भारतीय इतिहास का एकमात्र परम शक्तिशाली शासक जिसने अपने नाम के आगे अपने पिता का नहीं अपितु अपनी मां के नाम का उल्लेख किया। अपने वंश के इस महान शासक ने राजसी मुद्राओं से लेकर अभिलेखों तक पर अपनी मां का नाम उत्कीर्ण करवाया।
इस मातृभक्त शासक का साम्राज्य पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी सागर अर्थात बंगाल की खाड़ी, अरब सागर एवं हिन्द महासागर तक फैला हुआ था। अब आपका यह पूछना लाजिमी है कि आखिर कौन थी वह रानी और उसके शक्तिशाली पुत्र का क्या नाम था जिसके घोड़े तीन समुद्रों का पानी पीते थे? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए यह रोचक स्टोरी जरूर पढ़ें।
सातवाहन राजवंश की रानी गौतमी बलश्री
वायु पुराण के अनुसार, कण्व वंश के अंतिम शासक सुशर्मा की हत्या कर ‘आन्ध्रजातीय’ शिमुक ने सातवाहन राजवंश की स्थापना की। 23 वर्षों तक शासन करने के पश्चात शिमुक की मृत्यु हो गई तत्पश्चात उसका छोटा भाई ‘कृष्ण’ राजा बना क्योंकि शिमुक का पुत्र शातकर्णि अल्पवयस्क था। कृष्ण की मौत के बाद शातकर्णि सातवाहन वंश की गद्दी पर बैठा जो ‘प्रथम शातकर्णि’ के नाम से विख्यात हुआ।
प्रथम शातकर्णि ने अपने राज्य का विस्तार कर दो अश्वमेध तथा राजसूय यज्ञों का अनुष्ठान किया। शातकर्णि की मृत्यु के पश्चात सातवाहनों की शक्ति क्षीण हो गई। शातकर्णि के दोनों पुत्र वेदश्री और शक्तिश्री अवयस्क थे अत: शातकर्णि प्रथम की रानी नायनिका ने संरक्षिका के रूप में शासन किया।
पुराणों के मुताबिक शातकर्णि प्रथम तथा महान राजा गौतमी पुत्र शातकर्णि के बीच शासन करने वाले राजाओं की संख्या 10 से 20 बताई गई है। इन्हीं में से सातवाहन वंश के 22वें राजा शिवस्वाति की पत्नी का नाम ‘गौतमी बलश्री’ था। जाहिर है, जिस प्रकार से शातकर्णि प्रथम की रानी नायनिका ने संरक्षिका के रूप में शासन किया था, ठीक उसी प्रकार से गौतमी बलश्री की योग्यता ने उसके पुत्र को सर्वाधिक प्रभावित किया। गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अपने राज्य काल के अन्त में अपनी माता के साथ मिलकर शासन किया था। यही वजह है कि सातवाहन वंश का यह सबसे महानतम शासक ‘गौतमीपुत्र शातकर्णी’ के नाम से विख्यात हुआ।
सातवाहन वंश का महान राजा गौतमीपुत्र शातकर्णी
गौतमीपुत्र शातकर्णी केवल सातवाहन राजवंश ही नहीं अपितु भारतीय इतिहास का एकमात्र प्रतापी शासक था जिसने सबसे पहले अपने नाम के आगे अपनी माता के नाम का उल्लेख करना शुरू किया। बतौर उदाहरण-नासिक जिले के जोगलथेम्बी में चांदी के सिक्कों का ढेर मिला है, इनमें से चांदी के कुछ ऐसे सिक्के हैं जो नहपान ने चलाए थे जिन पर ‘गौतमीपुत्र’ नाम उत्कीर्ण है। गौतमीपुत्र शातकर्णी के बाद उसके वंश में माता का नाम लिखने की परम्परा चल पड़ी, जैसे- वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी, शिवश्री शातकर्णी, शिवस्कन्द शातकर्णी तथा यज्ञश्री शातकर्णी।
नासिक अभिलेख से यह जानकारी मिलती है कि सातवाहन वंश का महान शासक गौतमीपुत्र शातकर्णी आकर्षक व्यक्तित्व का धनी था, मुख कान्तिमान, शरीर बलिष्ठ एवं सुन्दर था। गौतमीपुत्र शातकर्णी अपनी माता का परम भक्त था। वह अपराधियों को भी क्षमा कर दिया करता था। उसे सम्पूर्ण शास्त्रों की शिक्षा दी गई थी, ऐसे में वह विद्वान भी था। गौतमीपुत्र शातकर्णी को ‘आगमन निलय’ (वेदों का आश्रयदाता) भी कहा गया है।
गौतमीपुत्र शातकर्णी वैदिक धर्म का पोषक तथा बौद्ध धर्म के प्रति उदार था। उसने बौद्ध भिक्षुओं को ‘अजकालकिय’ तथा ‘करजक’ नामक गांव दान में दिए। गौतमीपुत्र शातकर्णी महान योद्धा होने के साथ-साथ प्रजा के सुख में सुखी तथा दुख में दुखी होने वाला सम्राट था। गौतमीपुत्र शातकर्णी ने नासिक में ‘वेणाकटक’ नामक नगर का निर्माण करवाया तथा एक गुफा गृह बनाकर उसका दान भी किया।
गौतमीपुत्र शातकर्णी का विशाल साम्राज्य
सातवाहन राजवंश के 23वें राजा गौतमीपुत्र शातकर्णी ने तकरीबन 26 वर्षों तक शासन किया, इस दौरान उसने शकों, यवनों, पहलवों तथा क्षहरातों का नाश कर सातवाहन कुल के गौरव की पुन: स्थापना की। गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अपने विजय अभियान के दौरान दक्षिण एवं उत्तर भारत के कई राज्यों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया।
गौतमीपुत्र शातकर्णी के पुत्र वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी के शासनकाल के 19वें वर्ष में नासिक गुहालेख से यह जानकारी मिलती है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी ने कृष्णा नदी का तटीय प्रदेश, गोदावरी नदी का तटीय प्रदेश, पैठन का समीपवर्ती भाग, पश्चिमी राजपूताना, उत्तरी कोंकण, नर्मदा घाटी, बरार, पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा प्रदेशों को विजित कर लिया था।
राजमाता गौतमी बलश्री की नासिक प्रशस्ति से यह जानकारी मिलती है कि “गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अनेक युद्ध जीते थे, उसकी विजय पताका अपराजित थी। वह शक्ति में राम, केशव, अर्जुन तथा भीमसेन के तुल्य था तथा जो नहुष, जनमेजय, सागर, ययाति, राम तथा अम्बरीष के समान तेजस्वी था।” यद्यपि उसके अभिलेखों से यह जानकारी मिलती है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी ब्राह्मण था जिसने शकों तथा क्षत्रियों का घमंड चूर-चूर कर दिया।
नासिक प्रशस्ति में यह भी उल्लेखित है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी का विन्ध्यपर्वत के दक्षिण के सम्पूर्ण प्रदेश पर अधिकार था। उसे विन्ध्य, ऋक्षवत (मालवा के दक्षिण के विन्ध्य पर्वत का भाग), पारियात्र (पश्चिमी विन्ध्य तथा अरावली), सह्य (नीलगिरी के उत्तर का पश्चिमी घाट), मलय (त्रावनकोर की पहाड़ियां), महेन्द्र पर्वत (पूर्वी घाट) आदि का स्वामी कहा गया है। उसने ‘राजाराज’ तथा ‘विन्ध्यनरेश’ की उपाधियां ग्रहण की।
राजमाता गौतमी बलश्री की नासिक प्रशस्ति में ही लिखा है - “तिसमुद-तोय-पीतवाहन” अर्थात् गौतमीपुत्र शातकर्णी के घोड़े तीन समुद्रों का पानी पीते थे। यहां तीनों समुद्रों से तात्पर्य बंगाल की खाड़ी, अरब सागर तथा हिन्द महासागर से है। सम्भव है इस तथ्य में कुछ अलंकरण हो परन्तु यह स्पष्ट है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी एक दिग्विजयी सम्राट था।
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