मुगल बादशाह औरंगजेब का प्रमुख लक्ष्य भारत को दार-उल हर्ब (काफिरों का देश) से दार-उल इस्लाम (इस्लाम का देश) बनाना था। वह अपने इस लक्ष्य को जीवन पर्यन्त नहीं भूल सका। यदि हम उसके व्यक्तित्व की बात करें तो औरंगजेब न एक अच्छा पुत्र, न एक अच्छा पिता, न एक अच्छा मित्र, न एक अच्छा भाई, न एक अच्छा बादशाह और न ही एक अच्छा शासन प्रबन्धक साबित हुआ।
उसने सबसे पहले अपने पिता शाहजहां को कैद में रखा, अपने भाईयों दाराशिकोह, शाहशुजा और मुराद बख्श का बेरहमी से वध करवाया, उसका एक पुत्र विदेश भागने को मजबूर हुआ, उसके एक पुत्र और पुत्री की मृत्यु कैद में ही हुई तथा उसके एक अन्य पुत्र को आठ साल कैद में रहना पड़ा, यहां तक कि उसका कोई अच्छा मित्र भी नहीं था। इन सबके लिए औरंगजेब खुद उत्तरदायी था।
उपरोक्त तथ्य यह साबित करने के लिए काफी हैं कि अपनी बादशाहत बरकरार रखने के लिए उसने अपने पिता, भाईयों तथा बेटे-बेटियों तक को नहीं बख्शा, उसने किसी को कैद में रखा तो किसी का बेरहमी से कत्ल करवा दिया। इस स्टोरी में हम यह बताने जा रहे हैं कि मुगल सत्ता को खुद के लिए सुरक्षित रखने हेतु औरंगजेब ने किस प्रकार से अपने सभी भाईयों को बेरहम मौत दे दी, एक ऐसी मौत जिसे सुनकर किसी का भी कलेजा दर्द से कांप उठेगा।
दारा शिकोह-
मुगल बादशाह शाहजहां ने अपने शासनकाल में ही दारा शिकोह को मुगल साम्राज्य का भावी शासक स्वीकार कर लिया था। इसके लिए दारा शिकोह के सभी भाईयों को अन्य प्रान्तों में नियुक्त किया गया था लेकिन दारा शिकोह हमेशा अपने पिता शाहजहां के साथ शाही दरबार में ही रहा।
यदि हम उसके व्यक्तित्व की बात करें तो वह सूफी रहस्यवाद और कुरान में गहरी रूचि के साथ-साथ संस्कृत और हिन्दू धर्मग्रन्थों की तरफ भी जबरदस्त तरीके से प्रभावित हुआ था। ऐसे में दारा शिकोह में एक बादशाह के गुण कम और एक प्रतिभाशाली लेखक तथा दार्शनिक के गुण ज्यादा विद्यमान थे। ‘सकीनात अल औलिया’ और ‘सफ़ीनात अल औलिया’ नाम से उसने दो पुस्तकें लिखीं जो सूफी संतों के जीवनचरित्र पर आधारित हैं। जबकि ‘तारीकात ए हकीकत’ और ‘रिसाला ए हकनुमा’ नामक पुस्तकों में उसने सूफीवाद का दार्शनिक विवेचन किया था। इतना ही नहीं उसने सीर्र-ए-अकबर शीर्षक से 52 उपनिषदों का फारसी में भी अनुवाद करवाया। उसके कविता संग्रह ‘अक्सीर ए आज़म’ से उसकी सर्वेश्वरवादी प्रवृत्ति का बोध होता है।
मज्म उल बहरैन (हिन्दी अर्थ है- दो समुद्रों का संगम) दारा शिकोह द्वारा लिखित एक चर्चित पुस्तक है जिसमें सूफीवाद और वेदान्त के शास्त्रीय शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। कुछ कट्टर आलोचकों ने लिखा है कि दाराशिकोह को कई बार रामनामी ओढ़कर सार्वजनिक स्थलों पर देखा गया था। इन सभी बातों की वजह से औरंगजेब की नजरों में दाराशिकोह एक काफिर और इस्लाम का अपराधी था।
उपरोक्त तथ्यों से इतर अपनी ताजपोशी के दिन शाहजहां ने दाराशिकोह को 60000 जात तथा 40000 सवार का मनसब दिया था। ठीक इसके विपरीत शाहशुजा और औरंगजेब को 20000 जात तथा 15000 सवार का मनसबदार बनाया था जबकि मुराद बख्श को केवल 15000 जात तथा 12000 सवार की मनसबदारी दी थी।
इस प्रकार एक तरफ दाराशिकोह के द्वारा इस्लाम के साथ-साथ हिन्दू धर्म के प्रति उदारवादी मनोवृत्ति तथा दूसरी तरफ अन्य सभी शहजादों के मुकाबले दारा को सबसे अधिक मनसब मिलने से अन्दर ही अन्दर औरंगजेब अपने बड़े भाई दाराशिकोह का कट्टर दुश्मन बन चुका था।
साल 1657 ई. में शाहजहां के बीमार पड़ते ही मुगल साम्राज्य के उत्तराधिकार को लेकर दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच जंग छिड़ गई। 30 मई 1658 ई. को आगरा से 13 किलोमीटर दूर सामूगढ़ के निर्णायक जंग में औरंगजेब की जीत हुई। जबकि दाराशिकोह अपनी जान बचाकर भागने के लिए बाध्य हो गया।
सामूगढ़ की जंग जीतने के बाद औरंगजेब सीधे आगरा पहुंचा लेकिन शाहजहां ने आगरा किले का मुख्य द्वार बंद करवा दिया। ऐसे में औरंगजेब ने यमुना नदी से किले में जाने वाले पानी को रुकवा दिया जिससे बाध्य होकर शाहजहां को आगरा के किले का द्वार खोलना पड़ा। किले में पहुंचते ही औरंगजेब ने सबसे पहले अपने पिता को कैद कर लिया, आठ वर्ष तक कैद में रहने के बाद शाहजहां की मृत्यु हो गई।
इधर सामूगढ़ की जंग हारने के बाद दारा शिकोह दर-दर (मुल्तान, थट्टा, अजमेर आदि) भटकता रहा आखिरकार औरंगजेब के सैनिकों ने दारा को गिरफ्तार कर लिया। दाराशिकोह को पकड़कर दिल्ली लाया गया जहां उसे पहले अपमानित किया गया फिर गन्दे कपड़ों में हाथी पर बैठाकर घुमाया गया। बता दें कि दारा शिकोह को भिखमंगों जैसे कपड़े पहनाए गए थे।
अंत में औरंगजेब ने दाराशिकोह को जेल में कैद कर लिया। एक रात जब दाराशिकोह और उनका बेटा जेल में ही अपने लिए खाना पका रहे थे, तभी बादशाह औरंगजेब के एक गुलाम ने औरंगजेब दाराशिकोह का सिर काट डाला।
अवीक चंदा अपनी किताब ‘दारा शिकोह, द मैन हू वुड बी किंग’ में लिखती हैं कि औरंगजेब ने दारा शिकोह के कटे सिर को आगरा में कैद शाहजहां के पास तोहफे में भिजवा दिया और बाकी हिस्से को दिल्ली में ही हुमायूँ के मकबरे में दफन करवा दिया।
उत्तराधिकार युद्ध के दौरान दाराशिकोह की सेना का प्रधान तोपची और इतालियन यात्री निकोलाओ मनूची अपने यात्रा वृत्तांत ‘स्टोरिया डो मोगोर’ में लिखता है कि “औरंगजेब के आदेशानुसार दारा शिकोह के सिर को ताजमहल के प्रांगण में गाड़ दिया गया ताकि शाहजहां जब भी ताजमहल को देखे उसे बार-बार इस बात का अहसास हो कि उनके प्रिय बेटे का सिर वहां सड़ रहा है।”
बादशाह औरंगज़ेब के शासन काल के प्रथम 10 वर्षों के इतिहास का विस्तृत वर्णन इनायत खां की पुस्तक ‘शाहजहाँनामा’ में मिलता है। शाहजहाँनामा के मुताबिक दाराशिकोह को जंजीरों में बांधकर दिल्ली लाया गया जहां उसका सिर काटकर आगरा के किले में शाहजहां के पास भिजवा दिया गया जबकि उसके धड़ को हुमायूं के मकबरे में दफन कर दिया गया। हांलाकि इतिहास में इस बात की पुख्ता जानकारी नहीं है कि वास्तव में दाराशिकोह को कहां दफनाया गया था।
शाह शुजा-
बता दें कि जिन दिनों दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच उत्तराधिकार का युद्ध चल रहा था, तब शाह शुजा और मुराद बख्श के पास बड़ी सेना थी। इसलिए औरंगजेब ने इस्लाम के नाम पर दाराशिकोह के खिलाफ मुराद बख्श तथा शाहशुजा को अपनी तरफ मिला लिया। लिहाजा युद्ध में न केवल दाराशिकोह को पराजित किया बल्कि उसकी बेरहमी से हत्या भी करवा दी। तत्पश्चात औरंगजेब ने शाहजहां को आगरा के किले में कैद कर स्वयं को मुगल बादशाह घोषित कर दिया।
हांलाकि औरंगजेब को इस बात का अहसास हो चुका था कि शाह शुजा को अपने रास्ते से हटाए बिना निर्विरोध रूप से बादशाह नहीं बना जा सकता है। इसलिए उसने शाह शुजा के समक्ष एक प्रस्ताव रखा जिसके मुताबिक औरंगजेब को बादशाह के रूप में स्वीकार करने के बदले उसे बंगाल के इलाके दे दिए जाएंगे जहां वो शासन कर रहा है।
शाह शुजा को यह शर्त मंजूर नहीं थी लिहाजा दोनों के बीच जंग होना लाजिमी था। फ्रांसीसी यात्री बर्नियर लिखता है कि “शाह शुजा कुचक्र रचने में माहिर था लेकिन वह काम-वासना का दास था। ऐसे में प्रतिभा, साहस, योग्यता होते हुए भी उत्तराधिकार युद्ध के लिए वह अयोग्य था।”
इस प्रकार औरंगजेब के खिलाफ हुए उत्तराधिकार के युद्ध में शाह शुजा के पास सैनिकों की कमी थी लेकिन उसने अपनी रणनीति से औरंगजेब को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। अंत में शाह शुजा के हमलों से बचने के लिए औरंगजेब ने युद्ध के दौरान इधर-उधर भाग रहे हाथियों के पैर बधवाएं और लाइन से खड़ा करके एक दीवार सी खड़ी कर दी तथा अपनी सेना का बचाव किया। इसके बाद औरंगजेब की सेना ने शाह शुजा के सैनिकों को न केवल पराजित किया बल्कि पीछे भागने पर मजबूर कर दिया। युद्ध हारने के बाद शाह शुजा ढाका होते हुए अराकान पहुंचा। औरंगजेब ने शाहशुजा का पीछा किया और उसे वहीं मार दिया।
इतिहास में दर्ज घटना के मुताबिक युवावस्था में शाह शुजा ने एक बार अनियंत्रित हाथी से भिड़कर औरंगजेब की जान बचाई थी लेकिन शाह शुजा को क्या पता था कि वह जिस भाई की जान बचा रहा है, एक दिन वही भाई उसकी हत्या कर देगा।
मुराद बख्श-
शाहजहां के सबसे छोटे पुत्र मुराद बख्श को अपने पिता से मालवा तथा गुजरात की सूबेदारी मिली थी। वह साहसी और वीर तो था लेकिन शराबी और विलासी होने की वजह से उसमें कार्य योजनाएं बनाने की काबिलियत नहीं थी। उसमें कूटनीति का अभाव था, वह बड़ी आसानी से औरंगजेब के झांसे में आ गया। कुछ इतिहासकारों ने मुराद बख्श को ‘काली भेड़’ की संज्ञा दी है।
सामूगढ़ की जंग में दारा शिकोह के विरुद्ध मुराद बख्श को अपनी तरफ से शामिल करने के लिए औरंगजेब ने उसे एक खत लिखा। औरंगजेब ने खत में लिखा कि मेरे भाई आपको यह बताने की जरूरत नहीं है कि हुकूमत में मेरा मन नहीं लगता है, मैं फकीर की जिन्दगी जीना चाहता हूं। बादशाहत पर मेरा कोई दावा नहीं है। दाराशिकोह बादशाह बनने के काबिल नहीं है और शाह शुजा भी मुगल साम्राज्य संभालने के लायक नहीं है। इतने बड़े मुगल साम्राज्य को संभालने की काबिलियत सिर्फ आप में हैं इसलिए जब आप बादशाह बन जाइएगा तो मुझे किसी शांत जगह पर रहने की इजाजत दीजिएगा ताकि मैं वहां खुदा की इबादत कर सकूं।
औरंगजेब ने अपने इसी खत में मुराद को सूरत के किले को तुरंत अपने कब्जे में लेने की सलाह दी थी। मुराद अपने क्रूर और कपटी भाई औरंगजेब के झांसे में आ गया और फौरन सूरत के किले पर कब्जा कर लिया। इतने में एक और खत आया जिसमें उसे आगरा कूच करने की सलाह दी गई थी।
फ्रांसीसी यात्री अपने यात्रा वृत्तांत में लिखता है कि ‘मुराद बख्श के भरोसेमंद हिजड़े शाह अब्बास ने उसे औरंगजेब से बचकर रहने की सलाह दी थी बावजूद इसके मुरादबख्श अहमदाबाद से पहाड़ों और दरख्तों को पार करते हुए सामूगढ़ पहुंच गया।’ औरंगजेब अपने छोटे भाई मुराद को अपने झांसे में लेने के लिए बार-बार बादशाह, हजरत और जहांपनाह जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा था। इन शब्दों को सुनकर मुराद के अन्दर मुगल बादशाह बनने की चाहत बढ़ती जा रही थी। आखिरकार मुराद और औरंगजेब ने मिलकर सामूगढ़ की जंग में दाराशिकोह को पराजित कर दिया।
जंग हारने के बाद दारा शिकोह दिल्ली की तरफ भागा, औरंगजेब ने उसका पीछा किया। इसके लिए उसने मुराद को अपने साथ चलने के लिए तैयार कर लिया। औरंगजेब और मुराद बख्श की मुलाकात मथुरा में हुई। हांलाकि दोनों सेनाओं के अपने-अपने खेमे बने हुए थे। मुराद के वफादार साथियों ने उसे औरंगजेब के खेमे नहीं जाने की सलाह दी थी। लेकिन औरंगजेब के बुलाने पर मुराद उसके खेमे में चला गया। औरंगजेब ने अपने छोटे भाई मुराद बख्श की जमकर मेहमान नवाजी की जिससे उसके आंसू छलक उठे। औरंगजेब इस बात को अच्छी तरह से जानता था कि मुराद अव्वल दर्जे का शराबी है, इसलिए भोजन कराने के बाद उसे काबुल की शराब परोसी गई। मुराद बख्श ने जमकर शराब पी और नशे में मस्त होकर सो गया।
औरंगजेब तो यही चाहता था, उसने मुराद को अपने पैर से कई बार धक्का दिया। जब मुराद की आंखें खुली तो औरंगजेब ने उससे कहा कि ये कितनी शर्म की बात है कि तुम बादशाह हो और तुम्हे होश ही नहीं, दुनिया क्या कहेगी। इसके बाद औरंगजेब के इशारे पर उसके सैनिकों ने मुराद बख्श के हाथ-पैर बांध दिए। मुराद बख्श चिखता-चिल्लाता रहा। मुराद बख्श के कुछ करीबियों को औरंगजेब ने अपनी ताकत से तो कुछ धन देकर अपनी तरफ मिला लिया।
औरंगजेब ने मुराद बख्श को ग्वालियर के उस किले में कैद कर दिया जहां शाही खानदान के लोगों को कैद करके रखा जाता था। चूंकि इस किले में कैदियों को अफीम खाना अनिवार्य था, ऐसे में औरंगजेब की शुरूआती मंशा अफीम के जरिए मुराद बख्श को धीमी मौते देने की थी। लेकिन उसे शक हो गया कि कहीं ऐसा न हो कि ग्वालियर के किले में कुछ लोग मुराद बख्श को पसन्द करते हों इसलिए बिना देरी किए उसने अपने सबसे छोटे भाई मुराद बख्श की बेरहमी से हत्या करवा दी।