हिन्दुस्तान के बादशाह शेरशाह सूरी ने एक सैनिक के रूप में बाबर की सेना में काम किया। बाबर की सेना में रहते हुए उसने मुगलों के तौर-तरीकों का बारीकी से अध्ययन किया। 1528 ई. के चन्देरी अभियान में वह बाबर की तरफ से लड़ा था।
शेरशाह सूरी ने चन्देरी युद्ध के दौरान कहा था कि “यदि भाग्य ने उसका साथ दिया तो वह एक दिन मुगलों को हिन्दुस्तान से बाहर खदेड़ देगा।” हुआ भी यही, युद्ध कौशल में माहिर शेरशाह सूरी ने मुगल बादशाह बाबर के बेटे हुमायूं को चौसा और कन्नौज के युद्धों में करारी शिकस्त देकर उसे ईरान भागने के लिए मजबूर कर दिया।
इस प्रकार बाबर के बेटे हुमायूं को 15 वर्षों तक निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ा। हिन्दुस्तान के सिंहासन पर बैठने के बाद शेरशाह सूरी ने बाबर की 14 साल पुरानी डेड बॉडी को आगरा से निकालकर काबुल में दफन किया। अब आप सोच रहे होंगे कि शेरशाह सूरी ने आखिर में ऐसा क्यों किया? इस तथ्य को जानने के लिए यह रोचक स्टोरी जरूर पढ़ें।
शेरशाह सूरी की प्रतिभा से वाकिफ था बाबर
बिहार के शासक बहार खान नुहानी की सेवा से विरक्त होकर शेरशाह सूरी साल 1527-28 में मुगल बादशाह बाबर की सेवा में आगरा चला गया। 29 जनवरी 1528 ई. को मेदिनी राय के विरूद्ध चन्देरी के युद्ध में वह मुगलों की ओर से लड़ा। उसी समय उसने कहा था- “अगर भाग्य ने मेरी सहायता की तो मैं सरलता से मुगलों को एक दिन भारत से बाहर खदेड़ दूंगा”।
इतिहासकार अब्बास खां सरवानी अपनी किताब 'तारीख़-ए- शेरशाही' में लिखता है कि “शेरशाह सूरी एक बार मुगल बादशाह बाबर के साथ खाना खा रहा था। शेरशाह सूरी को खाना खाते हुए देख बाबर ने अपने सबसे ख़ास ख़लीफ़ा से कहा, इसके तेवर देखो। मैं इसके माथे पर सुल्तान बनने की लकीरें देखता हूँ। इससे होशियार रहो और हो सके तो इसे हिरासत में ले लो।” उस वक्त खलीफा ने बादशाह बाबर से कहा कि शेरशाह में वो सब करने की क्षमता नहीं है, जो आप उसके बारे में सोच रहे हैं।
परन्तु शेरशाह सूरी को लेकर बादशाह बाबर की सोच सच साबित हुई। बाबर के मरते ही शेरशाह सूरी ने मुगलों को हिन्दुस्तान से बाहर खदेड़ दिया। बाबर के बेटे हुमायूँ की सेना में 40000 से ज्यादा सैनिक थे जबकि शेरशाह की सेना में कुल 15000 सैनिक थे। फिर भी उसने चौसा (1539 ई.) तथा कन्नौज के युद्ध (1540 ई.) में हुमायूं को करारी शिकस्त दी तथा उसे काबुल होते हुए ईरान भागने पर मजबूर कर दिया। इतना ही नहीं, हुमायूं तकरीबन 15 वर्षों तक भारत आने की हिम्मत नहीं जुटा सका। हांलाकि शेरशाह सूरी की मौत के बाद उसके कमजोर उत्तराधिकारियों का फायदा उठाकर हुमायूं दोबारा हिन्दुस्तान लौट आया।
आगरा के चौबुर्जी में दफन था बाबर
गुलबदन बेगम कृत हुमायूंनामा के अनुसार, “एक बार जब हुमायूं गम्भीर रूप से बीमार पड़ा तब बाबर ने उसकी जिन्दगी के लिए खुदा से दुआ की। बाबर ने हुमायूं के पलंग की परिक्रमा करते हुए कहा कि हुमायूं की बीमारी उस पर आ जाए। कहते हैं, इसके बाद बाबर बीमार पड़ गया और हुमायूं की तबियत सुधरने लगी। आखिरकार 26 दिसम्बर 1530 ई. को बाबर की मौत हो गई।” वहीं कुछ विद्वानों का मानना है कि बाबर की मृत्यु अत्यधिक शराब पीने के कारण हुई थी जबकि कुछ इतिहासकार बाबर की मृत्यु का कारण इब्राहिम लोदी की मां द्वारा दिए गए विष को मानते हैं।
इतिहासकार राजकिशोर राजे अपनी किताब ‘तवारीख-ए-आगरा’ में लिखते हैं कि “बाबर की मृत्यु के बाद उसे अस्थाई रूप से आगरा के चौबुर्जी में दफनाया गया था।” यमुना ब्रिज स्टेशन रोड स्थित चौबुर्जी परिक्षेत्र स्थित बाग में बाबर के समय बड़े-बड़े पेड़ थे और यह हरा-भरा क्षेत्र था। वर्तमान में चौबुर्जी स्मारक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित है लेकिन उपेक्षित है।
काबुल के बाग-ए-बाबर में दफनाया गया बाबर
शेरशाह सूरी से शिकस्त खाने के बाद हुमायूं हिन्दुस्तान छोड़कर ईरान भाग गया। लेकिन उसके पिता बाबर की डेड बॉडी आगरा चौबुर्जी में ही दफन थी। चूंकि बाबर को काबुल से इतना मोह था कि वह मरने के बाद यहीं दफन होना चाहता था। बाबर भारत के सौन्दर्य और ऐश्वर्य से प्रभावित अवश्य था परन्तु वह हमेशा काबुल जाने की बात सोचता था। बाबरनामा के अनुसार, “11 फरवरी 1529 ई. को बाबर अपने एक घनिष्ठ मित्र और सलाहकार ख्वाजा कलां को एक पत्र लिखता है कि जैसे ही यहां सुव्यवस्था हो जाएगी, अल्लाह ने चाहा तो मैं बिना एक क्षण गवाएं काबुल पहुंच जाऊंगा।”
अत: बाबर की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए उसकी मौत के 14 साल बाद यानि 1544 ई. के आस-पास अफगान शासक शेरशाह सूरी उसकी डेड बॉडी को आगरा से लेकर काबुल गया, जहां उसे बाबर के बगीचे में दफनाया गया। वर्तमान में यह जगह बाग-ए-बाबर उद्यान के नाम से मशहूर है। बाग-ए-बाबर उद्यान को खुद बाबर ने 1504 ई. में काबुल जीतने के बाद बनवाया था। काबुल के बाग-ए-बाबर स्थित उसकी कब्र पर लिखा है- “अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।”
काबुल के ‘बाग-ए-बाबर’ में मुगल बादशाह बाबर को इसलिए भी दफनाया गया था क्योंकि इस क्षेत्र का इस्तेमाल उसके पूर्वजों के समय में कब्रिस्तान के रूप में किया जाता था। काबुल स्थित बाग-ए-बाबर मुगल राजवंश के लिए तकरीबन 150 वर्षों तक सम्मान का प्रतीक बना रहा।
ताकतवर मुगल बादशाहों में जहांगीर और शाहजहां ने बाबर की कब्र पर जाकर सम्मान व्यक्त किया। बाबर की कब्र के दक्षिण पश्चिम में बादशाह शाहजहां ने 1645-46 ई. में एक छोटी मस्जिद बनवाई। इसके अतिरिक्त शाहजहां ने बाग-ए-बाबर में फव्वारों का भी निर्माण करवाया। बाग-ए-बाबर में बाबर की पोती रूकैया सुल्तान बेगम (मृत्यु 1626 ई.) की भी कब्रगाह है।
दक्षिण-पश्चिम काबुल में एक पहाड़ी पर स्थित बाग-ए-बाबर में बाबर की कब्र सफेद संगमरमर की एक स्क्रीन से घिरी हुई थी। परन्तु 1990 के दशक में हुए गृह युद्ध के कारण संगमरमर की यह स्क्रीन तकरीबन नष्ट हो चुकी थी। इसके बाद साल 2002 से 2006 के बीच इसका पुनर्निर्माण किया गया।
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