आजकल ओमप्रकाश वाल्मीकि की ये पंक्तियां हर जगह देखने-सुनने को मिल रही है- “कुआं ठाकुर का, पानी ठाकुर का, खेत-खलिहान ठाकुर के, गली-मुहल्ले ठाकुर के फिर अपना क्या…?” दोस्तों, आपको याद दिला दें कि आजादी के बाद से ही बहुत ही योजनामय तरीके से राजपूत बिरादरी के खिलाफ यह बात फैलाई जा रही है कि भारत की आजादी में राजपूतों का कोई योगदान नहीं था।
इतना ही नहीं, आम जनमानस में गहरी पैठ रखने वाले भारतीय सिनेमा ने तो शुरूआत से ही राजपूत (ठाकुर) को खलनायक के रूप में दिखाना शुरू कर दिया था, जो आज तक जारी है। भारतीय फिल्मों में यह प्रदर्शित करने की कोशिश की गई कि समाज के विरूद्ध होने वाले सभी बुरे काम ‘ठाकुर की हेवली’ से ही शुरू होते हैं। साहित्य, फिल्म व सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के जरिए इस तरह का दुष्प्रचार राजपूतों के प्रति नफरत को उजागर करता है।
जबकि हकीकत यह है कि राजपूतों ने उत्तर भारत में प्रथम महाक्रान्ति (1857 ई.) की मशाल जलाई थी, इसके अतिरिक्त भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का उद्घोष कर आम जनता में आजादी के लिए जीने-मरने की उम्मीद जगाई थी। वैसे तो आजादी की लड़ाई में न जाने कितने बलिदानी राजपूतों ने अपना योगदान दिया जो आजतक गुमनाम हैं, परन्तु कुछ ऐसे गिन चुने नाम हम आपको बता रहे हैं जिनका नाम सुनकर ही अंग्रेजी हुकूमत कांपती थीं जैसे-ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह जमवाल, राव गोपाल सिंह खरवा, राम सिंह पठानिया, राणा बेनी माधव बैस, चंद्र सिंह गढ़वाली, राणा रतन सिंह सोढ़ा, ठाकुर खुशाल सिंह आऊवा, महावीर सिंह राठौड़, यशवंत सिंह परमार, डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह, महाराजा मरदान सिंह, सुभद्रा कुमारी चौहान, ठाकुर रणमत सिंह बघेल, ठाकुर विश्वनाथ शाह देव, कुंवर चैन सिंह परमार, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, वीर सुंदर साईं चौहान, लाल पदमधर सिंह, राणा बख्तावर सिंह आदि।
इस स्टोरी में आज हम आपको उन छह राजपूत स्वतंत्रता सेनानियों से परिचित कराने जा रहे हैं जिनके योगदान को भूलाया नहीं जा सकता है। आगे की स्टोरी में हम अन्य राजपूत स्वतंत्रता सेनानियों से परिचित करवाएंगे।
1- राजा नारायण सिंह
साल 1764 ई. में बिहार के राजा नारायण सिंह अपने चाचा विष्णु सिंह की मृत्यु के बाद पवई रियासत की गद्दी पर बैठे। यह उन दिनों की बात है, जब ईस्ट इंडिया कम्पनी प्लासी और बक्सर युद्ध जीतने के बाद ब्रिटिश भारत में अपनी शक्ति का विस्तार कर रही थी।
2800 गावों वाले पवई रियासत की कचहरी शाहपुर औरंगाबाद जिला मुख्यालय के पास में स्थित थी। साल 1764 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के नुमाईन्दों ने मेहंदी हुसैन को प्रतिनिधि बनाकर इस कचहरी पर कब्जा करने के लिए भेजा। परन्तु राजा नारायण सिंह ने मेहन्दी हुसैन को शिकस्त देकर शाहपुर स्थित अपनी कचहरी पर कब्जा बरकरार रखा।
काशी के राजा चेत सिंह भी राजा नारायण सिंह के मित्र थे। ऐसे में बागी राजा चेत सिंह को कैद करने के लिए बंगाल से एक ताकतवर ब्रिटिश सेना ने बनारस की तरफ कूच किया परन्तु यह फौज औरंगाबाद में आकर फंस गई क्योंकि सोन नदी अपने उफान पर थी। ऐसे में राजा नारायण सिंह ने अंग्रेजों को मदद देने का भरोसा दिलाकर अपने विश्वासपात्र मल्लाहों की मदद से सैकड़ों अंग्रेजों को सोन नदी में ही डूबाकर मार दिया। इसके बाद कैमूर की पहाड़ियों में हुए गोरिल्ला युद्ध में राजा नारायण सिंह ने असंख्य अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया।
साल 1770 ई. में बिहार में भयंकर अकाल पड़ा बावजूद इसके अंग्रेजों ने किसानों से जबरदस्ती लगान वसूला, परन्तु राजा नारायण सिंह ने अंग्रेजों को लगान नहीं देने का उद्घोष किया। राजा नारायण सिंह ने न केवल अपनी प्रजा का लगान माफ कर दिया बल्कि किसानों को अनाज भी वितरित किया। राजा नारायण सिंह के इस कार्य से अंग्रेज बौखला उठे। शाहबाद का तत्कालीन कलेक्टर रेजिनाल्ड हैंड ने अपनी किताब ‘अर्ली इंग्लिश एडमिनिस्ट्रेशन’ में राजा नारायण सिंह को ‘अंग्रेजों का पहला दुश्मन’ बताया है।
बक्सर के युद्ध में बंगाल के नवाब मीर कासिम, अवध के नवाब शुजाउददौला तथा मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय की संयुक्त सेनाओं को एक साथ शिकस्त देने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी के हौसले बुलन्द थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी को राजा नारायण सिंह की यह कार्रवाई नागवार गुजरी। ऐसे में अंग्रेजों ने एक बड़ी सेना के साथ पवई किले को चारो तरफ से घेर लिया। अंग्रेजों की तोपों और बन्दूकों के आगे राजा नारायण सिंह की छोटी सी सेना टिक नहीं पाई।
राजा नारायण सिंह गिरफ्तार कर लिए गए और अंग्रेजों ने पवई किले को नष्ट कर दिया। राजा नारायण सिंह की मृत्यु भी जेल में ही हुई। इस प्रकार राजा नारायण सिंह ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उत्तर भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरूद्ध अपनी आवाज बुलन्द की थी। परन्तु यह दुर्भाग्य है कि राजा नारायण सिंह को इतिहास में पर्याप्त स्थान नहीं दिया गया।
2- बाबू कुंवर सिंह
बाबू कुंवर सिंह जगदीशपुर (आरा) के जमींदार थे। लार्ड डलहौजी की हड़पनीति के चलते बाबू कुंवर सिंह की जमींदारी दिवालियेपन की स्थिति में पहुंच चुकी थी। 1857 की महाक्रांति के दौरान बिहार में क्रांतिकारियों का नेतृत्व बाबू कुंवर सिंह ने ही किया और 80 साल की उम्र में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। बिहार में जगदीशपुर (आरा) के राजा कुंवर सिंह को लोग आज भी आदर से ‘बाबू साहब’ और ‘तेगवा बहादुर’ के नाम से सम्बोधित करते हैं।
1857 के विद्रोहियों ने दानापुर पर कब्जा करने के बाद संघर्ष का नेतृत्व कुंवर सिंह को सौंप दिया। 25 जुलाई 1857 ई. को बाबू कुंवर सिंह ने दानापुर के साथ ही आरा शहर पर भी कब्जा कर लिया। एक संयुक्त रणनीति के तहत तात्या टोपे और नाना साहब कानपुर में कुंवर सिंह का इंतजार कर रहे थे, परन्तु दुर्भाग्यवश काल्पी में विद्रोहियों को पराजय का मुंह देखना पड़ा। ऐसे में कुंवर सिंह काल्पी से सीधे लखनऊ पहुंचे।
कुंवर सिंह ने तकरीबन 45 दिनों तक मार्टिनियर कॉलेज के भवन को अपने कब्जे में रखा। बाबू कुंवर सिंह की इस कार्रवाई से खुश होकर बेगम हजरत महल ने फौज संगठित करने में उनकी मदद की। इसके बाद कुंवर सिंह ने 22 मार्च 1858 को कर्नल स्लीमैन को हराकर आजमगढ़ पर अधिकार कर लिया। अत: अंग्रेजों ने आजमगढ़ को मुक्त कराने के लिए गाजीपुर से कर्नल डेम्स और इलाहाबाद से मार्क कीर को भेजा। इतना ही नहीं, लखनऊ से एडवर्ड लुगार्ड को भी भेजा गया।
80 साल के वृद्ध हो चुके कुंवर सिंह को हराने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी ने तीन-तीन अंग्रेज कप्तानों को भेजा था। हांलाकि इस युद्ध में बाबू कुंवर सिंह को हार नसीब हुई परन्तु अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंचाने वाले बाबू कुंवर सिंह ने जब आजमगढ़ से जगदीशपुर की तरफ कूच किया तो अंग्रेजों में दहशत फैल गई।
21 अप्रैल 1858 ई. को बलिया में बाबू कुंवर सिंह जब शिवपुर घाट से गंगा नदी पार करने लगे तब उनकी बायी भुजा और जांघ में अंग्रेजों की गोली लगी। बांह में जहर नहीं फैले इसलिए कुंवर सिंह ने अपनी बायी भुजा काटकर गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। 22 अप्रैल को कुवंर सिंह तकरीबन 2000 पैदल सैनिकों तथा घुड़सवारों के साथ जगदीशपुर पहुंचे। 23 अप्रैल को दुलौर के युद्ध में कर्नल ली ग्रांड, डी क्लार्क और लेफ्टिनेंन्ट कर्नल मैसी को अपने जान से हाथ धोना पड़ा, भारी संख्या में अंग्रेज सैनिक मारे गए। इसके बाद बाबू कुंवर सिंह जगदीशपुर अपने महल लौट आए लेकिन तीन दिन बाद 26 अप्रैल 1858 ई. को बाबू साहब वीरगति को प्राप्त हुए। 80 वर्षीय बाबू कुंवर सिंह की वीरता से प्रभावित होकर एक अंग्रेज लेखक जॉर्ज ट्रेवेलियन अपनी किताब में लिखता है कि “हम भाग्यशाली थे कि कुंवर सिंह चालीस साल छोटे नहीं थे।”
3- राम प्रसाद तोमर (बिस्मिल)
महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल को काकोरी कांड में जब गोरखपुर जेल में फांसी दी गई तब वह महज 30 साल के थे। उनका मूल नाम राम प्रसाद था, जब कि ‘बिस्मिल’ उनका उपनाम था। बिस्मिल का हिन्दी अर्थ है- ‘आहत’ अथवा ‘जख्मी’। मुरैना के बड़वानी गांव निवासी राम प्रसाद तोमर राजपूत थे। देश के प्रतिष्ठित अखबार ‘द हिन्दू’ ने साल 2013 में राम प्रसाद के तोमर राजपूत परिवार का साक्षात्कार भी लिया था।
चूंकि राम प्रसाद बिस्मिल एक क्रांतिकारी होने के साथ-साथ एक शायर, कवि, अनुवादक और इतिहासकार भी थे, इसलिए वह अपने नाम के आगे ‘बिस्मिल’ लगाते थे। ऐसे में केवल बिस्मिल शब्द पढ़कर हमें भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं है। योगेश चटर्जी, शचीन्द्र सान्याल, चन्द्रशेखर आजाद जैसे युवाओं के साथ मिलकर साल 1924 में हिन्दुस्तान रिपब्ल्किन ऐसोसिएशन का गठन करने वाले क्रांतिकारियों में राम प्रसाद भी शामिल थे।
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांतिकारी अभियान शुरू करने के लिए बड़े पैमाने पर धन और हथियार की जरूरत थी ऐसे में राम प्रसाद बिस्मिल ने 9 अगस्त 1925 को अपने दस युवा क्रांतिकारियों के साथ मिलकर लखनऊ के पास एक गांव काकोरी में 8 डाउन ट्रेन को रोककर रेल विभाग का खजाना लूट लिया। आधुनिक भारत के इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से मशहूर है।
4- ठाकुर रोशन सिंह
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जनपद के फतेहगंज से तकरीबन 10 किमी. की दूरी पर स्थित नबादा के एक राजपूत परिवार में जन्मे ठाकुर रोशन सिंह के पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह तथा मां का नाम कौशल्या देवी था। ठाकुर रोशन सिंह की जन्मतिथि 22 जनवरी 1892 ई. है। बरेली काण्ड में रोबीले ठाकुर रोशन सिंह ने पुलिसवाले की राइफल छीनकर जबरदस्त फायरिंग शुरू कर दी थी जिससे हमलावर पुलिस दल को वापस भागना पड़ा था। इसके बाद ठाकुर रोशन सिंह को बरेली के सेन्ट्रल जेल में 2 साल की साज काटनी पड़ी थी।
रोबीले और लम्बी कद काठी के ठाकुर रोशन सिंह हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन के भी सदस्य थे। अचूक निशानेबाज ठाकुर रोशन सिंह से ब्रिटिश हुकूमत इतनी भयभीत थी कि काकोरी काण्ड में शामिल नहीं होने के बावजूद भी राम प्रसाद बिस्मिल व अशफाक उल्ला खाँ के साथ 19 दिसम्बर 1927 को उन्हें भी फाँसी दे दी गयी।
5- राजा संग्राम सिंह
पूर्वांचल में राजा संग्राम सिंह को लोग बागी संग्राम सिंह के नाम से सम्बोधित करना कुछ ज्यादा ही पसन्द करते हैं। बता दें कि राजा संग्राम सिंह का जन्म साल 1822 में जौनपुर जिले के मड़ियाहूं तहसील अन्तर्गत रामनगर प्रखण्ड के नेवढ़िया में हुआ था। कहतें हैं, राजा संग्राम सिंह जब 12 साल के थे तभी उन्होंने अंग्रेज सैनिकों के अत्याचार से एक पीड़ित महिला को मुक्त करवाया था।
1857 की महाक्रांति में शामिल राजा संग्राम सिंह को ‘पूर्वांचल का प्रताप’ कहा जाता है। 3 महीने तक जौनपुर को अंग्रेजों की हनक से मुक्त रखने वाले बागी संग्राम सिंह अगले 15 वर्षों तक ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ते रहे। अंग्रेजों ने बागी संग्राम सिंह पर 20 हजार रुपए का ईनाम रखा था, उस जमाने में यह बहुत बड़ी रकम थी।
साल 1862 ई. में ब्रिटिश सेना से हुई एक मुठभेड़ के दौरान बागी संग्राम सिंह ने लेफ्टिनेंट गार्टन को मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेजों ने बागी संग्राम सिंह को कैद करने की पूरी कोशिश की लेकिन वे कभी पकड़े नहीं गए।
6- ठाकुर जोधा सिंह ‘गौतम’
उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले की बिंदिकी तहसील क्षेत्र में ठाकुर जोधा सिंह गौतम और उनके 51 क्रांतिकारी साथियों को 28 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों ने ईमली के पेड़ पर लटकाकर मौत के घाट उतार दिया था। यह स्थान आज भी ‘बावन इमली’ के नाम से विख्यात है।
1857 की महाक्रांति के योद्धा ठाकुर जोधा सिंह का गोत्र गौतम था। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में भी गौतम क्षत्रिय बहुसंख्या में मौजूद हैं। विदित हो कि गौतम कुल एक प्रतिष्ठित सूर्यवंशी क्षत्रिय राजवंश है।
इन 52 क्रांतिकांरियों को फांसी पर लटकाने के बाद भी अंग्रेजों की बर्बरता कम नहीं हुई। अंग्रेजों ने कहा कि ईमली के पेड़ पर लटकते इन 52 शवों को जो भी उतारेगा उसे भी उसी पेड़ पर लटका दिया जाएगा। जोधा सिंह तथा उनके साथियों के शव 37 दिन तक ईमली के पेड़ पर ही लटके रहे। आखिर में, 4 जून 1858 को महाराजा भवानी सिंह गौतम ने इन शवों को पेड़ से नीचे उतारा और उनका अंतिम संस्कार किया।