ब्रिटिश भारत के साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने उत्तराधिकारी रहित देशी राज्यों को ईस्ट इंडिया कम्पनी में मिलाने की नीति बनाई थी। लार्ड डलहौजी की इस अपहरण नीति के तहत गोद लेकर उत्तराधिकारी बनाने का अधिकार भी छीन लिया गया था। यही बात झांसी रियासत पर लागू होती थी, जिसे अंग्रेज हथियाना चाहते थे।
किन्तु विधवा रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी बुलन्द आवाज में कहा, “मैं अपनी झांसी कभी नहीं छोड़ूगी। जिसकी हिम्मत हो तो आजमा ले।” इस कथन के बाद अंग्रेजी शासन और रानी लक्ष्मीबाई में युद्ध होना तय था। फिर क्या था, रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में उनकी साहसी सेना ने अंग्रेजों के साथ वीरतापूर्वक युद्ध किया किन्तु झांसी हारने के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर की ओर प्रस्थान किया। अनेक युद्धों में अंग्रेजों को हराने के बाद अंग्रेजी जनरल ह्यूरोज से लड़ते हुए रानी लक्ष्मीबाई 29 वर्ष की उम्र में 17 जून 1858 को वीरगति को प्राप्त हो गई।
1857 की महाक्रांति की महानायिका रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु पर अंग्रेज जनरल ह्यूरोज ने कहा, “भारतीय क्रांतिकारियों में यहां सोई हुई औरत अकेली मर्द है।” जी हां, दोस्तों आपको यह जानकर हैरानी होगी कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में हुआ था। रानी लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका था जिन्हें लोग प्यार से ‘मनु’ बुलाते थे।
अब आपका यह सोचना लाजिमी है कि आखिर में उत्तर प्रदेश की सबसे प्रख्यात नगरी वाराणसी में वह कौन सी जगह है जहां रानी लक्ष्मी पैदा हुईं थीं, और फिर वह वाराणसी से बिठुर (पेशवा बाजीराव द्वितीय की रियासत) क्यों गईं तत्पश्चात झांसी की रानी कैसे बनीं? इन सब रोचक प्रश्न का उत्तर जानने के लिए यह ऐतिहासिक स्टोरी जरूर पढ़ें।
वाराणसी में हुआ था लक्ष्मीबाई का जन्म
रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत तांबे मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में कार्यरत थे। लक्ष्मीबाई की माता का नाम भागीरथी बाई था। रानी लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ था लेकिन प्यार से लोग उन्हें ‘मनु’ पुकारते थे। लक्ष्मीबाई का जन्म भगवान भोलेनाथ की नगरी वाराणसी स्थित भदैनी इलाके में 19 नवम्बर 1828 ई. को हुआ था।
वाराणसी का भदैनी क्षेत्र पूर्व में ‘भद्र वन’ के नाम से जाना जाता था, जो भगवान शिव और गणपति की प्रतिमाओं से सुशोभित था। भदैनी इलाके के मंदिरों में इन प्रतिमाओं को आज भी देखा जा सकता है। वाराणसी के प्रख्यात अस्सी घाट के ठीक सामने ‘भदैनी घाट’ है जो भदैनी क्षेत्र के नाम पर रखा गया है।

अस्सी घाट के नजदीक भदैनी स्थित जिस घर में रानी लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ था, उसे आज की तारीख में पार्क में तब्दील कर दिया गया है। इस एतिहासिक स्थल के मध्य में रानी लक्ष्मी बाई की घोड़े पर सवार प्रतिमा लगी हुई है। पार्क घूमने का समय सुबह आठ बजे से शाम 9 बजे तक है।
पार्क के दीवारों पर लक्ष्मीबाई के जीवन से जुड़े चित्र उत्कीर्ण गए किए हैं। लक्ष्मीबाई पार्क की दीवारों पर उत्कीर्ण शैल चित्रों में पिता मोरोपंत तांबे तथा भागीरथी बाई की गोद में मनु, माता-पिता की संरक्षण में काशी के गंगातट पर खेलती बालिका मनु, मनु के साथ पिता मोरोपंत का नाव द्वारा बिठुर प्रस्थान, बाजीराव पेशवा द्वितीय के संरक्षण में मनु का पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा, मुन का झांसी के राजा गंगाधर राव से विवाह तत्पश्चात एक तरफ एक बड़े शिलालेख पर रानी लक्ष्मी का पूरा जीवन वृत्तांत उत्कीर्ण है।

वाराणसी से बिठुर कैसे पहुंची लक्ष्मीबाई
मर्णिकर्णिका (लक्ष्मीबाई) जब चार साल की थीं तभी उनकी मां भागीरथीबाई का निधन हो गया। ऐसे में मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के यहां सेवारत मोरोपंत तांबे अपनी बेटी मणिकर्णिका को लेकर बिठुर आ गए। मणिकर्णिका (मनु) अपने पिता के साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में जाने लगी। सुन्दर और चंचल स्वभाव के कारण मनु को लोग प्यार से ‘छबीली’ कहकर बुलाने लगे।
बिठुर में लक्ष्मीबाई की मुलाकात पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब से हुई। नाना साहेब जब अपने शिक्षकों के पास विद्याभ्यास के लिए जाया करते थे तब मनु (लक्ष्मीबाई) उन्हें बड़े ध्यानपूर्वक देखती थी। इस प्रकार लक्ष्मीबाई ने थोड़ा बहुत लिखने-पढ़ने का भी ज्ञान अर्जित कर लिया।
नाना साहेब जब हाथी के हौदे में सवार होकर जाया करते थे तब लाडली छबीली (मनु) बड़े प्रेम से पुकार उठती- “मेरे अच्छे भैया, मुझे भी साथ बैठा लो।” ऐसे में लक्ष्मीबाई कभी घोड़े पर सवार होकर तो कभी हाथी पर बैठकर शस्त्र संचालन करते दिखाई देती थी।
अश्व की तीव्र गति को रोकने के लिए लगाम खींचती लक्ष्मीबाई का गौर वर्ण और तेजस्वी मुखमंडल गुलाबी आभा से दीप्त हो उठता था। इस प्रकार धर्नुविद्या, तलवारबाजी और घुड़सवारी में पारगंत लक्ष्मीबाई अपने भावी धर्मयुद्ध के लिए तैयार हो चुकी थी।
झांसी के राजा गंगाधर राव से विवाह
मणिकर्णिका (मनु) का विवाह साल 1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ सम्पन्न हुआ। इस विवाह के पश्चात मणिकर्णिका झांसी की ‘रानी लक्ष्मीबाई’ के नाम से विख्यात हुई। रानी लक्ष्मीबाई की लोकप्रियता जनता के बीच राजा गंगाधर राव के साथ ही बढ़ती जा रही थी। गंगाधर राव से विवाह के पश्चात लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया किन्तु चार महीने बाद ही उसकी मत्यु हो गई।
दुर्भाग्यवश साल 1853 में झांसी के वृद्ध राजा गंगाधर राव की भी मौत हो गई, उस वक्त महारानी लक्ष्मीबाई महज 25 वर्ष की थीं। इस मौके का फायदा उठाकर ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी गोद निषेध सिद्धान्त (हड़प नीति) के तहत झांसी को ब्रिटिश हुकूमत में मिलाने को तत्पर हुआ।

लार्ड डलहौजी की हड़प नीति का शिकार बना झांसी
साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी (1848-1856 ई.) भारतीय राज्यों को हड़पने का मौका ढूढ़ता रहता था और उचित अवसर मिलते ही कोई न कोई बहाना बनाकर अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लेता था। लार्ड डलहौजी ने भारतीय राज्यों को हड़पने का एक नियम यह भी बना रखा था कि राजाओं की निजी सम्पत्ति के उत्तराधिकार के लिए उसके दत्तक पुत्र को अनुमति है किन्तु गद्दी पर अधिकार के लिए उसे अनुमति नहीं है।
झांसी का राजा पेशवा के अधीन होता था परन्तु मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय की हार के पश्चात लार्ड हेस्टिंग्ज ने एक सन्धि के तहत झांसी के राजा राव रामचन्द्र को यह राज्य उसे, उसके पुत्रों तथा उत्तराधिकारियों को कम्पनी के अधीनस्थ सहयोग की शर्तों पर दिया था।
वृद्ध राजा राव रामचन्द्र जल्द ही स्वर्ग सिधार गए, इसके पश्चात कम्पनी ने राजा के वंशज गंगाधर राव को झांसी का राजा नियुक्त किया। 21 नवम्बर 1853 में गंगाधर राव भी पुत्र के बिना ही स्वर्ग सिधार गए। सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता 'झांसी की रानी में यह पंक्ति लिखी है — “नि:सन्तान मरे राजा जी, रानी शोकसमानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।” तत्पश्चात गंगाधर राव की पत्नी रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र (दामोदर राव) गोद लिया परन्तु इसे कम्पनी ने स्वीकार नहीं किया।
तत्पश्चात विधवा रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी बुलन्द आवाज में कहा, “मैं अपनी झांसी कभी नहीं छोड़ूंगी। जिसकी हिम्मत हो तो आजमा ले।” रानी लक्ष्मीबाई की इस हुंकार के बाद बुन्देलखण्ड विशेषकर- सागर, नौगांव, बांदा, बानापुर, शाहगढ़, कालपी और झांसी में महाक्रांति की ज्वाला धधक उठी।
ऐसे में अंग्रेजी शासन और रानी लक्ष्मीबाई में युद्ध होना बिल्कुल तय हो गया। लिहाजा रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में उनकी साहसी सेना ने अंग्रेजों के साथ वीरतापूर्वक युद्ध किया किन्तु झांसी हारने के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर की ओर प्रस्थान किया। अनेक युद्धों में अंग्रेजों को हराने के बाद अंग्रेजी जनरल ह्यूरोज से लड़ते हुए रानी लक्ष्मीबाई 29 वर्ष की उम्र में 17 जून 1858 ई. को वीरगति को प्राप्त हो गई।
1857 की महाक्रांति की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु पर अंग्रेज जनरल ह्यूरोज ने कहा, “भारतीय क्रांतिकारियों में यहां सोई हुई औरत अकेली मर्द है।” रानी लक्ष्मीबाई के साथ हुए संघर्ष के बाद लार्ड डलहौजी ने झांसी का विलय कर लिया।
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