
मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु (मार्च 1707 ई.) के बाद उसके पुत्रों मुहम्मद मुअज्जम (शाहआलम), मुहम्मद आजम और कामबख्श में उत्तराधिकार का युद्ध शुरू हुआ। मुहम्मद मुअज्जम ने 18 जून 1707 को सामूगढ़ के समीप 'जाजऊ' नामक स्थान पर आजम को तथा 13 जनवरी 1709 को हैदराबाद के समीप कामबख्श को पराजित कर मार डाला और ‘बहादुरशाह प्रथम’ की उपाधि धारण मुगल गद्दी पर बैठा। बहादुर शाह प्रथम को 'शाहआलम प्रथम' या 'आलमशाह प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है।
बहादुरशाह प्रथम जब मुगल सिंहासन पर बैठा तब उसकी उम्र 63 वर्ष थी, ऐसे में वह एक सक्रिय नेता के रूप में कार्य नहीं कर सकता था। इतिहासकार खाफी खां लिखता है कि “राजकीय कार्यों में लापरवाह होने के चलते जनता उसे 'शाह-ए-बेखबर' कहने लगी”।
बहादुरशाह प्रथम मुगल इतिहास का इकलौता बादशाह था जिसके शव को दस सप्ताह बाद दफनाया गया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि बहादुरशाह प्रथम के शव को दफनाने में उसके पुत्रों ने इतनी देरी क्यों की? यह जानने के लिए इस रोचक स्टोरी को जरूर पढ़ें।
बहादुरशाह प्रथम (शाह-ए-बेखबर)
जनता के बीच ‘शाह-ए-बेखबर’ नाम से विख्यात 63 वर्षीय मुगल सम्राट बहादुरशाह प्रथम ने सिंहासन पर बैठने के बाद शान्तिप्रिय नीति अपनाई। छत्रपति संभाजी महाराज का पुत्र शाहू आठ वर्ष की उम्र से ही औरंगजेब के कब्जे में था परन्तु उसकी मौत के बाद बादशाह बहादुरशाह प्रथम ने छत्रपति शिवाजी के पौत्र शाहू को मुगलों की कैद से मुक्त कर दिया और महाराष्ट्र जाने की अनुमति दे दी।
बहादुरशाह प्रथम ने राजपूत राजाओं से भी शान्ति स्थापित कर ली और उन्हें उनके प्रदेशों में पुन: स्थापित कर दिया। बतौर उदाहरण- बहादुरशाह प्रथम ने मारवाड़ के शासक अजीत सिंह को न केवल महाराज की उपाधि प्रदान की बल्कि 3500 का मनसब भी प्रदान किया। लेकिन जैसे ही वह दक्कन की तरफ गया अजीत सिंह, दुर्गादास एवं जयसिंह कछवाहा ने मेवाड़ के महाराज अमरजीत सिंह के नेतृत्व में अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया। इन सबके बावजूद बहादुर शाह प्रथम ने इनसे संघर्ष करने के बजाय इन्हें मान्यता दे दी।
ऐसा कहते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने 'जाजऊ' के युद्ध में बहादुरशाह प्रथम की मदद की थी, जिसकी वजह मुगल सम्राट की जीत सुनिश्चित हुई। इसी वजह से बहादुरशाह प्रथम ने गुरु गोविन्द सिंह को आगरा बुलाया और उनके सम्मान में उन्हें 60 हज़ार रुपए कीमत की सिरोपायो और धुकधुकी भेंट की। ऐसा लगा कि अब मुगलों के साथ सिखों का वर्षों पुराना मतभेद समाप्त हो जाएगा परन्तु 1708 ई. में नांदेड़ में गुरु गोविन्द सिंह की हत्या के बाद सिखों के नेता बन्दा बहादुर ने पंजाब में मुसलमानों के विरूद्ध एक व्यापक अभियान शुरू कर दिया।
अत: बहादुरशाह प्रथम को सिखों के विरूद्ध कार्यवाही करनी पड़ी। मुगल सेना ने बन्दा बहादुर को लोहागढ़ के स्थान पर पराजित कर दिया। 1711 ई. में मुगलों ने सरहिन्द को दोबारा जीत भी लिया बावजूद इसके बहादुरशाह सिखों को न ही अपना मित्र बना सका और न ही उन्हें कुचल सका। आखिरकार 27 फरवरी 1712 को बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु हो गई।
विदेशी इतिहासकार सिडनी ओवन लिखता है कि, “बहादुरशाह प्रथम अन्तिम मुगल सम्राट था जिसके विषय में कुछ अच्छे शब्द कहे जा सकते हैं। इसके पश्चात मुगल साम्राज्य का तीव्रगामी पतन, मुगल सम्राटों की तुच्छता और शक्तिहीनता का द्योतक था”।
बहादुरशाह प्रथम के मौत की वजह
मुगल बादशाह बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु के पश्चात उसके चारों पुत्रों जहांदार शाह, अजीम-उस-शान, रफी-उस-शान और जहान शाह में उत्तराधिकार का युद्ध शुरू हो गया। इतिहास में ‘लम्पट मूर्ख’ के नाम से विख्यात जहांदार शाह ने मीर बख्शी जुल्फिकार खाँ की मदद से अपने भाईयों पर विजय प्राप्त की।
अजीम-उस-शान लाहौर के निकट एक युद्ध में मारा गया जबकि जहानशाह और रफी-अल-शान को पदच्युत कर जहांदार शाह मुगल बादशाह बनने में सफल हुआ। इतिहासकार विलियम इरविन लिखता है कि “मुगल बादशाह बहादुरशाह प्रथम जब लाहौर में था तब उसका स्वास्थ्य खराब हो गया और 27 फरवरी 1712 की रात में उसकी मृत्यु हो गई”। वहीं मुगल सरदार कामवर खान के मुताबिक, “बहादुरशाह प्रथम की मौत तिल्ली यानि प्लीहा (spleen) बढ़ने की वजह से हुई थी”। बता दें कि जब शरीर में इन्फेक्शन, कैन्सर अथवा लिवर जैसी कोई समस्या होती है तब spleen की साइज बढ़ती है जिससे शरीर को काफी नुकसान पहुंचता है।
इस प्रकार 11 अप्रैल 1712 ई. को बहादुरशाह प्रथम के शव को चिनकिलिच खान के संरक्षण में दिल्ली भेजा गया तत्पश्चात उसे 15 मई को महरौली में सूफी संत कुतबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के निकट मोती मस्जिद के प्रांगण में दफनाया गया। ध्यान देने योग्य बात यह है कि उत्तराधिकार के प्रश्न को हल करने में बहादुरशाह प्रथम के पुत्रों ने इतनी निर्लज्ज शीघ्रता की कि उसका शव 10 सप्ताह बाद दफन किया जा सका।
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