संगम के पांच पुत्रों में से हरिहर और बुक्का सर्वप्रथम बारंगल में काकतीयों के सामन्त थे जो बाद में काम्पिली राज्य के मंत्री बने। दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शस्प ने कर्नाटक में विद्रोह कर दिया था। इसके बाद सुल्तान तुगलक ने विद्रोही बहाउद्दीन गुर्शस्प को शरण देने वाले काम्पिली राज्य को रौंद डाला।
काम्पिली विजय के दौरान सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने हरिहर-बुक्का को भी बन्दी बना लिया और उन्हें बन्दी हालत में दिल्ली ले आया। दिल्ली में मुहम्मद बिन तुगलक के दबाव में हरिहर-बुक्का ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। इसके बाद सुल्तान ने हरिहर-बुक्का को मुक्त करके तुगलक सेनापति के रूप में काम्पिली भेजा। इन दोनों भाईयों ने तुगलक सेनाओं की मदद से काम्पिली विद्रोह का दमन कर दिया।
इस दौरान हरिहर-बुक्का महान संत विद्यारण्य के प्रभाव में आए। इसके बाद गुरु विद्यारण्य ने हरिहर-बुक्का की शुद्धिकरण करवाकर उनकी हिन्दू धर्म में पुनर्वापसी करवाई। संत विद्यारण्य के प्रभाव से ही हरिहर बुक्का ने 1336 ई. में दक्षिण भारत के महान साम्राज्य विजयनगर की नींव डाली और स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इस स्टोरी में हम आपको हरिहर-बुक्का के गुरु विद्यारण्य से जुड़ी रोचक जानकारी प्रदान करने की कोशिश करेंगे।
मुहम्मद बिन तुगलक ने हरिहर-बुक्का को बनाया मुसलमान
दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को दक्षिण भारत में सबसे अधिक विद्रोहों का सामना करना पड़ा। इस राजनीतिक अस्थिरता का लाभ सुल्तान तुगलक के अधिकारियों ने भी उठाया। साल 1325 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक के चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शप ने कर्नाटक में सागर नामक स्थान पर विद्रोह कर दिया। बहाउद्दीन गुर्शप के इस विद्रोह को दबाने के लिए सुल्तान को स्वयं दक्षिण की ओर कूच करना पड़ा। मुहम्मद बिन तुगलक के दक्षिण आते ही बहाउद्दीन गुर्शप ने भागकर कर्नाटक के पूर्वोत्तर भागों में बल्लारी और तुंगभद्रा नदी के पास मौजूद कम्पिली राज्य के राजा के यहां शरण ली।
साल 1327-28 में तुगलक की सेनाओं ने काम्पिली को रौंद डाला। स्थिति यह हो गई कि काम्पिली की महिलाओं को जौहर करना पड़ा। आखिर में मुहम्मद बिन तुगलक ने काम्पिली को दिल्ली साम्राज्य में शामिल कर लिया। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत के इस आक्रमण में काम्पिली राज्य पतन हो गया। काम्पिली विजय के दौरान मुहम्मद बिन तुगलक ने हरिहर-बुक्का को बन्दी बना लिया और उन्हें बन्दी हालत में दिल्ली ले आया। सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के दबाव में आकर हरिहर-बुक्का ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।
संत विद्यारण्य ने करवाई हरिहर-बुक्का की हिन्दू धर्म में पुनर्वापसी
काम्पिली विजय के बाद भी दक्षिण में विद्रोहों का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा था। 1327-28 ई. में आन्ध्र प्रदेश के तटवर्ती प्रदेशों में नायकों ने विद्रोह शुरू कर दिया। इसके साथ ही बीदर, दौलताबाद, गुलबर्गा और मदुरा में भी विद्रोह शुरू हो गए। हांलाकि दिल्ली सल्तनत ने इनमें से कई विद्रोहों का दमन कर दिया।
परन्तु 1333 ई. में मदुरा के तुलगक सूबेदार जलालुद्दीन अहसान ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। वहीं होयसलों ने भी अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इस अशांतिजनक स्थिति का लाभ उठाकर काम्पिली में भी विद्रोह शुरू हो गया। इस प्रकार आन्ध प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और आधुनिक महाराष्ट्र के सभी प्रदेशों में तुगलक शासन के विरूद्ध विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी।
इन विद्रोहों से आशंकित होकर सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने हरिहर-बुक्का को मुक्त करके तुगलक सेनापति के रूप में दक्षिण भेजने का निश्चय किया। बतौर तुलगक सेनापति हरिहर-बुक्का ने तुगलक सेनाओं की मदद से काम्पिली के विद्रोहों को शान्त कर दिया। इसी दौरान ये दोनों भाई महान संत विद्यारण के प्रभाव में आए।
महान संत विद्यारण ने हरिहर-बुक्का का शुद्धिकरण किया और उन्हें पुन: हिन्दू बनाया। ऐसा कहा जाता है कि संत विद्यारण्य के प्रभाव में आकर ही हरिहर-बुक्का ने 1336 ई. में दक्षिण भारत के एक महान साम्राज्य विजयनगर की नींव डाली और अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।
हरिहर-बुक्का के गुरु थे महान संत विद्यारण्य
संत विद्यारण्य का प्रारम्भिक जीवन- तुंगभद्रा नदी के तटवर्ती पम्पाक्षेत्र (वर्तमान हम्पी) के एक गांव में 11 अप्रैल 1296 ई. को जन्में संत विद्यारण्य के पिता का नाम मायणाचार्य था। विद्यारण्य के बचपन का नाम माधव था, 1331 ई. में संन्यास ग्रहण करने के बाद उनका नाम विद्यारण्य पड़ा।
संत विद्यारण्य के पिता मायणाचार्य भी वेदों के प्रकाण्ड विद्वान थे तथा उनकी माता भी विदुषी थीं। संत विद्यारण्य के भाई आचार्य सायण भी वेदों के प्रख्यात टीकाकार थे। आचार्य सायण की प्रख्यात रचना का नाम ‘सायणभाष्य’ है।
संत विद्यारण्य की शिक्षा दीक्षा- संत विद्यारण्य के छोटे भाई सायण सच्चे ज्ञान की तलाश में श्रृंगेरी पहुंचे। छोटे भाई की तलाश में घर से निकले विद्यारण्य भी श्रृंगेरी पहुंचे जहां कांची कामकोटि के आचार्य विद्याशंकर तीर्थ ने 1331 ई. में श्री विद्यारण्य के तपस्वी नाम से माधव को संन्यास की दीक्षा दी। आचार्य विद्याशंकर तीर्थ ने विद्यारण्य को मुस्लिम आक्रमणों से देश की संस्कृति और समाज की रक्षा का वचन लिया था। अत: संत विद्यारण्य ने अपने गुरु के आदेशों का अक्षरश: पालन किया। आचार्य विद्याशंकर तीर्थ से शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात संत विद्यारण्य ने काशी सहित बद्रीकाश्रम आदि पवित्र तीर्थस्थलों की यात्रा की। तत्पश्चात हम्पी के निकट मतंगा पहाड़ी पर जाकर साधना में लीन हो गए।
हरिहर एवं बुक्का के गुरु तथा महान संत - विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर एवं बुक्का के गुरु तथा संरक्षक विद्यारण्य एक महान संत तथा दार्शनिक भी थे। इतना ही नहीं, संत विद्यारण्य श्रृंगेरी शारदा पीठ के 12वें जगद्गुरू थे।
संस्कृत के प्रकाण्ड विद्यवान तथा सरस्वती के वरद पुत्र कहे जाने वाले संत विद्यारण्य ने 1336 ई. में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना में हरिहर-बुक्का की मदद की थी। संत विद्यारण्य ने ‘सर्वदर्शन संग्रह’ की रचना की जिसमें हिन्दू सम्प्रदायों के दर्शनों का संग्रह है। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'पंचदशी' नामक ग्रन्थ की रचना की जो अद्वैत दर्शन पर आधारित है।
संस्कृत वाङ्मय में उच्चकोटि की कृतियों की वजह से संत विद्यारण्य को उस युग का ‘व्यास’ कहा जाता है। इतना ही नहीं, मध्ययुगीन इतिहास में संत विद्यारण्य की तुलना समर्थ गुरु रामदास से की जाती है क्योंकि इन दोनों ही संतों ने एक महान साम्राज्य का निर्माण कर मुस्लिम शासन से लोहा लिया था।
‘प्रायश्चित सुधानिधि’ नामक कृति में संत विद्यारण्य ने विलासी जीवन को हिन्दुओं के पतन का मुख्य कारण बताया। संत विद्यारण्य के अनुसार, इस्लाम धर्म का नियंत्रणहीन विलासी जीवन हिन्दुओं को अत्यधिक आकर्षित कर रहा था, जो उनके पतन का कारण बना। उन्होंने हिन्दुओं को नाचने-गाने वाली दुश्चरित्र स्त्रियों व मुस्लिम वेश्याओं से दूरी बनाकर रहने का आदेश दिया था।
संत विद्यारण्य का निधन- अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी, विद्वान तथा ऋषि विद्यारण्य को शंकराचार्य के समान ही एक महान विचारक माना जाता है। विजयनगर साम्राज्य के राजा हरिहर तथा बुक्का ने संत विद्यारण्य को देवत्व की श्रेणी प्रदान की।
अपने शास्त्रार्थ से वाकपटु को भी गूंगा बनाने वाले संत विद्यारण्य ने विजयनगर साम्राज्य के राजाओं की तीन पीढ़ियों का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक निर्देशन किया। इसके बाद 1372 ई. में सक्रिय राजनीति से सेवानिवृत्ति लेकर 76 वर्ष की उम्र में श्रृंगेरी पहुंचे तथा पीठाधीश्वर का पद ग्रहण किया। इसके बाद 1386 ई. में संत विद्यारण्य का निधन हो गया।
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