स्टोरी तब शुरू होती है जब राजपूताना के अनेक राजपूत शासकों ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली थी। पूरे राजपूताना में केवल महाराणा प्रताप ही एक ऐसे शख्स थे जो अपनी स्वाधीनता का शंखनाद कर रहे थे। सम्भवत: मुगल बादशाह अकबर भी महाराणा प्रताप के स्वाभिमानी विचारों से पूर्णत: परिचित था। इसलिए सैन्य शक्ति का प्रयोग करने से पहले उसने शान्तिपूर्ण तरीके से अपनी स्वाधीनता स्वीकार कराने का प्रयास किया। महाराणा प्रताप के राज्याभिषेक के ठीक चार महीने बाद ही बादशाह अकबर ने अपने विश्वनीय और वाकचतुर दरबारी जलाल खां को महाराणा प्रताप के पास भेजा, परन्तु जलाल खां अपने उद्देश्यों में असफल रहा।
इसके बाद अकबर ने सोचा कि महाराणा प्रताप की ही जाति का कोई प्रभावशाली व्यक्ति इस महत्वपूर्ण काम के लिए उपयुक्त सिद्ध हो सकता है अत: उसने साल 1573 ई. में मुगल सेनापति मानसिंह (आमेर के राजकुमार) को महाराणा प्रताप से मिलने के लिए भेजा। परन्तु महाराणा प्रताप ने अकबर की सत्ता स्वीकार करने तथा मान सिंह के साथ शाही दरबार में उपस्थित होने से साफ इनकार कर दिया।
बावजूद इसके ठीक सात महीने बाद अकबर ने अपना तीसरा राजदूत मंडल आमेर के राजा भगवन्त दास के नेतृत्व में भेजा लेकिन भगवन्त दास भी अपने उद्देश्य में नाकाम रहे। अकबर ने चौथा प्रयास किया और राजा टोडरमल को दिसम्बर 1573 में महाराणा प्रताप के पास भेजा लेकिन प्रताप के विचारों में कोई अन्तर नहीं आया था। जहां अकबर साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा से लबरेज था वहीं महाराणा प्रताप स्वाधीनता और स्वाभिमान की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। ऐसे में मुगल बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप के बीच महायुद्ध होना अनिवार्य हो गया।
महाराणा प्रताप द्वारा युद्ध की तैयारी
महाराणा प्रताप इस बात को भलीभांति जानते थे कि मुगल बादशाह अकबर के चार आधीनता प्रस्तावों को ठुकराने का परिणाम सिर्फ और सिर्फ युद्ध है। अत: सम्भावित खतरे को देखते हुए उन्होंने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। महाराणा प्रताप ने मेवाड़ प्रदेश के उर्वरा क्षेत्र वाले कुम्भलगढ़ और कैलवाड़ी की प्रजा को पहाड़ों की तरफ जाने को कहा। इसके साथ ही केन्द्रीय मेवाड़ में किसी प्रकार का अनाज पैदा नहीं करने का आदेश दिया। दरअसल महाराणा प्रताप के इस उद्देश्य के पीछे योजना यह थी कि भीतरी गिर्वा प्रदेश तथा मुगल अधिकृत प्रदेश के बीच संचार और यातायात व्यवस्था भंग कर दी जाए जिससे गिर्वा क्षेत्र की तरफ बढ़ने वाली मुगल सेना को खाद्य सामग्री और चारा मिलने की सम्भावना बिल्कुल खत्म हो जाए।
महाराणा प्रताप ने अपने विश्वनीय सामन्तों तथा भीलों की मदद से कुम्भलगढ़ तथा गोगुन्दा में सुदृढ़ किलेबंदी की तथा भावी युद्ध के लिए सतर्क और तैयार रहने का भी आदेश दिया। इतना ही नहीं, महाराणा प्रताप ने अपनी सेना तथा प्रजा का मनोबल बढ़ाने के लिए चित्तौड़ पर अधिकार नहीं होने तक अपने एश्वर्यपूर्ण जीवन को तिलांजलि दे दी तथा भोजन के लिए सोने व चांदी के पात्रों का उपयोग बन्द कर दिया।
अकबर ने मानसिंह को सौंपा मुगल सेना का नेतृत्व
अबुल फजल लिखता है कि “मानसिंह अपनी बुद्धिमानी, स्वामीभक्ति और साहस में अद्वितीय था, इसलिए अकबर ने महाराणा प्रताप के विरूद्ध एक शक्तिशाली मुगल सेना का नेतृत्व सौंपा। वहीं इतिहासकार वॉन नॉअर के मुताबिक, “अकबर एक राजपूत को राजपूत के द्वारा पराजित करने में अपनी सफलता के लिए अधिक आश्वस्त अनुभव करता था।”
बता दें कि अकबर ने मुगल सेनापति मानसिंह के साथ आसफ खां, गाजी खां, मुजहिद खां, सैय्यद अहमद खां तथा मेहतर खां जैसे अनेक ख्यातिप्राप्त योद्धाओं को भी भेजा। इसके अतिरिक्त हिन्दू मनसबदारों में जगन्नाथ कछवाहा, खंगार माधोसिंह तथा लूणकरण आदि भी मान सिंह के साथ मौजूद थे।
हल्दीघाटी का सामरिक महत्व
हल्दीघाटी का युद्ध मध्यकालीन भारतीय इतिहास में मेवाड़ का थर्मोपल्ली, खमनौर का युद्ध, गोगुन्दा का युद्ध आदि कई नामों से विख्यात है। जबकि सच्चाई यह है कि हल्दीघाटी दर्रे से 4 किमी. दूर रक्त तलाई में यह निर्णायक युद्ध लड़ा गया था। दरअसल हल्दीघाटी का दर्रा इतना संकरा था कि एक साथ दो गाड़ी तक नहीं निकल सकती थीं इसलिए मुगल सेना की संख्याबल को देखते हुए राम सिंह तंवर के सुझाव पर महाराणा प्रताप ने इस युद्ध स्थल को चुना था।
जानकारी के लिए बता दें कि शत्रु संख्या बल कुछ इस प्रकार से था- मेवाड़ के एक सैनिक पर मुगलों के चार सैनिक। यह भी निर्विवाद सत्य है कि जहां मुगल सेना में उत्तम किस्म की हल्की तोपें मौजूद थीं वहीं महाराणा प्रताप की सेना को सिर्फ तलवारों, धनुष-बाण और भालों के सहारे ही युद्ध लड़ना था।
सिवाणा दुर्ग जीतने के बाद अकबर अजमेर पहुंचा और फिर वहां से उसने मानसिंह को एक शक्तिशाली सेना देकर महाराणा प्रताप के विरूद्ध भेजा। 3 अप्रैल 1576 ई. को मानसिंह मुगल सेना के साथ अजमेर से रवाना हुआ। अकबर को यह उम्मीद थी कि शक्तिशाली मुगल सेना को देखकर शायद राणा प्रताप आधीनता स्वीकार कर लेगा। इसीलिए मानसिंह माण्डलगढ़ में दो महीने तक ठहरा रहा। दरअसल मानसिंह का यह भी अभिप्राय रहा हो कि विशाली शाही सेना को देखकर राणा प्रताप धैर्य टूट जाए और वह मुगल सेना पर आक्रमण कर दे, ऐसी स्थिति में माण्डलगढ़ का मैदानी इलाका शाही सेना के लिए अनुकूल सिद्ध होगा। परन्तु महाराणा प्रताप भी मान सिंह के अभिप्राय को समझ चुके थे। अंत में विवश होकर मानसिंह ने माण्डलगढ़ से चलकर हल्दीघाटी के उत्तरी छोर से तकरीबन चार या पांच किमी. दूर स्थित खमनौर के निकट मोलेला गांव में अपना पड़ाव डाला।
इसके बाद महाराणा प्रताप ने 17 जून 1576 ई. को लोहसिंह नामक गांव में अपना पड़ाव डाला। इस स्थान से कुम्भलगढ़ की पर्वत श्रृंखला सिकुड़कर दर्रे का रूप धारण कर लेती है। राजस्थानी ख्यातों के मुताबिक मान सिंह के अधीन मुगल सैनिकों की संख्या 80 हजार थी, जबकि महाराणा प्रताप की सेना में 20 हजार घुड़सवार सैनिक थे।
व्यूह रचना
महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को परम्परागत ढंग से विभाजित किया था। हरावल दस्ते का नेतृत्व हकीम खां सूर, सलूम्बर के रावत किशनदास, सरदारगढ़ के भीम सिंह, बदनौर के रामदास तथा देवगढ़ के रावत सांगा के हाथों में था। वहीं दक्षिण पार्श्व का नेतृत्व ग्वालियर का शासक रामशाह अपने तीनों पुत्रों तथा अन्य योद्धाओं के साथ स्वयं कर रहा था। सेना के बाएं भाग का नेतृत्व मानसिंह झाला अपने सहयोगी सादड़ी के झाला बीदा तथा जालौर के मानसिंह सोनगरा के साथ कर रहा था। स्वयं महाराणा प्रताप अपने घोड़े चेतक पर बैठकर केन्द्रीय भाग से सेना का संचालन कर रहे थे।
दूसरी तरफ मानसिंह ने भी शक्तिशाली मुगल सेना को व्यवस्थित कर रखा था। सेना की अग्रिम पंक्ति में युवा योद्धाओं का नेतृत्व सैय्यद हासिम कर रहा था। इसके पीछे दो अग्रिम दल रखे गए जिसमें एक दल का नेतृत्व जगन्नाथ कछवाहा के हाथों में था। दक्षिण पार्श्व में सैय्यद अहमद और वाम पार्श्व में गाजीखां तथा लूणकरण कछवाहा था। सेना के मध्य भाग में मानसिंह सिंह मौजूद था, जिसके साथ ख्वाजा मोहम्मद, शिहाबुद्दीन, अलीमुराद उज्बेक तथा अन्य कछवाहा सैनिक थे। सेना का पिछला भाग मेहतर खां के अधीन था।
हल्दीघाटी का युद्ध (18 जून 1576 ई.)
18 जून 1576 ई. को मुगल सेना और मेवाड़ी सेना के बीच हुए घमासान युद्ध के प्रारम्भ में महाराणा का आक्रमण इतना भीषण था कि मुगल सैनिक युद्ध मैदान से भाग खड़े हुए। मुगल सेना का एक दस्ता तो बनास नदी के तट से 10-12 मील दूर तक चला गया। हांलाकि राणा अपनी सफलता को स्थायी नहीं बना सका।
ठीक इसी समय राणा के वामपक्ष ने मुगल सेना के दाहिने भाग पर भीषण आक्रमण किया परन्तु सैय्यद खां के नेतृत्व में मुगल सैनिक राजपूतों से लड़ते रहे। तभी चंदावल में मौजूद मेहतर खां यह चिल्लाते हुए आगे बढ़ा कि बादशाह सलामत स्वयं आ पहुंचे हैं। ऐसे में भागते हुए मुगल सैनिक रूक गए और मेवाड़ी सैनिकों से भिड़ गए। अब रक्त तलाई में दोनों सेनाएं आमने-सामने थीं। मान सिंह ने अपना हाथी आगे बढ़ाकर युद्ध को और तेज कर दिया। राणा ने भी अपना हस्तिदल आगे बढ़ाया जिससे दोनों पक्षों के हस्तिदल आपस में भिड़ गए।
इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने अपने एक ही वार से बहलोल खां को घोड़े सहित दो टुकड़ों में चीर दिया। इसके बाद महाराणा प्रताप अपने मुख्य प्रतिद्वंदी मानसिंह से युद्ध करने उसके निकट जा पहुंचे। महाराणा प्रताप का प्रसिद्ध घोड़ा चेतक मानसिंह के हाथी पर जा कूदा। उत्तेजित महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर भाले से प्रहार किया जिसमें महावत तो मारा गया लेकिन मानसिंह ने हौदे में छुपकर इस वार से खुद को बचा लिया। इस दौरान मानसिंह के हाथी के दांतों में लगे खंजर से चेतक की अगली टांगे जख्मी हो गईं। देह जला देने वाली धूप और लू से दोनों तरफ के सैनिक बुरी तरह थक चुके थे, तभी मुगलों की सुरक्षित सेना राणा सेना पर टूट पड़ी। प्रताप को बंदूक की गोली सहित आठ बड़े घाव लगे थे, तीर-तलवार की भी अनगिनत खरोंचें थीं फिर भी वह मुगलों के सामने डटे रहे।
रक्त तलाई के मैदानी इलाके में राजपूत सेना पर शाही सेना भारी पड़ी। मानसिंह को मारकर युद्ध में वापसी करने की महाराणा प्रताप की कोशिश नाकाम रही। अत: मुगल सैनिकों से घिरे घायल महाराणा प्रताप को सुरक्षित रखने के लिए झाला बीदा ने राणा प्रताप के सिर से छत्र खींचकर स्वयं धारण कर लिया, ऐसे में झाला बीदा को राणा समझकर मुगल सैनिक उसी पर टूट पड़े। इसी बीच महाराणा प्रताप अपने सहयोगी हकीम सूर के साथ युद्ध क्षेत्र से बाहर निकलने में समर्थ हुए।
महाराणा प्रताप के युद्ध क्षेत्र से बाहर निकलने के कुछ देर बाद तक युद्ध जारी रहा। लेकिन झाला बीदा के मरते ही युद्ध समाप्त हो गया। इसके बाद राजपूतों की शेष सेना गोगुन्दा के पश्चिम में कोलियारी नामक गांव में पहुंच गई। पांच घंटे तक चले इस युद्ध में दोनों सेनाओं की ओर से 490 सैनिक मारे गए थे।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद मुगल सेना की दुर्दशा
तपती गर्मी में हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था, ऐसे में मुगलों की सेना इतनी थक चुकी थी कि चलने-फिरने की भी शक्ति नहीं रह गई थी। इसी बीच अफवाह फैल गई कि छल के साथ महाराणा पहाड़ों में घात लगाए हुए है। अत: मुगल सेना ने महाराणा और उसकी सेना का पीछा नहीं किया और मान सिंह शाही सेना को लेकर हल्दीघाटी से 11 मील दूर गोगुन्दा चला गया। इसी बीच महाराणा प्रताप ने अपने लोगों को कुछ इस प्रकार से तैनात कर दिया था कि मान सिंह के खेमे तक रसद न पहुंच सके। यहां तक कि बंजारों को भी खाद्य सामग्री लेकर उधर नहीं जाने दिया जाता था। इस परिस्थिति में राणा के सहयोगी भीलों ने शाही सेना की बची खुची रसद को भी लूट लिया। रसद के अभाव में शाही सेना की बड़ी दुर्दशा हो रही थी। बीच-बीच में राणा के छापामार सैनिक शाही सेना पर धावा मारने लगे। इन धावों में दो मुगल सेनापति भी मारे गए। इस प्रकार मुगल सेना गोगुन्दा में तकरीबन 4 महीने तक कैदियों की तरह पड़ी रही। अन्त में राजपूतों तथा भील टुकड़ियों से लड़ती-भिड़ती मुगल सेना अकबर के पास अजमेर पहुंची।
हल्दीघाटी का युद्ध वास्तव में किसने जीता था?
बादशाह अकबर के दरबारी इतिहासकारों के अतिरिक्त आधुनिक भारत के अधिकांश इतिहासकारों ने भी हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल सेना को विजेता बताने की कोशिश की है। जबकि सच्चाई यह थी कि महाराणा प्रताप का हाथी रामप्रसाद के अतिरिक्त मुगलों के हाथ कुछ भी नहीं आया था। मुग़ल केवल रामप्रसाद हाथी को लेकर गांव-गांव घूमे, यह बताने के लिए कि प्रताप हार गया है।
उदयपुर के जगदीश मंदिर से प्राप्त तामपत्रों से यह साबित होता है कि हल्दीघाटी युद्ध के एक साल बाद यानि 1577 ई. में महाराणा प्रताप ने जमीनों के पट्टे जारी किए थे, जिन पर एकलिंगजी के दीवान राणा प्रताप के हस्ताक्षर थे। उन दिनों जमीन के पट्टे जारी करने का अधिकार सिर्फ राजा का होता था अत: स्पष्ट है कि महाराणा प्रताप हल्दीघाटी का युद्ध नहीं हारे थे।
बादशाह अकबर ने महाराणा प्रताप को जिन्दा अथवा मुर्दा पकड़कर लाने को कहा था, परन्तु मुगल सेना इसमें भी असफल रही और प्रताप को अधीन करने की अकबर की अभिलाषा हमेशा के लिए अधूरी रह गई।
इतना ही नहीं, मुगल सेनापति मान सिंह जब मुगल दरबार में पहुंचा तब इस युद्ध के परिणाम से अकबर इतना नाराज था कि उसने ड्योढ़ी बंद करने का फरमान जारी कर दिया। अर्थात सम्बन्धित व्यक्ति अब शाही दरबार में नहीं आ सकता था। अकबर ने मान सिंह और आसफ खां को छह महीने के लिए मुगल दरबार से निष्कासित कर दिया था। यदि मुगल सेना हल्दीघाटी का युद्ध जीती होती तो अकबर अपने सेनापति मान सिंह को पुरस्कृत करना न कि अपने दरबार से निकालने की सजा सुनाता। इन तथ्यों के आधार पर अब आप भी निर्णय कर सकते हैं कि हल्दीघाटी के युद्ध में कौन जीता था अकबर अथवा महाराणा प्रताप।
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