समुद्रगुप्त न केवल गुप्त वंश के बल्कि प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में गिना जाता है। प्रख्यात इतिहासकार विसेन्ट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को ‘भारत का नेपोलियन’ कहा है। समुद्रगुप्त एक ऐसा अजेय शासक था जिसने उत्तर भारत के नौ राजाओं को पराजित किया जिनमें अच्युत, नागसेन तथा गणपतिनाग प्रमुख थे। समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के बारह नरेशों को भी पराजित किया था। हरिषेण के मुताबिक, “भारत के बाहर विदेशी शासकों पर भी समुद्रगुप्त के पराक्रम का भय छा गया था।” इस स्टोरी में हम आपको यह बताने का प्रयास करेंगे कि समुद्रगुप्त को ‘भारत का नेपोलियन’ क्यों कहा जाता है।
विशाल साम्राज्य का स्वामी था समुद्रगुप्त
चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात उसका सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। वह लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न हुआ था। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पुत्र समुद्रगुप्त के गुणों पर इतना मुग्ध था कि भरी सभा में उसने उसे गले लगाते हुए यह घोषणा की आर्य! तुम योग्य हो, पृथ्वी का पालन करो।
शासक बनने के बाद युद्ध क्षेत्र में स्फूर्ति दिखाने वाले समुद्रगुप्त ने अपनी विजयों के पश्चात एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। समुद्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। प्रयाग प्रशस्ति के शब्दों में "समुद्रगुप्त ने अपने बाहुबल के प्रसार द्वारा भूमण्डल को बांध लिया”। पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।
अपनी विजयों से निवृत्त होने के पश्चात समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। सम्राट समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर उसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ किए जाने का प्रमाण है। इन सिक्कों के मुख भाग पर यज्ञ यूप में बंधे हुए घोड़े का चित्र तथा मुद्रालेख- “राजाधिराजो पृथ्वी विजित्य दिवं जयत्या गृहीतवाजिमेधः ” उत्कीर्ण है, इसका अर्थ है- राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर स्वर्गलोक की विजय करता है। इस सिक्के के पृष्ठ भाग पर राजमहिषी की आकृति के साथ-साथ ‘अश्वमेध पराक्रम’ अंकित है।
समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ सम्राट था जिसने वैदिक धर्म के अनुसार शासन किया। समुद्रगुप्त को धर्म की प्राचीर (धर्मप्राचीरबन्ध:) कहा गया है। समुद्रगुप्त के शासनकाल में ब्राह्मण धर्म का पुनरूत्थान हुआ। उसने ब्राह्मणों को सहस्रों गायें दान में दी थी। समुद्रगुप्त के सिक्कों पर उत्कीर्ण अप्रतिरथ, व्याघ्रपराक्रमांक, पराक्रमांक जैसी उपाधियां उसके गौरवमय जीवन चरित्र का स्पष्ट साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं।
भारत का नेपोलियन क्यों हैं समुद्रगुप्त
समुद्रगुप्त (335-375 ई.) एक महान विजेता था जिसकी दिग्विजय का उद्देश्य प्रयाग प्रशस्ति के शब्दों में ‘सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना था’। प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त की समस्त सामरिक विजयों का विवरण मिलता है।
उत्तर भारत (आर्यावर्त) विजय- आर्यावर्त यानि उत्तर भारत में समुद्रगुप्त ने जिन नौ शासकों को पराजित किया उनमें से अच्युत, नागसेन, गणपतिनाग प्रमुख हैं। अच्युत को अहिच्छन (बेरली), नागसेन को चम्पावती (ग्वालियर), गणपतिनाग विदिशा का शासक माना जाता है। इन विजयों के जरिए समुद्रगुप्त ने मध्यप्रदेश सहित गंगा-यमुना दोआब पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इसके अतिरिक्त प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त द्वारा आटविकों (मथुरा से नर्मदा तक के प्रदेशों के निवासी) पर विजय प्राप्त करने की जानकारी मिलती है।
दक्षिणापथ विजय- प्राचीन भारतीय इतिहास में दक्षिणापथ से तात्पर्य उत्तर में विन्ध्य पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच के प्रदेश से है। सुदूर दक्षिण के तमिल राज्य इसकी परिधि से बाहर थे। समुद्रगुप्त ने जब दक्षिणपथ की ओर विजय यात्रा आरम्भ की तब उसका सामना 12 नरेशों के साथ हुआ। इस विजय अभियान में समुद्रगुप्त कांची तक पहुंच गया था।
दक्षिणापथ विजय अभियान के दौरान समुद्रगुप्त ने जिन 12 राजाओं को परास्त किया उनके नाम निम्नलिखित हैं- कोसल नरेश महेन्द्र, महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज, कौराल नरेश मण्टराज, पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि, कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त, एरण्डपल्ल का राजा दमन, कांची का राजा विष्णुगोप, अवमुक्त का राजा नीलराज, वेंगी का राजा हस्तिवर्मा, पालक्क का राजा उग्रसेन, देवराष्ट्र का राजा कुबेर तथा कुस्थलपुर का राजा धनंजय।
सीमावर्ती राज्यों की विजय- प्रयाग प्रशस्ति की 22वीं पंक्ति में समुद्रगुप्त की सीमावर्ती विजयों का उल्लेख मिलता है। ये सभी राज्य समुद्रगुप्त की पूर्वी, उत्तरी-पूर्वी तथा पश्चिमी सीमाओं पर स्थित थे। इनमें समतट, डवाक, कामरूप जैसे पूर्वी प्रान्तों के सीमावर्ती राज्य तथा मालव, आर्जुनायन, यौधेय, माद्रक, आभीर, प्रार्जून, काक, खार्परीक जैसे गणतंत्रीय राज्य शामिल थे। यहां के राजाओं के विषय में यह कहा गया है कि, “वे समुद्रगुप्त को सभी प्रकार के कर (Tax) देते थे, उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे तथा उसे प्रणाम करने के लिए राजधानी में उपस्थित होते थे।”
विदेशी राज्य- हरीषेण के अनुसार, “भारत के बाहर विदेशी शासकों पर भी समुद्रगुप्त के पराक्रम का भय छा गया था।” चीनी स्रोतों से पता चलता है कि सिंहल द्वीप (श्रीलंका) के राजा मेघवर्ण ने समुद्रगुप्त की आधीनता स्वीकार कर ली थी। उसने समुद्रगुप्त के पास उपहारों सहित एक दूत मण्डल भेजा था। इतना ही नहीं, उसने लंका के बौद्ध भिक्षुओं के लिए एक भव्य विहार बनवाया था।
श्रीलंका के अतिरिक्त दक्षिण पूर्वी एशिया के अन्य द्वीपों ने भी समुद्रगुप्त की आधीनता स्वीकार कर ली थी। बतौर उदाहरण- जावा से प्राप्त ‘तंत्रीकामन्दक’ नामक ग्रन्थ में ऐश्वर्यपाल नामक राजा स्वयं को समुद्रगुप्त का वंशज कहता है।
समुद्रगुप्त ने मुरुण्डों पर भी विजय प्राप्त की थी। स्टेनकोनों के मुतानुसार, मुरुण्ड शब्द चीनी वंग का पर्यायवाची शब्द है जिसका अर्थ-स्वामी होता है। पूर्वी भारत में मुरुण्डों का शक्तिशाली राज्य था। चीनी स्रोतों में उन्हें ‘मेउलुन’ कहा गया है। इसके अतिरिक्त शकों तथा कुषाणों ने भी समुद्रगुप्त की आधीनता स्वीकार कर ली थी। प्रख्यात इतिहासकार कृष्ण चन्द्र श्रीवास्तव के अनुसार, “कुछ कुषाण मुद्राओं पर ‘समुद्र’ तथा ‘चन्द्र’ नाम अंकित है। ठीक इसी प्रकार शकों के कुछ सिक्के भी गुप्त प्रकार के हैं। इनसे शकों तथा कुषाणों पर भी समुद्रगुप्त का प्रभाव स्पष्टत: सिद्ध होता है।” चूंकि समुद्रगुप्त को अपने जीवनकाल में किसी भी पराजय का सामना नहीं करना पड़ा अत: उपरोक्त विजयों पर मुग्ध होकर इतिहासकार विसेन्ट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को ‘भारत का नेपोलियन’ कहना पसन्द किया।
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