभावित रहे।6 इसके बाद धीरे-धीरे गांधीवाद और कांग्रेस से उनकी वैचारिक दूरी बढ़ती ही गई और वामपंथ की ओर झुकाव होता गया।7
दरअसल यह महत्वपूर्ण घटना उन दिनों की है, जब असहयोग आन्दोलन के लिए भारतीय जनता को पूर्णरूप से तैयार करने हेतु भारत भ्रमण के दौरान महात्मा गांधी दिसम्बर 1920 ई. में पटना पहुंचे, इस दौरान स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने गांधीजी से मुलाकात करने का निश्चय किया।
पांच दिसम्बर 1920 ई.को स्वामी सहजानन्द सरस्वती की मुलाकात महात्मा गांधी से हुई। इस पहली मुलाकात में ही स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने महात्मा गांधी से राजनीति में धर्म के प्रवेश से दुष्परिणाम की आशंका प्रकट की और स्पष्ट किया कि असहयोग आन्दोलन के बाद टर्की में खलीफा की बहाली हो जाने पर मुसलमान, हिन्दूओं का साथ छोड़ सकते हैं। इसके साथ ही स्वामी जी ने राजनीति और धर्म के मेल पर कई तीखे प्रहार किए। गांधीजी ने स्वामी जी की आशंकाओं को निर्मूल बताया, ऐसे में स्वामी सहजानन्द सरस्वती दृढ़निश्चय के साथ कांग्रेस में प्रविष्ट हो गए।8
स्वामी सहजानन्द सरस्वती की राजनीति में धर्म के प्रवेश की शंका उस समय सही साबित हुई जब खिलाफत आन्दोलन के नेता धर्म के नाम पर अपील करने लगे और राजनीतिक सवालों को धार्मिक दृष्टि से देखने के कारण राजनीति में साम्प्रदायिकता के दरवाजे खुलने लगे। साइमन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 1922 ई. से 1929 ई. के बीच देश में तकरीबन 112 बड़े दंगे हुए। मुस्लिम लीग एक बार फिर से सक्रिय हो गई। 1923 ई. में हिन्दू महासभा का पुनर्जन्म हुआ। इसी दौर में हिन्दूओं के संगठन और शुद्धि आन्दोलन तथा मुसलमानों के तंजीम और तबलीग आन्दोलन चले जिनका उद्देश्य साम्प्रदायिक था।
साम्प्रदायिकता के इस महौल में लाला लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय और एन.सी.केलकर हिन्दू महासभा में शामिल हो गए। सबसे ज्यादा नाटकीय परिवर्तन उस समय आया जब मौलाना अबुल कलाम आजाद और डॉ. मुख्तार अहमद अन्सारी को छोड़कर मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली जैसे तमाम बड़े नेता मुस्लिम लीग और तंजीम में जा घुसे। उन्होंने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह हिन्दू सरकार स्थापित करना चाहती है।9
उपर्युक्त बातों के सम्बन्ध में जब स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने महात्मा गांधी को पत्र लिखा तो उन्होंने उत्तर दिया कि मुसलमानों के बारे में मैंने उस समय (1920 ई. में )जो अन्दाजा लगाया था उसके लिए मुझे कोई पाश्चाताप नहीं। स्वामी सहजानन्द सरस्वती को इस बात से गहरा धक्का लगा।10
महात्मा गांधी द्वारा अचानक असहयोग आन्दोलन के स्थगन से असहमत होते हुए भी स्वामी सहजानन्द सरस्वती कांग्रेस के सदस्य बने रहे क्योंकि वे इस संस्था के जरिए ब्रिटीश साम्राज्यवाद का कारगर विरोध करना चाहते थे। अहिंसा के नाम पर असहयोग आन्दोलन के तत्काल स्थगन से पूरा देश नहीं बल्कि देशबन्धु चितरंजन दास, सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू तक भी चकित रह गए थे। ये सभी नेता नहीं समझ पाए थे कि यह निर्णय किस आधार पर लिया गया। हांलाकि गांधीजी के प्रति असीम आस्था के कारण इस सभी नेताओं ने सोचा कि उन्होंने कुछ सोच समझकर ही निर्णय लिया होगा। स्वामी सहजानन्द सरस्वती भी देश के अन्य प्रमुख नेताओं की भांति स्तब्ध एवं क्षुब्ध थे।11 अत: स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने मार्च 1928 ई.में पश्चिम पटना किसान सभा तथा नवम्बर 1929 ई. में बिहार प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना कर डाली।12
6 अप्रैल 1930 ई. को महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन का श्रीगणेश किए जाने पर स्वामी सहजानन्द सरस्वती किसान आन्दोलन को बीच में ही छोड़कर उसमें कूद पड़े। इसके कारण स्वामी जी को ब्रिटीश सरकार ने 6 महीने की सजा सुनिश्चित कर उन्हें बांकीपुर पटना जेल में भेज दिया। हांलाकि एक महीने बाद ही स्वामीजी का स्थानान्तरण बांकीपुर जेल से हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में कर दिया गया। जेल में सत्याग्रहियों के चारित्रिक पतन, तुच्छ स्वार्थपरता और गांधीवादी विचारों की खुली अवहेलन को देखकर स्वामीजी की आत्मा ग्लानि से भर गई।13
1932 ई. में सविनय अवज्ञा आन्दोलन की अचानक समाप्ति तथा हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में गांधीजी के अनुयायिओं के गलत व्यवहार के कारण स्वामी सहजानन्द सरस्वती सक्रिय राजनीति से दूर रहे। स्वामीजी ने लिखा है- “कांग्रेस के भीतर बहुत अनाचार और धांधली थी। इसके नाम पर पाप किए जाते थे। यद्यपि मैं कट्टर गांधीवादी था, लेकिन ये शिकायतें तो गांधीवादी न होने पर भी नैतिक दृष्टि से उचित ही थीं।”14 सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के पूर्ण पालन पर गांधीजी बल देते थे परन्तु उनके अनुयायी उनके निर्देशों का सार्वजनिक रूप से उल्लंघन करते थे। ऐसे में स्वामी सहजानन्द सरस्वती जैसा त्यागी पुरूष इस बात को लंबे समय तक सहन नहीं कर सका।
15 जनवरी 1934 ई. को बिहार में भयंकर भूकम्प आया। लोग भूकम्प पीड़ितों की सहायता में जुट गए। स्वामीजी ने देखा कि कांग्रेस द्वारा गठित रिलीफ कमेटी तथा ब्रिटीश सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जा रही सहायताराशि को जमींदार (महाराज दरभंगा) के आदमी बलपूर्वक छीन रहे हैं। इस कार्य के विरोध के लिए कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। स्वामीजी ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से बात की लेकिन उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया कि यह कार्य गांधीजी की अनुमति के बिना नहीं हो सकता।
पटना में रिलीफ कमेटी के आफिस पीली कोठी में जहां गांधीजी भी ठहरे थे, स्वामीजी ने उनसे भेंट की और सभी बातें विस्तारपूर्वक बताई। लम्बी बहस के बाद गांधीजी ने उत्तर दिया-जमींदार किसानों के कष्ट दूर करेंगे। उनके मैनेजर गिरीन्द्रमोहन कांग्रेसी हैं, इसलिए कष्टों को जरूर दूर करेंगे। स्वामीजी को गांधीजी के इस उत्तर से गहरा धक्का लगा। उस दिन के बाद स्वामीजी के शब्दों में- “उनसे मेरी अश्रद्धा हो गई और मैं सदा के लिए उनसे अलग हो गया।”15
स्वामीजी ने लिखा है कि “गांधीवाद का भूत और आदर्शवाद की सनक ये दोनों चीजें मेरे ऊपर से उतर गई हैं। इनके लिए बेकार माथापच्ची करना मैं भूल समझता हूं।”16 इस तरह 1934 ई. में स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने गांधीजी और गांधीवाद को अंतिम प्रणाम किया।17
गौरतलब है कि स्वामी सहजानन्द सरस्वती आधुनिक युग के ऐसे महान संन्यासी थे जिन्होंने देश के किसान मजदूरों के शोषण, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ अपना जीवन होम कर दिया। स्वामीजी ने सन् 1936 से लेकर 1939 तक बिहार में कई किसान आन्दोलन किए। जमींदारों और ब्रिटीश सरकार के साथ उनकी छोटी-मोटी सैकड़ों भिड़न्तें भी हुई। स्वामीजी की बिहार किसान सभा की प्रसिद्धि इस कदर थी कि उनके किसान सभाओं में जुटने वाली भीड़ तब कांग्रेस की रैलियों से ज्यादा होती थी।
स्वामीजी ने देश में किसान मजूदरों एवं विपन्न मध्यवर्गीयों की सरकार स्थापित करने का आह्वान किया लेकिन अपने विचारों को मूर्त रूप से देने से पहले ही 26 जून 1950 ई. को दिवंगत हो गए।18
सन्दर्भग्रन्थ सूची-
1- विपिनचन्द्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1998, पृष्ठ 135
2- डॉ. पुरूषोत्तम नागर, आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 1980, पृष्ठ 10-11
3- कुबेरनाथ राय, स्वामी सहजानन्द सरस्वती हितकारी समाज की 10वीं स्मारिका, नई दिल्ली, 1998, पृष्ठ 6
4- वही, पृष्ठ 6
5- किसान कैसे लड़ते हैं?,स्वामी सहजानन्द सरस्वती, ग्रन्थशिल्पी प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 2002, पृष्ठ 1
6- डॉ.वैद्यनाथ पाण्डेय, स्वामी सहजानन्द सरस्वती : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, किताब महल, इलाहाबाद, 1997, पृष्ठ 100
7- वही, पृष्ठ 6
8- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, मेरा जीवन संघर्ष, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 1985, पृष्ठ 110
9- विपिनचन्द्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1998, पृष्ठ 338 -339
10- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, मेरा जीवन संघर्ष, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 1985, पृष्ठ 117
11- वहीं, पृष्ठ 153
12- राष्ट्रीय संगोष्ठी, किसान और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, डॉ. राधाकृष्ण शर्मा, दिल्ली, 1998, पृष्ठ 137
13- डॉ. रामकिशोर चौधरी, ज्योतिकलश, पृष्ठ 31
14- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, मेरा जीवन संघर्ष, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 1985, पृष्ठ 229
15- वही, पृष्ठ 259
16- वही, पृष्ठ 223
17- राष्ट्रीय संगोष्ठी, किसान और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, डॉ. राधाकृष्ण शर्मा, दिल्ली, 1998, पृष्ठ 137
18- डॉ. अवधेश प्रधान, अब क्या हो?, की भूमिका से उद्धृत, स्वामी सहजानन्द सरस्वती स्मृति केन्द्र, बड़ी बाग, गाजीपुर, संवत 2057, पृष्ठ-29