
यह स्टोरी है, उस दौर की जब 1857 की प्रथम महाक्रांति के दौरान पूर्वांचल के सभी जिले क्रांति की ज्वाला में दहक उठे थे। 3 जून को आजमगढ़, 4 को काशी (बनारस) और 5 जून को जौनपुर में महाक्रांन्ति की लपटें अंग्रेजों को अपने आगोश में ले रही थीं।
काशी से केवल 70 मील की दूरी पर स्थित पावन नगरी प्रयाग (इलाहाबाद) में 6 जून की रात्रि को छठीं पलटन के सैनिकों ने अपनी तलवारें आकाश की ओर उछालते हुए ‘मारो फिरंगी को’ जयघोष करते हुए महाक्रांति का सूत्रपात किया था। मौलवी लियाकत अली के नेतृत्व में क्रांति की ज्वाला 12 जून तक सम्पूर्ण इलाहाबाद और आसपास के क्षेत्रों में फैल चुकी थी। क्रांतिकारियों ने खुसरोबाग के प्रांगण को अपना मुख्यालय बनाया था।
हांलाकि 6 जून को ही कई अंग्रेज अफसर इस महाक्रांति को कुचलने के लिए बनारस से इलाहाबाद आ पहुंचे थे, लेकिन वे इसमें नाकाम रहे। फिर क्या था, बनारस में होने वाले विद्रोहों का दमन कर कर्नल नील 11 जून तक शीघ्रता से इलाहाबाद पहुंच गया। इसके बाद क्रूर कर्नल नील ने क्रांतिकारियों को शान्त करने के लिए इलाहाबाद की जनता पर जो निर्मम अत्याचार किए उसे जानकर आपकी रूह कांप जाएगी, यही वजह है कि आधुनिक भारत के इतिहास में कर्नल नील को ‘इलाहाबाद का कसाई’ कहा जाता है।
इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में महाक्रांति की ज्वाला
इलाहाबाद में 6 जून की रात्रि में छठीं पलटन के सैनिकों ने अपनी तलवारें आकाश की ओर उछालते हुए ‘मारो फिरंगी को’ जयघोष करते हुए महाक्रांति का सूत्रपात किया था। महाक्रांति की ज्वाला में क्रांतिकारी सैनिकों ने लेफ्टिनेंट अलैक्जेण्डर, एडज्युटेन्ट स्टुअर्ट प्लंकेट, क्वार्टर मास्टर प्रिंगल, मनरो बर्च, लेफ्टिनेंट इनीज सहित कई अंग्रेज अफसरों को चिरनिद्रा में सुला दिया। विद्रोही सैनिकों को सूचना मिली कि कुछ गोरे भोजनालय में छुपकर बैठे हैं, इसलिए सैनिकों ने वहां पहुंचकर उन्हें भी ढेर कर दिया।
क्रांतिकारियों ने रेलवे कार्यालय, पटरियों, तार के खम्भों तथा रेल इंजन को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त करते हुए 7 जून की सुबह 30 लाख रुपए के कोष पर भी अधिकार करने में सफलता प्राप्त की। विनायक दामोदर सावरकर अपनी बहुचर्चित किताब ‘1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य समर’ में लिखते हैं कि “एक महान स्वतंत्रता प्रेमी मौलवी लियाकत अली ने आगे बढ़कर क्रांतिकारियों का नेतृत्व सम्भाल लिया था। इनके बारे में इतनी ही जानकारी उपलब्ध हो पाती है कि वे जुलाहों में धर्म प्रचार किया करते थे। वे एक मदरसे में शिक्षक थे।
उनके पावन चरित्र के कारण जनसाधारण में उनके प्रति श्रद्धा विद्यमान थी। इलाहाबाद को क्रांतिकारियों द्वारा दस दिनों के लिए मुक्त कराए जाने के दौरान उन्हें 24 परगने के जमीदारों ने प्रयागराज (इलाहाबाद) का मुखिया और सम्राट (बहादुरशाह जफर) का प्रतिनिधि मानकर सम्मान प्रदान किया था।”
12 जून तक लियाकत अली के नेतृत्व में सम्पूर्ण प्रयाग प्रान्त अग्नि की ज्वाला में धधक उठा था। सावरकर आगे लिखते हैं कि “मौलवी लियाकत अली ने खुसरो बाग के सुरक्षित प्रांगण को अपना शिविर बनाकर सम्पूर्ण प्रदेश में क्रांतिकारियों के गतिविधियों को संचालित करना आरम्भ कर दिया था। उन्होंने अल्पकाल में ही राज्य प्रशासन की समुचित व्यवस्था कर दी।”
लियाकत अली के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी इलाहाबाद के किले पर अधिकार करने की थी। परन्तु इससे पूर्व ही कर्नल नील सम्पूर्ण युद्ध सामग्री के साथ काशी से इलाहाबाद पहुंच चुका था। इलाहाबाद दुर्ग में तैनात 400 सिख सैनिक जो ब्रिटिशराज के विश्वासपात्र निकले, उनकी मदद से कर्नल नील दुर्ग की रक्षा करने में सफल रहा।
इसके बाद 17 जून को कर्नल ने ब्रिटिश सेना के साथ नगर में प्रवेश किया। कर्नल नील ने सबसे पहले लियाकत अली के मुख्यालय खुसरो बाग पर आक्रमण किया। हांलाकि क्रांतिकारियों के जबरदस्त प्रतिरोध के कारण अंग्रेजी सेना ने नगर में पुन: प्रवेश किया। इतने में मौका पाकर लियाकत अली 17 जून की रात में ही कानपुर की ओर प्रस्थान कर गए। इसके बाद 18 जून को कर्नल नील ने काशी के समान इलाहाबाद पर भी अधिकार कर लिया।
‘इलाहाबाद का कसाई’ कर्नल नील
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में होने वाली महाक्रांति के दमन के लिए क्रूर कर्नल नील तथा उसके नेतृत्व में सक्रिय फ्युजीलियर्स की सेना को मद्रास से यहां बुलाया गया था। इसके बाद कर्नल ने कानपुर, काशी और इलाहाबाद में जो तबाही मचाई, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।
कर्नल नील द्वारा ब्रिटिश राज को लिखे गए एक पत्र से यह पता चलता है कि वह हिन्दुस्तानियों के लिए कितना निर्दयी था। कर्नल लिखता है कि “मैं हिन्दुस्तानियों को उनके (निर्दयतापूर्ण) कार्यों के लिए जो दंड देना चाहता हूं, वह अत्यंत कठोर होगा। वह उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला होगा और ऐसा होगा जिसे वह कभी न भूल सकेंगे।”
इलाहाबाद नगर में प्रवेश करने के पश्चात कर्नल नील ने चौक स्थित नीम के पेड़ पर आठ सौ निर्दोष लोगों को फांसी पर लटका दिया। इन लाशों को बैलगाड़ी में लादकर गंगा नदी में फेंकवा दिया था। इतना ही नहीं, कर्नल नील ने वृद्धों को जलाया, अधेड़ उम्र के लोगों को अग्नि की लपटों में झुलसाया, युवकों को दहकते अंगारों में धक्का दिया। वहीं उसने बालकों को भी नहीं छोड़ा।
कर्नल नील ने माताओं की गोद से उनके बच्चों को छीनने के साथ ही पालनों में सोते हुए सुकुमारों की हत्या करने में भी संकोच नहीं किया। कर्नल नील की क्रोधाग्नि में सैकड़ों महिलाएं, बालिकाएं, माताएं, किशोरियां और युवतियां भी भस्म हो गईं। सोचने वाले बात यह है कि जो लोग दण्डित किए गए उनका अपराध क्या था? ‘इलाहाबाद का कसाई’ के नाम से विख्यात कर्नल नील ने कानपुर में जो निर्ममता दिखाई वह इतिहास में ‘बीबीघर हत्याकाण्ड’ के नाम से मशहूर है।
क्रूर अफसर कर्नल नील की मूर्ति
वेलिंगटन स्क्वायर बर्न्स स्टैच्यू स्क्वायर से थोड़ी ही दूरी पर कर्नल नील (जेम्स जॉर्ज स्मिथ नील) की एक आदमकद प्रतिमा स्थापित है। इस स्टैच्यू के नीचे कर्नल नील का कुछ इस प्रकार से महिमामंडन किया गया है- “महारानी के सहायक, मद्रास सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल/भारत में ब्रिगेडियर जनरल/एक बहादुर, दृढ़ निश्चयी और आत्मनिर्भर सैनिक जिसने बंगाल में विद्रोह की लहर को रोका तथा लखनऊ में होने वाले क्रांति के वेग को शान्त किया। 47 वर्ष की उम्र में 25 सितम्बर 1857 ई. को वीरगति को प्राप्त हुआ।”
इसके अलावा यह बात जानकर आप हैरान रह जाएंगे कि ‘बीबीघर के हत्यारे’ और ‘इलाहाबाद के कसाई’ कर्नल नील की एक प्रतिमा ब्रिटिश गर्वनमेंट ने साल 1861 में मद्रास शहर में भी स्थापित की थी परन्तु कर्नल नील भारत में इतना बदनाम हो चुका था कि ब्रिटिश सरकार ने 1937 ई. में इस मूर्ति को चुपचाप हटा दिया और शहर के संग्रहालय में रख दिया। खास बात यह है कि इस मूर्ति को मानव विज्ञान अनुभाग में रखा गया था, जहाँ यह आज भी मौजूद है।
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