सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक शारीरिक रूप से पुष्ट और शक्तिशाली था। उसे अरबी, फारसी, गणित, नक्षत्र विज्ञान, भौतिक शास्त्र, तर्कशास्त्र, दर्शन तथा चिकित्साशास्त्र आदि का अच्छा ज्ञान था। वह एक अच्छा कवि, लिखने तथा वार्तालाप की कला में निपुण था। उसे विभिन्न ललित कलाओं तथा संगीत से प्रेम था। उसकी बुद्धि कुशाग्र थी तथा स्मरण शक्ति अच्छी थी। वह गरीबों की सहायता भी किया करता था। उसके शाही भोजनालय में प्राय: चालीस हजार व्यक्ति प्रतिदिन भोजन करते थे। बावजूद इसके अपने 26 वर्ष के शासनकाल में जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हुआ। उसके द्वारा लागू की गई योजनाओं से राज्य को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा तथा प्रजा को असहनीय कष्ट और असंतोष का सामना करना पड़ा।
सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं जब असफल होती थीं तो वह संयम खोकर कठोर दण्ड देता था और फिर परिस्थितियों से बाध्य होकर वह उन्हें त्याग भी देता था। जब वह अपनी प्रजा और अधिकारियों का सहयोग प्राप्त करने में असफल होता था तब क्रोधित होकर सभी को नीच और बेईमान मान लेता था। जबकि अपनी असफलता का मूल कारण वह स्वयं ही था। इसी वजह से इतिहासकार एलफिन्स्टन का मत है कि ‘मुहम्मद बिन तुगलक में पागलपन का अंश था’। वहीं इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है कि उसमें ‘विरोधी तत्वों’ का मिश्रण था।
‘तुगलकी फरमान’ से त्रस्त थी जनता
मध्ययुगीन शासकों में चरित्र और कार्यों की दृष्टि से अन्य कोई शासक इतना विवादपूर्ण नहीं है जितना मुहम्मद बिन तुगलक। तत्कालीन तीन प्रख्यात विद्वानों इसामी, बरनी और इब्नबतूता ने उसके बारे में रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है। मुहम्मद बिन तुगलक ने प्रजाहित के लिए प्रयोगधर्मी निर्णय लिए लेकिन जल्दबाजी और धैर्य की कमी के चलते वह अपनी सभी योजनाओं में असफल साबित हुआ। इसीलिए भारतीय इतिहास में उसे ‘बुद्धिमान मूर्ख राजा’ भी कहा गया है।
दोआब में असाधारण ‘कर’ वृद्धि
डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव के अनुसार, मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी आय में 5 से 10 फीसदी बढ़ोतरी करने के उद्देश्य से दोआब क्षेत्र में असाधारण ‘कर’ वृद्धि की। बरनी के कथनानुसार, ‘कर’ में दस या बीस गुना बढ़ोतरी की गई। जबकि फरिश्ता के मुताबिक, यह ‘कर’ तीन या चार गुना अधिक किया गया। सुल्तान ने दोआब में भूमिकर के अलावा मकानों तथा चरागाहों आदि पर भी कर लगाया। खैर वास्तविकता जो कुछ भी हो, लेकिन हैरानी की बात यह है कि उसने जिस समय दोआब में कर वृद्धि की उस समय वहां भयंकर सूखा और अकाल पड़ रहा था। ऐसे में अधिकांश किसानों ने कृषि छोड़कर चोरी-डकैती का पेशा अपना लिया था।
बावजूद इसके सुल्तान के अधिकारियों ने दोआब की जनता से कठोरता से ‘कर’ वसूले जिससे अनेक जगहों पर विद्रोह हो गए। अत: सुल्तान ने बड़ी कठोरता से इन विद्रोहों को कुचलवाया। इतिहासकार बरनी लिखता है कि “हजारों व्यक्ति मारे गए, सुल्तान के अधिकारियों ने विद्रोही लोगों को जंगली जानवरों की भांति अपना शिकार बनाया।” इतिहासकार सतीशचन्द्र अपनी किताब ‘मध्यकालीन भारत’ में लिखते हैं कि भयंकर अकाल के चलते दिल्ली में ही इतने लोग मरे कि हवा भी महामारक हो उठी थी। ऐसे में मुम्मद बिन तुगलक दिल्ली छोड़कर कन्नौज के पास गंगा के किनारे ‘स्वर्गद्वारी’ नामक शिविर में रहा। इस प्रकार सुल्तान की इस नीति से उसकी आय में कोई वृद्धि नहीं हुई बल्कि वह अपनी प्रजा में अत्यधिक बदनाम हो गया।
राजधानी परिवर्तन का निर्णय (दिल्ली से दौलताबाद)
वर्ष 1326-27 में मुहम्मद बिन तुगलक ने दौलताबाद को अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। आश्चर्यजनक बात यह है कि इस प्रकिया में उसने दिल्ली की समस्त जनता को भी दौलताबाद जाने के आदेश दिए जिससे दिल्ली उजाड़ हो गई। इतिहासकार बरनी लिखता है कि “सब कुछ बर्बाद हो गया, तबाही इतनी भयानक थी कि शहर की इमारतों, महलों तथा आसपास के क्षेत्रों में एक बिल्ली अथा कुत्ता भी दिखाई नहीं देता था।” इतिहासकार इसामी के अनुसार, 1335 ई. में ही सुल्तान ने व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार दिल्ली वापस जाने की आज्ञा भी दे दी थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि राजधानी से दौलताबाद तक 40 दिनों की 700 मील लम्बी यात्रा के दौरान दिल्ली के नागरिकों को अत्यन्त कष्टों का सामना करना पड़ा होगा।
सांकेतिक मुद्रा (चांदी की जगह तांबे-पीतल के सिक्के) का प्रचलन
मुहम्मद बिन तुगलक ने राजकोष में धन की कमी पूरी करने तथा साम्राज्य विस्तार के उद्देश्य से सांकेतिक मुद्रा के रूप में तांबे व पीतल के सिक्के चलवाए। परन्तु इन सिक्कों पर कोई भी शाही निशान अंकित नहीं होने के कारण इनकी नकल करना बेहद आसान था। अत: लोगों ने इसका लाभ उठाकर खुद ही नकली सिक्के बनाने शुरू कर दिए और अपने घरों में चांदी और सोने के सिक्के एकत्र करने लगे। जाहिर सी बात है अपनी इस योजना को असफल होते देख सुल्तान ने सभी सांकेतिक मुद्रा को वापस लेने के आदेश दिए। ऐसे में सरकारी टकसालों में तांबे और पीतल के नकली सिक्कों के ढेर लग गए। अत: इससे राज्य की आर्थिक क्षमता दुर्बल हुई।
सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की अजीबोगरीब हरकतें
सुल्तान बनने के 15 साल बाद मुहम्मद बिन तुगलक ने मिस्र के खलीफा के एक वंशज गियासुद्दीन मुहम्मद जिसकी स्थिति एक भिखारी के समान थी, दिल्ली बुलाया और उसका अत्यधिक सम्मान किया। इसके अतिरिक्त स्वयं निवेदन करके अपनी गर्दन पर उसका पैर रखवाया तथा उसे अमूल्य वस्तुएं एवं जागीर भेंट में दी।
दिल्ली के काजी इब्नबतता के मुताबिक, दिल्ली के नागरिक सुल्तान को असम्मानपूर्ण पत्र लिखते थे। सर वूल्जले हेग ने भी इब्नबतूता के इस मत को स्वीकार किया है। इब्नबतूता ने यह भी लिखा है कि “मुहम्मद बिन तुगलक एक ऐसा व्यक्ति है जिसके द्वार पर किसी निर्धन को धनवान बनते हुए अथवा जीवित व्यक्ति को मृत्यु के मुख में जाते हुए किसी भी समय देखा जा सकता है।” वहीं इतिहासकार बरनी ने लिखा है कि “सुल्तान ने निरपराध मुसलमानों का रक्त इतनी क्रूरता से बहाया कि सर्वदा उसके महल के दरवाजे पर खून का दरिया देखा जा सकता था।”
सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक अनेक अवसरों पर साधारण अपराधों के लिए भी मृत्युदण्ड देता था अथवा बेहद क्रूरतापूर्वक व्यवहार करता था। एक अवसर पर उसने अपने एक अधिकारी के पुत्र से 21 बेतों की सजा खाई थी। वहीं सुल्तान यह सुनने को बिल्कुल भी तैयार नहीं था कि सम्पूर्ण पृथ्वी पर ऐसा कोई भू प्रदेश है, जिस पर उसका आधिपत्य न हो।
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