भारत का इतिहास

Origin and development of Shaktism in Sanatan

सनातन में शाक्त धर्म का उद्भव एवं विकास

शाक्त धर्म का संक्षिप्त परिचय-  शक्ति को इष्टदेवी मानकर पूजा करने वालों का सम्प्रदाय शाक्त कहा जाता है। भारत में देवताओं के साथ-साथ देवियों (शक्ति) की पूजा अत्यन्त प्राचीन काल से होती रही है परन्तु पूर्व मध्यकाल में यह बहुत व्यापक हो गई। शक्ति पूजा के मूल में यह दार्शनिक विचार निहित है कि ईश्वर अपनी शक्ति की सहायता से ही सृष्टि का पालन एवं संहार करता है।

परिणामस्वरूप ईश्वरवादी सम्प्रदायों में शक्ति परमदेवता की पत्नी के रूप में संसार में प्रचलित हो गई। वेदान्त के अनुसार, ब्रह्म की माया ही इस विविध सृष्टि का कारण है। इस प्रकार सनातन में धार्मिक भावना सपत्नीक अनुग्रहशील देवताओं की ओर प्रवृत्त हुई। ये विभिन्न सम्प्रदायों में पार्वती, उमा-माहेश्वरी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि के रूप में आविर्भूत हुई। शक्ति पूजा के व्यापक प्रचलन का एक दूसरा कारण यह है कि अनेक जनजातियों तथा आदिवासियों का भारतीय हिन्दू समाज में समाविष्ट होना।

संस्कृति संक्रमण की क्रियाविधि में आदिवासियों की मातृ​देवी हिन्दू तथा बौद्ध धर्म में शक्ति या तारा के रूप में ग्रहण की गई। छठी शताब्दी में शक्ति उपासना स्पष्ट एवं निश्चित रूप से दिखाई देती है और नवीं शताब्दी में इस मत का प्रबल प्रभाव दिखाई देता है।

छठी शताब्दी में मातृ देवियों के मंदिरों का विस्तारवादी नए ब्राह्मण धर्म में नियत स्थान प्राप्त हुआ। मध्यप्रदेश और उड़ीसा में चौंसठ योगिनियों के मंदिर है जिनमें मातृदेवी को चौंसठ रूपों में दिखाया गया है। इन चौंसठ योगिनियों के मंदिर भेड़ाघाट (जबलपुर के पास), खजुराहो तथा उड़ीसा के शम्भलपुर में हैं। जबकि चौथा मंदिर कलहंदी और पांचवां मंदिर ललितपुर (यूपी) में है। जबलपुर और खजुराहो के मंदिर 9वीं शताब्दी के हैं।

देश के विभिन्न क्षेत्रों में मातृदेवी को विभिन्न नामों से जाना जाता है। इनमें से अनेक नाम ऐसे हैं ​जिनसे आदिवासी उत्पत्ति का बोध होता है, जैसे- शबरी, पर्णेश्वरी, विंध्यवासिनी, शाकम्बरी, भ्रामरी। कादम्बरी से पता चलता है कि विंध्यवासिनी की पूजा शबर, भील आदि आदिवासी लोग करते थे।

बंगाल में शबर जाति के लोग शबरोत्सव पर पत्तों से आच्छादित पर्णेश्वरी की पूजा करते हैं। इसी प्रकार रौद्री-भैरवी भी आदिवासियों की ही मातृदेवियां हैं। ये सभी आदिवासी देवियां मां दुर्गा की विभिन्न रूप मान ली गईं।

शक्ति के तीन रूप हैं- सौम्य, उग्र और काम प्रधान। सौम्यरूप में मां शारदा, उमा, गौरी, पार्वती हैं। जम्मू स्थित शारदा देवी का मंदिर शक्ति के सौम्य रूप का प्रतीक है, जिसे आज हम सभी वैष्णो देवी के नाम से जानते हैं। जबकि उग्ररूप में काली, भैरवी, दुर्गा, रक्तदंतिका, चंडिका आदि हैं। कामरूपिणी देवी की पूजा शाक्त लोग करते हैं। ये लोग देवी को आनन्द भैरवी, त्रिपुर सुन्दरी, ललिता आदि कहते हैं। दुर्गा तथा उसके स्थानीय रूप मातृदेवी के स्वतंत्र ​अस्तित्व के परिचायक हैं।

सनातन में शक्ति पूजा का व्याप​क इतिहास

सैन्धव सभ्यता एवं वैदिक काल में शक्ति उपासना शक्ति का प्रारम्भिक रूप सैन्धव सभ्यता में मातृदेवी की उपासना के रूप में दिखाई पड़ता है। बतौर उदाहरण- खुदाई में मातृदेवी की बहुसंख्यक मूर्तियां प्राप्त होती हैं। वैदिक साहित्य में अदिति, उषा, सरस्वती, श्री, लक्ष्मी आदि देवियों का विस्तृत उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में देवीसूक्त है जिसमें वाक्शक्ति की उपासना की गई है। इसमें एक स्थान पर लिखा है- “मैं समस्त जगत की अधीश्वरी हूं, अपने भक्तों को धन प्राप्त कराने वाली तथा देवताओं में मैं प्रधान हूं। मैं सभी भूतों में स्थित हूं। विभिन्न स्थानों पर कार्य करने वाले देवगण जो कुछ भी कार्य करते हैं वह सब मेरे लिए करते हैं।

ऋग्वेद में सरस्वती की स्तुति सौभाग्यदायिनी कहकर की गई है। अथर्ववेद में पृथ्वी को माता कहकर उसकी पुत्र, धन एवं मधुर वाणी प्रदान करने के लिए स्तुति की गई है। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि वैदिककालीन ऋषियों ने शक्ति की महत्ता को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है।

उत्तर वैदिक काल में शक्ति उपासना - रामायण, महाभारत तथा पुराणों में देवी माहात्म्य का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। रामायण में इस बात का उल्लेख है कि लंकापति रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए युद्ध के समय जाम्बवंतजी भगवान श्रीराम को शक्ति पूजा की सलाह देते हैं। तत्पश्चात श्रीराम की पूजा से प्रसन्न होकर मां शक्ति उन्हें विजयश्री का वरदान देती हैं।

महाभारत के भीष्मपर्व में इस बात का उल्लेख है कि भगवान श्रीकृष्ण की सलाह पर अर्जुन ने युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए देवी की स्तुति की थी। वहीं विराट पर्व में युधिष्ठिर ने देवी को विन्ध्यवासिनी, महिषासुरमर्दिनी, यशोदा के गर्भ से उत्पन्न, नारायण की परमप्रिया तथा कृष्ण की बहन कहकर सम्बोधित किया है।

पुराणों में विन्ध्यपर्वत को देवी का निवास स्थान बताया गया है। मार्कण्डेय पुराण में देवी की महिमा विस्तृत गुणगान किया गया है।  इसके अतिरिक्त शाक्त लोग देवीमाहात्म्य, देवीभागवत पुराण तथा देवी उपनिषद पर आस्था रखते हैं। देवी को सभी प्राणियों में विष्णु-माया, चेतना, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, शान्ति, लज्जा, जाति, श्रद्धा, लक्ष्मी, वृत्ति, स्मृति, दया, तुष्टि, मातृ तथा भ्रां​ति रूपों में स्थित बताकर उनकी उपासना की गई है।

मार्कण्डेय पुराण में यह वर्णित है ​कि महिषासुर का वध करने के लिए विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, वरूण, सूर्य आदि देवताओं के ​तेजपुंज से शक्ति की उत्पत्ति हुई। सभी देवताओं ने मां शक्ति को अपने-अपने अस्त्र प्रदान किए। भगवान शंकर ने त्रिशूल, विष्णु ने चक्र, वरूण ने शंख, वायु ने धनुष-बाण युक्त तरकस, अग्नि ने तेज, इन्द्र ने वज्र, यमराज ने दण्ड, ब्रह्मा ने कमण्डल, काल ने ढाल और तलवार तथा विश्वकर्मा ने देवी को परशु भेंट किया।

अन्य काल खण्ड में शक्ति उपासना

शक्ति पूजा का प्रथम ऐतिहासिक पुरातात्विक प्रमाण कुषाण शासक हुविष्क के सिक्कों पर अंकित देवी चित्रों से मिलता है। इससे पता चलता है कि ईसा की प्रथम शती तक देवी की मूर्तियां बनने लगी थीं।

शक्ति उपासना गुप्तकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर थी। बतौर उदाहरण- नचना कुठार में पार्वती मंदिर का निर्माण तथा इसी में गंगा, यमुना तथा दुर्गा की बहुसंख्यक मूर्तियां विभिन्न स्थानों से मिलती हैं। हर्षचरित में कई जगहों पर मां दुर्गा की पूजा का उल्लेख मिलता है।

चीनी यात्री ह्वेनसांग अपने यात्रा विवरण में एक जगह लिखता है कि एक बार समुद्री यात्रा के दौरान डाकूओं ने उसे पकड़ लिया और वे उसे दुर्गा देवी की बलि चढ़ाने के लिए ले गए थे लेकिन तूफान ने उसकी जान बचा ली।

पूर्व मध्यकाल में शक्ति की उपासना अत्यन्त लोकप्रिय हो गई। देवी के अधिकांश मंदिर इसी युग के बने हैं।  चौंसठ योगिनियों के मंदिरों में भेड़ाघाट (जबलपुर के पास), खजुराहो तथा उड़ीसा के शम्भलपुर में हैं। चौथा मंदिर कलहंदी और पांचवां मंदिर ललितपुर (यूपी) में है। जबलपुर और खजुराहो के मंदिर 9वीं शताब्दी के हैं। प्रतिहार महेन्द्रपाल के लेखों में दुर्गा की महिषासुरमर्दिनी, कांचन देवी, अम्बा आदि नामों की स्तुति मिलती है।

राष्ट्र्कूट अमोघवर्ष महालक्ष्मी का अनन्य भक्त था, उसने एक बार अपने बाएं हाथ की अंगुली काटकर देवी को चढ़ा दिया था। कल्हण की राजतंरगिणी से पता चलता है कि शारदा देवी का दर्शन करने के लिए गौड़ नरेश के अनुयायी कश्मीर आए थे। मुगलकाल में अबुल फजल भी शारदा देवी के मंदिर का विवरण देता है।

शाक्त तांत्रिक विचारधारा

भगवान शिव की पत्नी पार्वती को जगत जननी कहा गया है। शक्तिस्वरूपा पार्वती का रूप काली और सिंहवासिनी देवी के प्रचंड रूप की पूजा कापालिक एवं कालामुख जैसे घोरपंथी सम्प्रदाय के लोग करते हैं। शाक्त तांत्रिक विचारधारा का आधार शक्ति है। इसमें जप, तप, मंत्र पर विशेष बल दिया जाता है। इन्हीं के द्वारा साधक स्वास्थ्य, धन तथा शक्ति को प्राप्त करता है। शक्ति उपासना के दो वर्ग हैंकौलमार्गी तथा समयाचारी।

कौलमार्गीपूर्णरूप से अद्वैतवादी साधक कौल कहे जाते हैं, जो कर्दम और चन्दन में, शत्रु और पुत्र में, श्मशान और मकान में तथा कांचन और तृण में कोई भेद नहीं समझते। कौलमार्गी पंचमकार की उपासना करते हैं, पंचमकार निम्नलिखित हैं मद्य (मदिरा), मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन।

समयाचारी इसमें उपासक देवी की उपासना करते हैं। इस सम्प्रदाय में देवी के नौ योनियों का वृत्त बनाकर उसके मध्य में एक योनि का चित्र खींचकर चक्र बनाया जाता है, इसे श्रीचक्र कहते हैं। इसकी पूजा भी दो प्रकार से होती है, एक जीवित स्त्री की योनि की तथा दूसरे काल्पनिक योनि की।

शक्ति पूजा का अंतिम तथा तीसरा विधान हैइसमें ज्ञान तथा अध्ययन को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है। जबकि कुत्सित आचरणों को त्याज्य बताया गया है।

शक्ति उपासना के तीन प्रमुख केन्द्रकश्मीर, कांची तथा कामाख्या (असम)। जहां कश्मीर और कांची श्रीविद्या के प्रमुख शक्ति पीठ हैं वहीं कामाख्या (असम) कौल मत का प्रधान केन्द्र है।

शाक्त धर्म के सिद्धान्त त्रिपुरा रहस्य, मलिनी विजय, महानिर्वाण, डाकार्णव, कुलार्णव आदि तांत्रिक ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से वर्णित हैं।

शाक्त तांत्रिक विचारधारा का प्रभाव

पूर्व मध्यकाल तक शाक्त तांत्रिक विचारधारा समाज में अत्यधिक लोकप्रिय हो गई। इसका प्रभाव प्राचीन धर्म के साथ-साथ बौद्ध, जैन, कश्मीर शैव मत, वैष्णव आदि सभी सम्प्रदायों पर पड़ा। अत: लोगों की आस्था तंत्र-मंत्रों में दृढ़ हो गई।

जैन धर्म की देवी सचिवा देवी की उपासना शाक्त ढंग से की जाने लगी। यहां तक कि कुछ जैन आचार्यों ने चौसठ योगिनियों के उपर सिद्धि प्राप्त कर लेने का दावा किया। जहां श्रीहर्ष ने अपने ग्रन्थ नैषधचरित में सरस्वती मंत्र की महत्ता को प्र​तिपादित किया है वहीं गुजरात का चालुक्य शासक कुमारपाल जैन नमस्कार मंत्र में अटूट विश्वास रखता था, उसका विश्वास था कि इसी मंत्र के कारण उसे सर्वत्र सफलता प्राप्त हुई है।

हांलाकि तंत्रवाद के प्रभाव से कुछ अन्धविश्वास दृढ़ हुए परन्तु तंत्रवाद से हिन्दू सामाजिक एवं सांस्कृतिक विचारधारा को कुछ लाभ भी प्राप्त हुए। 12वीं सदी में भारतीय रसायन शास्त्र के विकास में तंत्रवाद ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

स्त्रियों की स्थिति में सुधार एवं जाति-पांति के बन्धनों को शिथिल बनाने की दिशा में भी तांत्रिक विचारधारा का कुछ योगदान रहा। तांत्रिक विचारधारा ने पूर्व मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन को गति प्रदान की। तांत्रिक सहजयान से ही नाथ सम्प्रदाय का उदय हुआ जिसने मध्यकाल में कबीर, दादू, नानक आदि सन्तों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

शाक्त धर्म से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

शक्ति के उपासकों का मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति देवी ही हैं इसीलिए वे देवी को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं।

— ‘श्रीदुर्गा भागवत पुराण नामक ग्रंथ में 108 शक्ति पीठों का वर्णन है। उनमें भी 51-52 शक्तिपीठों का खास महत्व है।

दुर्गा सप्तशती, कालिका पुराण, शाक्त महाभागवत के अलावा अन्य 65 तंत्र प्रमुख हैं।

गुप्तकाल में शाक्त धर्म उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था।

ब्रज में महामाया, महाविद्या, करौली, सांचोली आदि विख्यात शक्तिपीठ हैं।

मथुरा के राजा कंस ने यशोदा से उत्पन्न जिस कन्या का वध किया था, उसे भगवान श्रीकृष्ण की प्राणरक्षिका देवी के रूप में पूजा जाता है।

द्वारका में भगवान द्वारकानाथ के शिखर पर चर्चित सिंदूरी आकर्षक देवी प्रतिमा को कृष्ण की बहन बतलाया गया है, जो सदा इनकी रक्षा करती हैं।
राजा कामसेन के समय तंत्रविद्या का मुख्य केंद्र था कामवन, उसके दरबार में अनेक तांत्रिक रहते थे।

साल 2020 के एक धार्मिक आंकड़े के अनुसार, शाक्तवाद तीसरा सबसे बड़ा हिंदू संप्रदाय है, जिसमें लगभग 305 मिलियन हिंदू हैं।

शाक्तवाद में देवी महात्म्य को भगवदगीता जितना ही महत्वपूर्ण माना जाता है।

शक्ति पूजा का सबसे प्राचीन पुरातात्विक साक्ष्य भारत के मध्य प्रदेश के सीधी जिले में बाघोर में खोजे गए थे।

कुल 8 शाक्त उपनिषद हैं सीता उपनिषद,त्रिपुरातापिनी उपनिषद,देवी उपनिषद, त्रिपुरा उपनिषद,भावना उपनिषद, सौभाग्यलक्ष्मी उपनिषद,सरस्वती-रहस्य उपनिषद एवं बहृच उपनिषद।

शाक्त तांत्रिक धर्म की प्रमुख देवियों के नाम हैं त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, तारा, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला।

पश्चिम बंगाल में शक्तिवाद के दो प्रमुख केंद्र हैं— 1. कालीघाट (कलकत्ता) 2. तारापीठ (वीरभूम)

शरदीय नवरात्र में नवदुर्गाओं की पूजा की जाती है।

चैत्र नवरात्रि देवी त्रिपुरसुन्दरी को समर्पित है।

आषाढ़ नवरात्रि सूअर के सिर वाली देवी वराही को समर्पित है।

कलिकुला यानि काली परिवार की देवियों के नाम हैं- काली,चंडी, भीमा,दुर्गा, देवी मनसा,षष्ठी, शीतला, उमा (पार्वती का बंगाली)

शतपथ ब्राह्मण में अम्बिका को रूद्र की बहन बताया है।

तैतरिय उपनिषद में रूद्र की पत्नी पार्वती का वर्णन है।

केनोपनिषद में उमा को विद्या की देवी कहा गया है।

शाक्त धर्म के पुरातात्विक साक्ष्य : चौंसठ योगिनी मंदिर - भेड़ाघाट (जबलपुर के पास), खजुराहो, हीरापुर, कामाख्या देवी मंदिर आसाम, उड़ीसा में सप्तमातृका मंदिर।

शाक्त धर्म से जुड़े अभिलेख : प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल के लेख, कल्हण कृत राजतरंगिणी, कश्मीर में लकड़ी की शारदा देवी की मूर्ति की पूजा, अबुलफजल कृत अकबरनामा।

शाक्त धर्म के साहित्यिक स्रोत : ऋग्वेद, महाभारत, शतपथ ब्राह्मण, तैतरीय उपनिषद, केनोपनिषद, मार्कण्डेयपुराण, दुर्गासप्शती, मत्स्यपुराण आदि।

भारत के कुछ प्रसिद्ध देवी मंदिर इस प्रकार हैं : तुलजा भवानी मंदिर (कोल्हापुर), पावागढ़ शक्तिपीठ (गुजरात), मां विन्ध्यवासिनी धाम, पाटन देवी, कामाख्या मंदिर (गुवाहाटी), चामुंडा माता, मैहर की मां शारदा, कोलकाता की काली माता, मनसा देवी (उत्तरांचल), वैष्णवों देवी (जम्मू) आदि।