
रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस (1834-86) की स्मृति में की थी। स्वामी विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण परमहंस का असली नाम ‘गदाधर चट्टोपाध्याय’ था। रामकृष्ण का जन्म 18 फरवरी, 1836 ई. में हुगली जिले के एक गांव कामारपुकुर में हुआ था और वे कलकत्ता की एक छोटी सी बस्ती में एक मंदिर के पुजारी थे।
‘दक्षिणेश्वर के स्वामी’ नाम से प्रसिद्ध रामकृष्ण परमहंस मूर्ति पूजा में विश्वास करने के साथ-साथ उसे शाश्वत, सर्वशक्तिमान ईश्वर को प्राप्त करने का एक साधन मानते थे। उन्हें हिन्दू दर्शन में श्रद्धा थी, किन्तु वे शेष धर्मों का भी सम्मान करते थे। रामकृष्ण परमहंस के अनुसार हरि, राम, कृष्ण, ईसा और अल्लाह सब ईश्वर के भिन्न-भिन्न नाम हैं।
रामकृष्ण परमहंस सभी धर्मों की मौलिक एकता में विश्वास करते थे। वे मनुष्य की सेवा को ईश्वर की सेवा मानते थे। रामकृष्ण परमहंस ने तांत्रिक, वैष्णव और अद्वैत साधना पूर्ण करके आखिर में ‘निर्विकल्प समाधि’ की स्थिति को प्राप्त कर लिया और लोग उन्हें ‘परमहंस’ कहने लगे। रामकृष्ण परमहंस ने अपने भाव समाधियों में मां काली, कृष्ण, ईसा मसीह तथा गौतम बुद्ध के दर्शन किए थे।
गले के कैंसर से पीड़ित रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु 16 अगस्त 1886 की सुबह काशीपुर में हुई थी, तत्पश्चात उनके शिक्षाओं की व्याख्या व प्रचार-प्रसार का श्रेय स्वामी विवेकानन्द को ही मिला। 12 जनवरी 1863 में कलकत्ता में जन्में स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम ‘नरेन्द्र दत्त’ था, जो कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक थे। स्वामी विवेकानंद के पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था जो कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील थे। स्वामी विवेकानंद की मां का नाम भुवनेश्वरी देवी था, जो धार्मिक विचारों वाली महिला थीं।
साल 1881 के नवम्बर महीने में स्वामी विवेकान्द आध्यात्मिक जिज्ञासवश रामकृष्ण परमहंस से दक्षिणेश्वर में मिले और प्रभावित होकर उनके प्रमुख अनुयायी बन गए। रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा प्राप्त करने के बाद नरेन्द्र नाथ दत्त ‘विविदिषानन्द’ के नाम से जाने गए। रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात स्वामी विवेकानन्द ने 25 साल की उम्र में संन्यास धारण कर लिया और धार्मिक ग्रन्थों के विशद अध्ययन के साथ ही सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया।
विवेकानन्द ने सर्वप्रथम साल 1887 में कलकत्ता के वाराहनगर में एक टूटे हुए मकान में ‘रामकृष्ण मठ’ को स्थापित किया। साल 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में जाने से पहले राजपूताना के खेतड़ी नरेश अजीत सिंह के आग्रह पर उन्होंने अपना नाम विविदिषानन्द से बदलकर ‘स्वामी विवेकानन्द’ रख लिया।
स्वामी विवेकानन्द नवीन हिन्दू धर्म (Neo-Hinduism) के प्रचारक के रूप में उभरे। साल 1893 में स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के शिकागो शहर गए जहां उन्होंने ‘विश्व-धर्म सम्मेलन’ (Parliament of Religions) में अपना सुप्रसिद्ध भाषण दिया। 1893 में 11 सितम्बर को शिकागो धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिमी संसार के सामने पहली बार भारत की संस्कृति की महत्ता को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया।
स्वामी जी ने कहा “जिस प्रकार सभी धाराएं अपने जल को सागर में लाकर मिला देती हैं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य के सारे धर्म ईश्वर की ओर ले जाते हैं।” उन्होंने कहा कि “पृथ्वी पर हिन्दू धर्म के समान कोई भी धर्म उदात्त रूप से मानव की गरिमा का प्रतिपादन नहीं करता।” शिकागो सम्मेलन के दौरान बड़ी संख्या में लोग स्वामी विवेकानन्द की ओर आकृष्ट हुए।
शिकागो धर्म सम्मेलन में दिए गए स्वामी विवेकानन्द के भाषण के बारे में ‘न्यूयार्क हेराल्ड’ ने लिखा कि “उनको सुनने के बाद हम यह अनुभव करते हैं कि ऐसे ज्ञान सम्पन्न देश में अपने धर्म प्रचारक भेजना कितना मूर्खतापूर्ण है।”
‘न्यूयार्क क्रिटिक’ ने भी स्वामी विवेकानन्द के भाषण के बारे में कुछ इस प्रकार लिखा था- “वे ईश्वरीय शक्ति प्राप्त वक्ता हैं। उनके सत्य वचनों की तुलना में उनका सुन्दर बुद्धिमतापूर्ण चेहरा पीले और नारंगी वस्त्रों से लिपटा हुआ कम आकर्षक नहीं।”
विश्व धर्म सम्मेलन के बाद स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में भ्रमण किया और हिन्दू धर्म का प्रचार किया। साल 1896 में अमेरिका के शिकागो शहर में ही विवेकानन्द ने ‘वेदान्त समाज’ (Vedant society) की स्थापना की।
अमेरिका से लौटने के पश्चात स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं को बढ़ावा देने के लिए 01 मई 1897 को कलकत्ता के पास बेलूर में ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की, जिसे 1909 में सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत कराया गया। प्रारम्भ में रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय कलकत्ता के ‘वेल्लूर’ और अल्मोड़ा के ‘मायावती’ नामक स्थानों पर खोला गया।
स्वामी विवेकानन्द 1899 ई. में दूसरी बार अमेरिका गए। विवेकानंद ने 1901 में न्यूयॉर्क और इंग्लैंड में रामकृष्ण पर दो व्याख्यान दिए, जिन्हें बाद में एक पुस्तक ‘माई मास्टर’ में संकलित किया गया। इसके बाद स्वामी जी भारत लौट आए। स्वामी विवेकानन्द ने ‘मैं समाजवादी हूं’, ‘ज्ञानयोग’, ‘कर्मयोग’ तथा ‘राजयोग’ नामक प्रख्यात पुस्तकें लिखीं। स्वामी विवेकानन्द ने दो समाचार पत्रों का सम्पादन भी किया- पहला अंग्रेजी भाषा में ‘प्रबुद्ध भारत’, तथा दूसरी बंगाली में ‘उदबोधन’ ।
रामकृष्ण मिशन के सिद्धान्तों का आधार वेदान्त दर्शन है। रामकृष्ण मिशन के प्रमुख सिद्धान्त थे — 1. ईश्वर निराकार, मानव वृद्धि से परे और सर्वव्यापी है। आत्मा ईश्वर का अंश है। 2. सभी धर्म मौलिक रूप से एक हैं किन्तु वे विभिन्न रूपों में ईश्वर तक पहुंचने के अलग-अलग रास्ते मात्र हैं। 3. प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वह यूरोपियन प्रभाव से अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा करे।
रामकृष्ण मिशन मनुष्य की सेवा को ईश्वर की सेवा मानता है, विशेषकर गरीब, कमजोर और अपंग मनुष्यों की सेवा। यही वजह है कि रामकृष्ण मिशन समाज सेवा और परोपकार को सर्वोपरि महत्व देता है। उपरोक्त सिद्धान्त ही रामकृष्ण मिशन के कार्यों का आधार रहा है। जहां एक तरफ स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की उपलब्धियों को प्रकाश में लाए वहीं तात्कालिक भारतीय समाज में व्याप्त संकीर्णता एवं अन्धविश्वासों का बड़े स्पष्ट शब्दों में विरोध किया।
स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दूओं के कर्मकाण्ड, जातीय भेदभाव की भर्त्सना की और स्वतंत्रता-समानता तथा स्वतंत्र चिन्तन का संदेश दिया। स्वामी विवेकानन्द भी अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की भांति महान मानवतावादी थे जो भारत के पिछड़ेपन, पतन एवं उसकी गरीबी से अत्यंत दुखी थे। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक ‘मैं समाजवादी हूं’ में भारत के उच्चवर्ग से अपने पद और सुविधाओं का परित्याग करते हुए निम्नवर्ग के साथ मेल-जोल करने का आह्वान किया।
स्वामी विवेकानन्द ने लिखा कि, “जबकि करोड़ों लोग भूख और अज्ञान से पीड़ित हैं तब तक मैं उस हर व्यक्ति को देशद्रोही समझूंगा जो उनके खर्च से शिक्षित बनकर भी उनके प्रति तनिक भी ध्यान नहीं देता।” स्वामी विवेकानन्द ने यह भी कहा था, “मैं उस व्यक्ति को महात्मा मानता हूं जो निर्धनों के लिए रो देता है, अन्यथा वह दुरात्मा है।”
14 जुलाई 1902 ई. में 39 वर्ष की उम्र में ही विवेकानन्द की मृत्यु हो गई। विवेकानन्द ने कोई राजनीतिक सन्देश नहीं दिया परन्तु अपने लेखों तथा भाषणों द्वारा भारतवासियों में एक नवीन आत्मगौरव की भावना जगाई तथा भारतीय संस्कृति तथा भारत के भविष्य में एक नया आत्मविश्वास पैदा किया। विवेकानन्द की शिष्या सिस्टर निवेदिता (मारग्रेट नोबल) ने हिन्दू धर्म को अन्ध विश्वासों तथा दुर्बलताओं से बचाने तथा उनमें गौरव एवं आत्मविश्वास पैदा करने के विवेकानन्द के प्रयासों को ‘उग्र हिन्दू धर्म’ की संज्ञा दी।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने “स्वामी विवेकानन्द को आधुनिक राष्ट्रीय आन्दोलन का आध्यात्मिक पिता कहा।” इंडियन अनरेस्ट के लेखक वैलेंटाइन चिरोल ने स्वामी विवेकानन्द के उद्देश्यों को राष्ट्रीय आन्दोलन का एक प्रमुख कारण स्वीकार किया।
स्वामी विवेकानन्द द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन की शाखाएं देश के अन्दर और बाहर समाजसेवा में लगी हुई हैं। रामकृष्ण मिशन विद्यालयों, अस्पतालों, अनाथलयों और पुस्तकालयों आदि का भी संचालन करता है। प्राकृतिक विपदाओं के समय भी रामकृष्ण मिशन के द्वारा सहायता कार्य प्रशंसनीय रहा है। भारत सरकार ने साल 1996 में रामकृष्ण मिशन को ‘डॉ. आम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार’ और साल 1998 में ‘गांधी शांति पुरस्कार’ से सम्मानित किया था।
उपरोक्त विशेषताओं के बावजूद रामकृष्ण मिशन कभी भी लोकप्रिय नहीं हो पाया। इसका प्रभाव मध्यम वर्गीय शिक्षित वर्ग तक ही सीमित रहा। आम आदमी के लिए इसकी बोझिल बौद्धिकता शायद इसके प्रसार में आड़े आई, फिर भी, भारतीयों आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान पैदा कर उन्हें राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की ओर प्रेरित करने में रामकृष्ण मिशन सर्वदा अविस्मरणीय रहेगा।
स्वामी विवेकानन्द और रामकृष्ण मिशन से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य
— रामकृष्ण मिशन की स्थापना 1 मई, 1897 को रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख अनुयायी स्वामी विवेकानंद ने की थी।
— रामकृष्ण मिशन धार्मिक-सामाजिक सुधार के लिए समर्पित संगठन है जो अद्वैत वेदांत के साथ-साथ ज्ञान, भक्ति, कर्म और राजयोग का प्रचार करता है।
— स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन अनेक स्कूल, कॉलेज और व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान भी संचालित करता है।
— स्वामी विवेकानन्द ने साल 1887 में कलकत्ता के बारानगर में एक टूटे हुए मकान में ‘रामकृष्ण मठ’ की स्थापना की।
— साल 1899 में बेलूर में एक दूसरा ‘रामकृष्ण मठ’ स्थापित किया जो केंद्रीय मठ बन गया।
— एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्में रामकृष्ण परमहंस के बचपन का नाम ‘गदाधर चट्टोपाध्याय’ था।
— देवी काली के परम भक्त रामकृष्ण परमहंस को ‘दक्षिणेश्वर का स्वामी’ भी कहा जाता है।
— रामकृष्ण परमहंस के पिता का नाम खुदीराम चटर्जी एवं मां का नाम चंद्रमणि देवी था।
— रामकृष्ण परमहंस की पत्नी मां शारदा देवी (मूल नाम शारदामणि मुखोपाध्याय) उनकी आध्यात्मिक साथी थीं।
— स्वामी विवेकानंद की जयंती के उपलक्ष्य में 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है।
— साल 1893 में खेतड़ी नरेश अजीत सिंह के आग्रह पर उन्होंने अपना नाम विविदिषानन्द से ‘स्वामी विवेकानन्द’ रख लिया।
— स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो तथा पेरिस के धर्म संसद में भाग लिया।
— स्वामी विवेकानंद ने साल 1901 में न्यूयॉर्क और इंग्लैंड में रामकृष्ण पर दो व्याख्यान दिए, जिन्हें एक पुस्तक ‘माई मास्टर’ में संकलित किया गया।
— स्वामी विवेकानन्द की मृत्यु 39 वर्ष की उम्र में 14 जुलाई 1902 ई. को बेलूर मठ में हुई थी।
— नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने विवेकानंद को “आधुनिक राष्ट्रीय आन्दोलन का आध्यात्मिक पिता” कहा था।