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swami sahajanand saraswati was the father of Indian Farmer movement

कौन था वह दंडी सन्यासी, जिसे कहा जाता है भारत के किसान आन्दोलन का जनक

उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले के देवा गांव में बेनीराय के घर महाशिवरात्रि के दिन (22 फरवरी 1889 ई.) स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जन्म हुआ था। स्वामीजी के बचपन का नाम नौरंग राय था। स्वामी सहजानन्द सरस्वती अखिल भारतीय किसान सभा के संस्थापक, भारतीय मुक्ति संग्राम के अग्रणी नेता तथा अग्रगामी सिद्धान्तकार थे। इस मंजिल तक पहुंचने में उनके व्यक्तित्व का विकास कई पड़ावों से गुजरने के बाद हुआ। पहले उन्होंने संन्यास ग्रहण किया तत्पश्चात शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया। उसके बाद समाजसुधार एवं पत्रकारिता से गुजरते हुए वे राजनीति में आ पहुंचे।1

भारतीय राजनीति में स्वामी सहजानन्द सरस्वती एक गांधीवादी के रूप में प्रविष्ट हुए थे अतः गांधीजी की ही तरह उन्होंने असहयोग आन्दोलन (1920) तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन (1930) में सक्रिय भूमिका निभाई। उन्हें कई बार जेलयात्रा भी करनी पड़ी। सन 1920 से 1934 तक स्वामी जी गांधीजी से प्रभावित रहे।2 इसके बाद धीरे-धीरे गांधीवाद और कांग्रेस से उनकी वैचारिक दूरी बढ़ती गई तथा वामपंथ की ओर झुकाव होता गया।3 हालांकि मार्क्सवाद की तकनीकी शब्दावली से परिचित होने से पूर्व ही वे किसानों एवं शोषितों के पक्षधर हो चुके थे।4

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आधारस्तम्भ जमींदारी प्रथा के समूल नाश हेतु राष्ट्रीय स्तर पर किसान आन्दोलन सक्रिय किया गया। फलतः 1935 ई. में मेरठ में वामपंथ की बैठक हुई जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ अखिल भारतीय किसान सभा के गठन का प्रस्ताव पास हुआ। इसका विशेष उत्तरदायित्व स्वामी सहजानन्द सरस्वती, एन.जी. रंगा और मोहनलाल गौतम को सौंपा गया।5

साल 1936 के अप्रैल महीने में स्वामी सहजानन्द सरस्वती की अध्यक्षता में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना लखनऊ में हुई। वहां उपस्थित प्रमुख वामपंथियों में डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, इन्दुलाल याज्ञिक, अच्युत पटवर्धन, सोहनसिंह जोश, मोहनलाल गौतम, कमल सरकार, सुधीर प्रामाणिक आदि थे। वहीं पर कृषकों का एक घोषणापत्र तैयार करने तथा इन्दुलाल याज्ञिक के सम्पादन में एक बुलेटिन निकालने का भी प्रस्ताव पारित हुआ।6

इसका स्पष्ट प्रभाव फैजपुर अधिवेशन (दिसम्बर 1936) के घोषणापत्र में देखने को मिला। फैजपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के सामने कुछ मांगें रखी- भूराजस्व और लगान में 50 फीसदी कृषण ऋणों की वसूली का स्थगन, सामन्ती वसूलियों की समाप्ति, काश्तकारों की बेदखली से सुरक्षा, खेतिहर मजदूरों की जीवन-यापन योग्य मजदूरी और किसान भूस्वामियों को मान्यता7 वहीं 14-15 जुलाई 1937 को अखिल भारतीय किसान सभा ने विधान गठित कर लाल झंडे को किसान सभा के झंडे के रूप में स्वीकृति प्रदान कर दी।8

फैजपुर अधिवेशन के बाद किसान सभा के द्वारा लाल झंडे के प्रश्न पर काफी वाद-विवाद हुआ। कांग्रेसी नेताओं ने बड़ी चेष्टा की कि किसान सभा कांग्रेसी तिरंगे झण्डे को अपना ले किन्तु किसान सभा ने लाल झंडे को बनाए रखकर किसानों एवं मजदूरों के साथ एकता का मार्ग अपनाए रखने का निर्णय लिया।9

किसान आन्दोलन के प्रचार-प्रसार हेतु स्वामीजी ने 1938 में गुजरात की यात्रा की। उस यात्रा ने किसान आन्दोलन के हिमायती और बारदोली किसान सत्याग्रह से प्रसिद्धि पा चुके वल्लभभाई पटेल और स्वामी सहजानन्द सरस्वती के बीच गहरा मतभेद पैदा कर दिया। स्वामीजी ने वहां जाकर देखा कि बारदोली सत्याग्रह तो मात्र 10 से 15 फीसदी मध्यम श्रेणी के किसानों तथा धनी किसानों तक ही सीमित था। वहां के असली किसान तो रानीपरज, दुबला और हाली कहे जाते हैं, जिनकी जमीन छिनकर 10-15 फीसदी लोगों के हाथों में चली गई है। जहां वल्लभभाई पटेल वर्गसामंजस्य के हिमायती थे वहीं स्वामी सहजानन्द सरस्वती वर्गसंघर्ष के समर्थक थे। गांधीजी, पटेल और कांग्रेस पार्टी तीनों ही किसानों की उच्च श्रेणी और मध्यम श्रेणी का समर्थन कर रहे थे लेकिन स्वामीजी निम्न श्रेणी के किसानों के साथ थे।10

स्वामी सहजानन्द सरस्वती और सरदार वल्लभ भाई पटेल के बीच का मतभेद उस समय स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ा जब 1938 ई. के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस ने अपने अध्यक्षीय भाषण में अखिल भारतीय किसान सभा का समर्थन किया। साल 1939 में त्रिपुरी अधिवेशन के राजनीतिक घटनाक्रम के बाद गांधीजी से निराश होकर जब सुभाषचन्द्र बोस ने फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। तब से स्वामी सहजानन्द के गांधीवाद से मोहभंग, वामपंथी एकता और वर्गसंघर्ष के कारण सुभाषचन्द्र बोस और स्वामीजी के बीच वैचारिक प्रगाढ़ता बढ़ती गई।11

स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने सभी साम्राज्यवाद विरोधी तथा प्रगतिशील तत्वों को एक झंडे के नीचे एकत्र करने के लिए वामपंथी एकीकरण समिति (लेफ्ट कन्सोलिडेशन कमिटी) का गठन किया।12 तत्कालीन अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी ने यह प्रस्ताव पारित किया कि प्रान्तीय कांग्रेस की अनुमति के बिना कोई सत्याग्रह न करे और न ही प्रान्तीय समितियां मंत्रियों के रास्ते में दिक्कत डालें। इसका सीधा अर्थ था कि बिहार का किसान सत्याग्रह बन्द करना और कांग्रेस को मंत्रियों के अधीन कर उस पर वैधानिकता की छाप लगाना। अतः वामपंथी समिति ने इन दोनों प्रस्तावों का विरोध किया और स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने पटना में जमकर विरोध दिवस मनाया।13 ऐसे में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी ने सुभाषचन्द्र बोस और स्वामी सहजानन्द सरस्वती को कांग्रेस से निकाल दिया। महात्मा गांधी ने भी इसको अपनी स्वीकृति दे दी।14

इसके पहले 1937 में बिहार प्रान्त की असेम्बली के चुनाव में उम्मीदवारों के चयन के लिए एक समिति बनी थी। स्वामीजी भी उसके सदस्य थे। उम्मीदवारों के चुनाव में गरीबों, राष्ट्रवादियों और निष्ठावान कांग्रेसियों की उपेक्षा से झुब्ध होकर स्वामीजी ने चुनाव समिति से त्यागपत्र दे दिया। हांलाकि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के कहने पर कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर स्वामीजी ने इस्तीफा वापस ले लिया। किसान सभा के सहयोग से कांग्रेस ने बिहार में शानदार जीत हासिल की। परन्तु कांग्रेस का मंत्रीमण्डल बनते ही नेताओं का अमीरपरस्त चेहरा सामने आने लगा अतः सरकार का पर्दाफाश करने के लिए स्वामीजी ने दी ‘अदर साइड आफ दी शील्ड’ तथा ‘रेन्ट रिडक्शन इन बिहारः हाउ इट वर्क्स एन एक्सपोजर आफ गवर्नमेन्ट क्लेम’ नामक दो पुस्तिकाएं लिखीं।15

यूरोपीय युद्ध छिड़ने पर कांग्रेस की समझौतावादी नीति से परेशान होकर 1940 ई. में स्वामीजी ने रामगढ़ (बिहार) में समझौता विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया जबकि वहीं पर अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। समझौता विरोधी सम्मेलन की अध्यक्षता सुभाष बाबू ने की। स्वामी सहजानन्द सरस्वती उसके स्वागताध्यक्ष थे। उस सम्मेलन में इन दोनों विभूतियों के अतिरिक्त प्रो. एन.जी. रंगा, सोली बाटलीवाला, किशोरीप्रसन्न सिंह, अशर्फुद्दीन अहमद चौधरी, कुसुमली मियां अकबर शाह, सोमनाथ लाहिड़ी, हरिविष्णु कामथ, पदमकान्त मालवीय, रामकृष्ण खत्री, अन्नपूर्णा जी और शीलभद्र यात्री आदि प्रमुख वामपंथी नेताओं ने शिरकत की। चूंकि यह सम्मेलन कांग्रेस के सम्मेलन से अधिक सफल रहा ऐसे में कांग्रेस ने इस सम्मेलन का जमकर विरोध किया।16 इसी बीच स्वामी सहजानन्द सरस्वती पर राजद्रोह का मुकदमा चला और वे अप्रैल 1940 से मार्च 1942 तक हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में कैद रहे।17

हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में कैद रहने की अवधि में स्वामी सहजान्द सरस्वती ने अपने विचारों को ठोस रूप देते हुए मेरा जीवन संघर्ष, किसान कैसे लड़ते हैं, किसान क्या करें, किसान सभा के संस्मरण, खेतमजदूर, झारखण्ड के किसान, क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा तथा गीताह्दय शीर्षक से कई पुस्तकें लिखीं।18 जेल से रिहा होने के बाद स्वामीजी ने अगस्त क्रान्ति के दौरान साम्राज्यवादियों द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन पर हमले के विरोध, किसानों और मजदूरों के अधिकारों की रक्षा, राष्ट्रीय नेताओं की रिहाई, अन्न-वस्त्र संकट के हल एवं राष्ट्रीय सरकार के निर्माण के लिए किसान सभा के मंच से जोरदार आन्दोलन चलाया।19

इस प्रकार स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने कांग्रेस में रहते हुए वामपंथी मोर्चे के साथ मिलकर किसानों एवं मजूदरों के प्रश्न को राष्ट्रीय राजनीति में नई पहचान दी। उन्होंने आगे चलकर मार्क्सवाद का अध्ययन किया। उनके अनुभवों से मार्क्सवाद की स्थापनाएं मेल खाती थीं।20 स्वामीजी ने मार्क्सवाद को भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप बनाने के लिए उसमें मौलिक परिवर्तन किए। हांलाकि उन्होंने कभी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता नहीं ग्रहण की। 1948 तक वे कांग्रेस में ही रहे। उनका साध्य मार्क्सवाद नहीं था, वह तो किसान-मजूदर राज्य की स्थापना का एक साधन मात्र था।21

स्वामीजी ने स्पष्टरूप से कहा कि “किसान ही मेरे भगवान हैं और मैं उन्हीं की पूजा किया करता हूं और यह तो मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई मेरे भगवान का अपमान करे।” 22  साम्यवादियों ने 1944 ई. में स्वामीजी को किसान सभा का अध्यक्ष तो बना दिया लेकिन किसान सभा पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए केन्द्रीय कार्यालय को स्वामीजी के आश्रम बिहटा (पटना के पास) से हटाकर मुम्बई स्थानान्तरित कर दिया और कट्टर साम्यवादी बंकिम मुखर्जी को इस संस्था का महासचिव बना दिया।23

स्वामीजी ने यह अनुभव किया कि कम्युनिस्ट पार्टी किसान सभा को मात्र अपना शो पीस बनाकर रखना चाहती है। अतः 1945 में किसान सभा का सम्बन्ध कम्युनिस्ट पार्टी से तोड़कर उन्होंने बिहार तथा अखिल भारतीय स्तर पर किसान सभा को पुनर्गठित किया। अब वे कम्युनिस्टों को किसान सभा का हमदर्द न समझकर विश्वासघाती मानने लगे थे। 24

15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ लेकिन स्वामी जी प्रारम्भ से ही इस विभाजित स्वतंत्रता के विरोधी थे। 25 स्वामीजी के अनुसार कांग्रेस उन योगियों की संस्था रही जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। अब यह भोगसंस्था हो गई है। अतः 6 दिसम्बर 1948 को स्वामी जी ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और ‘महारूद्र का महाताण्डव’ जैसी जवलन्त रचना के माध्यम से शोषित एवं पीड़ित जनता की क्रान्ति के प्रति अपनी गहरी आस्था का उद्घोष किया। 26

फरवरी, 1948 में पटना में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें सोशलिस्ट पार्टी को छोड़कर 18 वामपंथी दल शामिल हुए तत्पश्चात अक्टूबर 1949 में स्वामी जी के प्रयत्नों से संयुक्त समाजवादी दल की स्थापना की गई जिसमें नेहरू सरकार को हटाकर किसान-मजदूरों एवं विपन्न मध्यमवर्गीयों की सरकार स्थापित करने का आह्वान किया। स्वामी जी अपने इन विचारों को साकार रूप में परिणित करने से पूर्व ही  26 जून 1950 को दिवंगत हो गए।27

गौरतलब है कि स्वामी सहजानन्द सरस्वती भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता ही नहीं वरन किसान-मजूदर आन्दोलन के प्रेरणास्रोत भी थे। वे आधुनिक युग के एक महान संन्यासी थे जिसने भारत के किसानों एवं उपेक्षितों के मौलिक अधिकार के लिए आजीवन संघर्ष किया।

सन्दर्भग्रन्थ-सूची

1- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, किसान कैसे लड़ते हैं?, ग्रन्थशिल्पी प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 2002 (प्रथम संस्करण, 1941), पृष्ठ-1

2- डॉ. वैद्यनाथ पाण्डेय, स्वामी सहजानन्द सरस्वतीः व्यक्तित्व एवं कृतित्व, किताब महल, इलाहाबाद, 1997, पृष्ठ-100

3- वही              ,,                                 ,,                                        पृष्ठ-100

4- राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘किसान और स्वतंत्रता संग्राम’, में प्रख्यात साहित्यकार श्री कुबेरनाथ राय का निबन्ध, स्वामी सहजानन्द सरस्वती हितकारी समाज, 109जी., आराम बाग, नई दिल्ली, 1998, पृष्ठ-57

5- त्रिवेणी शर्मा सुधाकर, स्वामी सहजानन्द सरस्वती : जीवनझांकी और क्रान्तिकारी वामपंथी विचारधारा, अखिल भारतीय स्वामी सहजानन्द विचारमंच, राजेन्द्र पथ, गया( बिहार), 2001, पृष्ठ-69

6- विपिन चन्द्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, नई दिल्ली, पुनर्मुद्र्ण, 2001, पृष्ठ-278

7- वही,                                                  ,,                                              ,,     पृष्ठ-278

8- त्रिवेणी शर्मा सुधाकर, वामपंथ और स्वामीजी, मुजफ्फरपुर, 1989, पृष्ठ-164

9- रामलखन शुक्ल, आधुनिक भारत का इतिहास, दिल्ली विश्वविद्यालय, 2003, पृष्ठ-739

10- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, मेरा जीवन संघर्ष, पृष्ठ-325

11- त्रिवेणी शर्मा सुधाकर, स्वामी सहजानन्द सरस्वतीः जीवनझांकी और क्रान्तिकारी वामपंथी विचारधारा, राजेन्द्र पथ, गया (बिहार), 2001, पृष्ठ-73

12- बी. एल. ग्रोवर, आधुनिक भारत का इतिहास, एस चन्द एंड कम्पनी, नई दिल्ली, 2001, पृष्ठ-344

13-स्वामी सहजानन्द सरस्वती, मेरा जीवन संघर्ष, पृष्ठ-335-336

14- डॉ. वैद्यनाथ पाण्डेय, स्वामी सहजानन्द सरस्वतीः व्यक्तित्व एवं कृतित्व, किताब महल, इलाहाबाद, 1997, पृष्ठ-174

15- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, किसान कैसे लड़ते हैं?, ग्रन्थशिल्पी प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 2002 (प्रथम संस्करण, 1941), पृष्ठ-12

16- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, मेरा जीवन संघर्ष, पृष्ठ-334

17- डॉ. राधाकृष्ण शर्मा,  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में किसानों की भूमिका, स्वामी सहजानन्द सरस्वती हितकारी समाज, नई दिल्ली की स्मारिका, जून 1978, पृष्ठ-138

18- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, किसान कैसे लड़ते हैं?, ग्रन्थशिल्पी प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 2002 (प्रथम संस्करण, 1941), पृष्ठ-13

19- डॉ. रामकिशोर चौधरी, ज्योतिकलश, पृष्ठ-165

20- रेणु शर्मा, ओंकार से हुंकार तक, राहुल प्रेस, पटना, 1990, पृष्ठ-100

21- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, मेरा जीवन संघर्ष, पृष्ठ-282

22- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, अब क्या हो? स्वामी सहजानन्द सरस्वती स्मृति केन्द्र, गाजीपुर के मुखपृष्ठ से उद्धृत

23- क्म्युनिस्ट सर्वे नं.-4, 30 जून, 1945

24- प्रख्यात साहित्यकार कुबेरनाथ राय, पुनर्जागरण का श्लाकापुरूष : स्वामी सहजानन्द सरस्वती, स्वामी सहजानन्द सरस्वती स्मृति केन्द्र, बड़ी बाग, गाजीपुर, पृष्ठ-27

25- त्रिवेणी शर्मा सुधाकर, स्वामी सहजानन्द सरस्वती : जीवनझांकी और क्रान्तिकारी वामपंथी विचारधारा, राजेन्द्र पथ, गया (बिहार), 2001, पृष्ठ-11

26- स्वामी सहजानन्द सरस्वती, किसान कैसे लड़ते हैं?, ग्रन्थशिल्पी प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 2002 (प्रथम संस्करण, 1941), पृष्ठ-14

27- डॉ. अवधेश प्रधान, अब क्या हो? की भूमिका से उद्धृत, स्वामी सहजानन्द सरस्वती स्मृति केन्द्र, बड़ी बाग, गाजीपुर, संवत 2057, पृष्ठ-29

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