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Sati Pratha was banned in India due to the efforts of Raja Ram Mohan Roy

सती प्रथा की भेंट चढ़ गई भाभी फिर देवर ने इस कुरीति को करवा दिया बैन

18वीं शताब्दी में देश के विभिन्न भागों विशेषकर बंगाल, बिहार और पूर्वांचल में सती प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया था। यदि हम पूर्वांचल की बात करें तो यहां के प्रत्येक गांवों में सती माता का कम से कम एक मंदिर आज भी देखने को मिल ही जाता है।  

समाज के ऊंची जातियों में व्याप्त सती प्रथा के तहत विधवा को पति के शव के साथ चिता पर चढ़ना होता था। कहीं-कहीं तो विधवा को चिता पर जबरन चढ़ा दिया जाता था। जैसे ही विधवा चिता पर चढ़ती थी,  ढोल-नगाड़े बजने लगते थे तथा सती माता की जय के जयकारे लगाए जाते थे।

इस प्रकार इस शोर-शराबे में विधवा महिला का आहत स्वर दब जाता था। ऐसा भी कहा जाता है कि कुछ लोग धन-सम्पत्ति के लालच में भी महिला को चिता की भेंट चढ़ा देते थे। समाज के ठेकेदारों ने हिन्दू धर्म में व्याप्त इस कुरीति को सती प्रथा का नाम दिया था।

अब आपका यह सोचना लाजिमी है, आखिर में कौन था वह शख्स जिसके अथक प्रयासों के बाद अंग्रेजी सरकार ने हिन्दू समाज में व्याप्त इस कुरीति को हमेशा-हमेशा के​ लिए प्रतिबन्धित कर दिया? दरअसल इस घटना के पीछे एक रोचक कहानी छुपी हुई, जिससे जानने के लिए यह स्टोर जरूर पढ़ें।

देश के पहले समाज सुधारक राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय (1774-1833 ई.) को भारतीय पुनर्जागरण का प्रभात तारा’(morning star), ‘भारतीय राष्ट्रवाद का जनक’, ‘बंगाल में नव-जागरण का पितामह तथासुधार आन्दोलनों का प्रवर्तक कहा जाता है। राममोहन राय का जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के हुगली जिले में राधानगर नामक गांव के एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी, फ्रेन्च, लैटिन, ग्रीक तथा हिब्रू जैसी भाषाओं के जानकार राजा राममोहन राय इस्लाम के एकेश्वरवाद, सूफीमत के रहस्यवाद, ईसाई धर्म के नीतिशास्त्र तथा पश्चिम के उदारवादी बुद्धिवाद से प्रभावित थे। राजा राममोहन राय ने शासकीय भाषा के लिए फारसी की जगह अंग्रेजी भाषा का समर्थन किया था ताकि लोगों में नवजागरण आ सके।

राजा राममोहन राय ऐसे पहले भारतीय एवं ब्राह्मण थे, जिन्होंने  ​समुद्र पारकर यूरोप की धरती (इंग्लैण्ड तथा फ़्रांस की यात्रा) पर कदम रखा और हिन्दू रूढ़िवाद के उस मत को तोड़ा कि समुद्र यात्रा करना पाप है। इस वजह से हिन्दू धर्म के कुछ कट्टरपंथी लोगों ने उन पर ब्रिटिश एजेंट होने के आरोप भी लगाए।

सती प्रथा को करवा दिया बैन

पटना तथा वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने के बाद राजा राममोहन राय ने दस वर्ष तक ईस्ट इंडिया कम्पनी में जॉन ​डिग्बी के अधीन भी कार्य किया। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, जातिवाद आदि का जमकर विरोध किया। जबकि विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया। राममोहन राय ने पूर्व और पश्चिम के बीच समन्वय स्थापित करने का भरसक प्रयास किया।

राजा राममोहन राय सती प्रथा के धुर विरोधी थे किन्तु उन्हें इस बात का तनिक भी अहसास नहीं था कि एक दिन उनकी ही भाभी सती प्रथा नामक कुरीति का शिकार बन जाएंगी। राजा राममोहन यूरोप गए हुए थे, तभी साल 1811 में उनके बड़े भाई जगमोहन की एक गम्भीर बीमारी से मौत हो गई।

बड़े भाई जगमोहन की मृत्यु के पश्चात समाज के ठीकेदारों ने राजा राममोहन राय की विधवा भाभी को सती होने के लिए उकसाना शुरू किया। हांलाकि उनकी भाभी सती नहीं होना चाहती थीं, आखिरकार वे ऊंची जातियों में व्याप्त सबसे बड़ी कुरीति सती प्रथा का शिकार बन ही गईं।

फिर क्या था, बड़े भाई के बाद भाभी की मौत से आहत राजा राममोहन राय ने यह निश्चय किया कि अब वह किसी भी महिला को सती प्रथा का शिकार नहीं बनने देंगे। अन्तत: राजा राममोहन राय के प्रयासों से ​ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक ने 4 दिसम्बर 1829 को अधिनियम -17 पारित करके सती प्रथा को पूरे देश में गैरकानूनी घोषित कर दिया।

ब्रह्म समाज की स्थापना

राजा राममोहन राय ने अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए साल 1809 में फारसी भाषा में तुहफात-उल-मुवाहिदीन’ (एकेश्वरवादियों का उपहार) प्रकाशित की। यह मूर्ति पूजा के विरूद्ध एक लेख है। राजा राममोहन राय 1814 ई. में कलकत्ता में रहने लगे, जहां अपने युवा समर्थकों की मदद से हिन्दू धर्म में एकेश्वर मत के प्रचार हेतु 1815 ई. में आत्मीय सभा का गठन किया जिसमें द्वारिकानाथ ठाकुर भी शामिल थे। 

राजा राममोहन राय ने 20 अगस्त 1828 ई. को कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की। राजा राममोहन राय का ब्रह्म समाज उनके द्वारा पूर्व में गठित आत्मीय सभा का ही रूपान्तरण था। आधुनिक पाश्चात्य विचारधारा से प्रभावित ब्रह्म समाज हिन्दू धर्म में पहला सुधार आन्दोलन था। ब्रह्म समाज का प्राथमिक उद्देश्य हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराईयों का खण्डन कर एकेश्वरवाद का प्रचार-प्रसार करना था। हांलाकि ब्रह्म समाज का प्रभाव उच्च वर्ग के शिक्षितों तक ही सीमित रहा। मध्यम वर्ग इसकी तरफ आकर्षित नहीं हुआ।

राजा राममोहन राय पाश्चात्य शिक्षा के समर्थक थे, उन्होंने कहा कि प्राच्य शिक्षा प्रणाली से देश कूप-मण्डूक ही बना रहेगा।राजा राममोहन राय ने साल 1819 में मद्रास के विद्वान सुब्रह्मण्यम शास्त्री को मूर्ति पूजा के प्रश्न पर हुए शास्त्रार्थ में पराजित किया।

साल 1817 में कलकत्ता में हिन्दू कॉलेजकी स्थापना में राजा राममोहन राय ने डेविड हेयर की खूब मदद की थी। हिन्दू कॉलेज को अब हम सभी प्रेसिडेन्सी यूनिवर्सिटी के नाम से जानते हैं। राजा राममोहन राय ने 1825 ई. में वेन्दान्त कॉलेजवेदान्त सोसाइटी की स्थापना की। साल 1821 में राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में यूनिटेरियन कमेटी का गठन किया।

राजा राममोहन राय के पिता रमाकांत राय को भी बंगाल के नवाब से राय रायां की उपाधि मिली थी। वहीं, मुगल बादशाह अकबर द्वितीय ने राममोहन राय को राजा की उपाधि प्रदान की थी। बादशाह अकबर द्वितीय ने ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में अपनी पेन्शन बढ़ाने की बातचीत के लिए राजा राममोहन राय को 1830 ई. में इंग्लैण्ड भेजा था।

राजा राममोहन राय द्वारा प्रकाशित पुस्तकें

1. तुहफात-उल-मुवाहिदीन (एकेश्वरवादियों का उपहार) 2. ईसा के नीति वचन-शांति और खुशहाली (1820 ई.)  3.  हिन्दू उत्तराधिकारी नियम (1822 ई.) 4. प्रीसेप्ट्स आफ जीसस (1823 ई.) 5. ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन 6. संवाद कौमुदी (बंगाली भाषा में)  7. प्रज्ञा का चांद (बंगाली भाषा में8. मिरातुल अखबार (फारसी भाषा में)  9. बुद्धि दर्पण (फारसी भाषा में)

विशेष संवाद कौमुदी किसी भारतीय द्वारा संचालित, सम्पादित तथा प्रकाशित प्रथम भारतीय समाचार पत्र था। 1822 ई. में ई. में शुरू किए गए फारसी साप्ताहिक मिरातुल अखबार में राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं प्रकाशित होती थीं। राजा राममोहन राय ने उपनिषदों का बांग्ला में अनुवाद किया तथा सामाजिक - धार्मिक कुरीतियों का विरोध करने के लिए 1822 ई. में चन्द्रिका नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।

राजा राममोहन राय का निधन

राजा राममोहन राय आजीवन हिन्दू ही रहे और यज्ञोपवीत पहनते रहे किन्तु 1833 ई. में 27 सितम्बर को ब्रिस्टल में उनकी अकाल मृत्यु हो गई। ब्रिस्टल में ही राजा राममोहन राय की समाधि है, जिस पर विग्रहराज चतुर्थ द्वारा रचित हरिकेलि नाटक का अंकन भी है। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने राजा राममोहन राय को युगदूत की उपाधि दी।

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