
कलकत्ता में दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी, महान आत्मवेत्ता और मानव सेवा में ईश्वर की प्राप्ति का उपदेश देने वाले रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य नरेन्द्र नाथ दत्त को पूरी दुनिया स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानती है। साल 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में स्वामी विवेकानन्द के विचार सुनकर पूरी दुनिया हतप्रभ रह गई थी। अमेरिकी मीडिया ने स्वामी विवेकानन्द को ‘साइक्लॉनिक हिन्दू’ नाम दिया था।
वेदान्तिक विद्वान, हिन्दू धर्म प्रचारक, रामकृष्ण मिशन के संस्थापक तथा कर्मयोग, राजयोग, भक्तियोग और वेदांत दर्शन जैसी कई विख्यात पुस्तकों के लेखक स्वामी विवेकानन्द की मृत्यु 4 जुलाई 1902 को हुई। स्वामी विवेकानन्द के शिष्यों के अनुसार, उन्होंने महासमाधि ली थी। जबकि अन्य विद्वानों का कहना है कि स्वामी विवेकानन्द कई असाध्य रोगों से ग्रसित थे और उन्हें दिल का दौरा पड़ा था जिसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई। ऐसे में स्वामी विवेकानन्द की मृत्यु से जुड़े इस रहस्य को जानने के लिए यह रोचक स्टोरी अवश्य पढ़ें।
क्या स्वामी विवेकानन्द को अपनी मृत्यु का आभास था?
स्वामी विवेकानन्द के दो पत्रों से पता चलता है कि उन्हें अपनी मृत्यु का आभास पहले ही हो चुका था। साल 1900 के मार्च महीने में उन्होंने अपनी शिष्या भगिनी निवेदिता को एक पत्र लिखा- “अब मैं काम नहीं करना चाहता बल्कि विश्राम करने की इच्छा है। हांलाकि कर्म मुझे लगातार अपनी तरफ खींचता रहा है। आगे वह लिखते हैं कि मैं अपना आखिरी समय और जगह जानता हूं।”
इसके बाद 27 अगस्त 1901 को स्वामी विवेकान्द अपनी परिचित मेरी हेल को खत लिखते हैं- “एक तरह से अब मैं एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति हूं। आन्दोलन कैसा चल रहा है, इसकी कोई जानकारी नहीं रखना चाहता। खाने-पीने, सोने और बाकी समय शरीर की सेवा करने के अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं करता। विदा मेरी। आशा है इस जीवन में कहीं ना कहीं हम दोनों अवश्य मिलेंगे। यदि नहीं भी मिले तो भी तुम्हारे इस भाई का प्यार तो सदा तुम रहेगा ही।”
इसी के साथ स्वामी विवेकानन्द ने नोबल पुरस्कार से सम्मानित फ्रांसीसी लेखक रोमां रोला से कहा था कि “मैं चालीस साल से ज्यादा नहीं जिऊंगा।” यह सच भी हुआ, जब स्वामी विवेकानन्द की मृत्यु हुई तब उनकी उम्र 39 साल 05 माह और 24 दिन थी।
स्वामी विवेकानन्द की महासमाधि से जुड़ी बातें
स्वामी विवेकानन्द ने अपने देहत्याग से ठीक एक सप्ताह पूर्व अपने एक शिष्य को पंचाग लाने का आदेश दिया था। स्वामीजी ने उस पंचाग को बहुत ध्यान से देखा, मानो किसी चीज के बारे में कोई ठोस निर्णय नहीं ले पा रहे हों। उनकी मृत्यु के पश्चात गुरुभाइयों और शिष्यों को यह आभास हुआ कि शायद वह अपने देह त्यागने की तिथि पर विचार कर रहे थे क्योंकि अपने देहत्याग से पूर्व श्रीरामकृष्ण परमहंस ने भी ऐसे ही पंचाग देखा था।
अपने जीवन के अंतिम दिनों में स्वामी विवेकानन्द ने अपने शिष्यों के बीच यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा कि “यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है हमें एक और विवेकानंद चाहिए। 4 जुलाई 1902 को रोजाना की तरह स्वामी विवेकानन्द ने बेलूर मठ के शांत कमरे में प्रात:काल दो-तीन घंटे तक ध्यान किया, इसके बाद लोगों से हंसी-मजाक करते हुए चाय-काफी भी पी। नाश्ते में हिलसा मछली खाई। दोपहर का भोजन करने के बाद 3 घटें तक लाइब्रेरी में गुजारे। लाइब्रेरी में स्वामीजी ने अपने शिष्यों को पाणिनी की लघुकौमिदी पढ़कर सुनाई।
शाम चार बजे स्वामी विवेकानन्द बेलू बाजार तक टहलने के लिए गए और शाम पांच बजे मठ लौटे। इसके बाद मठ में आम के पेड़ के नीचे बैठकर बोले कि “इतना बेहतर मैंने सालों से महसूस नहीं किया”। इसके बाद धूम्रपान किया और चाय पी। शाम 7 बजे स्वामी विवेकानन्द अपने कमरे में गए और माला लेकर ध्यान में बैठ गए। इसके बाद पौने आठ बजे पूर्वी बंगाल के एक ब्रह्मचारी ब्रजेन्द्र से बोले कि मुझे गर्मी लग रही है, जरा खिड़की खोल दो। स्वामी जमीन पर बने बिस्तर पर लेट गए।
उनका एक शिष्य पंखा झल रहा था, तब उससे कहा कि तुम्हे पंखा झलने की जरूरत नहीं है, हो सके तो मेरे पैर दबा दो। इसके बाद रात्रि 9 बजे स्वामी विवेकानन्द ने एक करवट ली, उनके चेहरे पर पसीना था, हाथ कांप रहे थे। अचानक वो बच्चे की तरह रोने लगे फिर कुछ ही देर में रोना बंद हो गया और वो मुस्कुराने लगे।
स्वामी बोधानन्द ने उनकी नाड़ी चेक की, इसके बाद डॉक्टर महेंद्र मजूमदार को बुलाया गया, तब उन्होंने बताया कि स्वामी विवेकानन्द के दिल ने काम करना बन्द कर दिया है। अगले दिन गंगा नदी के किनारे उसी जगह पर स्वामीजी के पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि की गई, जहां तीन दिन पहले उन्होंने प्रेमानंदजी से बेलूर मठ की एक भूमि की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि वहीं पर उनके शरीर का दाह संस्कार हो। वर्तमान में उसी जगह पर स्वामी विवेकानन्द का मंदिर बना हुआ है।
31 असाध्य रोगों से ग्रसित थे स्वामी विवेकानन्द
मशहूर बांग्ला लेखक शंकर अपनी किताब ‘द मांक एज मैन’ में लिखते हैं कि विवेकानंद ने अपनी मिस्र यात्रा इसलिए रद्द कर दी थी क्योंकि उन्हें अहसास हो गया था कि अब वह अधिक दिन जीविन नहीं रह पाएंगे। अधिक तनाव और भोजन की कमी के कारण साल 1887 में स्वामी विवेकानंद काफी बीमार हो गए थे। उसी दौरान वह पथरी और दस्त से भी पीड़ित हुए। साल 1902 की शुरूआत से ही वह अन्य गम्भीर बीमारियों की चपेट में आ चुके थे।
स्वामी विवेकानंद अक्सर कहा करते थे कि अब मैं बाहरी दुनिया के मामलों में दखल नहीं देना चाहता, यहां तक कि देश-दुनिया के समाचारों पर अब वो कोई प्रतिक्रिया नहीं देते थे। अपनी मृत्यु से ठीक दो महीने पहले उन्होंने अपने सभी शिष्यों को देखने की इच्छा जाहिर की और पत्र लिखकर बेलूर मठ बुलाया। इसी बीच कई बार उन्होंने कहा कि अब मैं मृत्यु के मुंह में जा रहा हूं।
बांग्ला लेखक शंकर की किताब ‘द मांक एज मैन’ के मुताबिक, स्वामी विवेकानन्द 34 साल की उम्र में ही लिवर, डायबिटीज, किडनी, माइग्रेन, अस्थमा, ब्लोटिंग, डिस्पेप्सिया, डायरिया, टॉन्सिलटिस गॉल्सटोन और हार्ट जैसी 31 बीमारियों से ग्रसित हो चुके थे।
वंशानुगत संक्रमण के कारण उन्हें डायबिटिज की बीमारी हुई थी, दरअसल स्वामी विवेकानन्द के पिता को भी डायबिटीज थी। स्वामी विवेकानन्द को जल्दी नींद नहीं आती थी, दरअसल वह निद्रा रोग से भी ग्रसित थे। 29 मई 1897 को स्वामी विवेकानन्द शशि भूषण घोष को एक पत्र में लिखते हैं कि “मैं अपनी जिंदगी में कभी भी बिस्तर पर लेटते ही नहीं सो सका।”
स्वामी विवेकानन्द डायबिटीज की बीमारी से जूझ रहे थे, दुर्भाग्यवश दिनों डायबिटिज की कोई कारगर दवा भी उपलब्ध नहीं थी। यद्यपि उन्होंने अपने रोगों से मुक्ति पाने के लिए एलोपैथिक, होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवाओं का भी सहारा लिया था। सच यह है कि साल 1902 में 4 जुलाई के दिन स्वामी विवेकानन्द को तीसरी बार हार्ट अटैक आया और वह परलोक गमन कर गए।