
मुगल साम्राज्य के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर के पिता अकबर शाह द्वितीय ने अपनी बेग़म मुमताज महल की मन्नत पूरी करने के लिए साल 1812 में ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ नामक एक धार्मिक उत्सव की शुरूआत की थी।
हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द्र का प्रतीक यह मुगल उत्सव 1857 की महाक्रांति के बाद भी दिल्ली में मनाया जाता रहा। ऐसा उल्लेख मिलता है कि 1942 ई. में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों ने इस मुगल उत्सव को बन्द करवा दिया ताकि आन्दोलन को आसानी से दबाया जा सके।
देश की आजादी के बाद साल 1961-62 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने मुगल उत्सव ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ को फिर से शुरू करवाया। इतना ही नहीं, दिल्ली के महरौली इलाके में आयोजित होने वाले इस सात दिवसीय उत्सव में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू भी शामिल हुए।
अब आप सोच रहे होंगे कि मुगल उत्सव ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ से क्या तात्पर्य है और हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक इस मुगल उत्सव को पं. जवाहरलाल नेहरू ने फिर से क्यों शुरू करवाया? यह सब जानने के लिए यह रोचक स्टोरी जरूर पढ़ें।
मुगल उत्सव ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ (फूलवालों की सैर) की शुरूआत
मुगल साम्राज्य के अंतिम दौर में बादशाह शाहआलम द्वितीय को अंग्रेजों ने पेन्शन देना शुरू कर दिया था। शाहआलम द्वितीय के बाद उसके पुत्र अकबर द्वितीय को ब्रिटिश ईस्ट कम्पनी ने नाममात्र का बादशाह घोषित कर रखा था। अकबर द्वितीय को ब्रिटिश हुकूमत की तरफ से 2 लाख रुपए प्रतिमाह की वित्तीय सहायता मिलती थी।
अकबर द्वितीय (1806 से 1835 ई.) के शासनकाल में भारत के अधिकांश हिस्सों पर अंग्रेजों का शासन था, यहां तक कि दिल्ली पर भी उनका कब्जा हो चुका था। बता दें कि अकबर द्वितीय को अपमानित करने के उद्देश्य से 1835 ई. में अंग्रेजों ने मुगल सिक्के का चलन भी बन्द कर दिया।
दरअसल यह स्टोरी तब शुरू होती है जब मुगल बादशाह अकबर द्वितीय अपने बड़े बेटे बहादुर शाह जफर की जगह छोटे बेटे मिर्जा जहांगीर को उत्तराधिकारी घोषित करना चाहते थे। परन्तु ब्रिटिश रेजिडेन्ट सर आर्चीबाल्ड सेटन को 19वर्षीय मिर्जा जहांगीर कत्तई पसन्द नहीं था। मिर्जा जहांगीर एक लापरवाह युवक था और उसने मुगल दरबार में ब्रिटिश रेजिडेन्ट सर आर्चीबाल्ड सेटन का अपमान किया था।
इतना ही नहीं, साल 1812 में मिर्जा जहांगीर ने लाल किले में नौबत खाने की छत से ब्रिटिश रेजिडेंट सर आर्चीबाल्ड सेटन पर गोली चला दी। हांलाकि सेटन तो बच गया लेकिन उसका अर्दली मारा गया। इसके बाद सर आर्चीबाल्ड सेटन ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी के साथ वापस लौटा और उसने मिर्जा जहांगीर को कैदकर इलाहाबाद निर्वासित कर दिया।
मिर्जा जहांगीर के इलाबाद निर्वासन से व्यथित उसकी मां मुमताज महल ने मन्नत मांगी कि यदि उसके बेटे को इलाहाबाद से रिहा कर दिया जाएगा तो वह महरौली स्थित ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह पर फूलों की चादर चढ़ाएंगी।
संयोगवश अंग्रेजों ने मिर्जा जहांगीर को रिहा कर दिया, इसके बाद अकबर द्वितीय की बेगम मुमताज महल ने अपनी मन्नत पूरी की। इस प्रकार साल 1812 में मुगल बादशाह अकबर द्वितीय के आदेश पर ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ नामक उत्सव दिल्ली के महरौली में सात दिनों तक बड़ी धूमधाम से मनाया गया था।
‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ यानि फूलवालों की सैर नामक उत्सव के दौरान सात दिन के लिए मुगलों के शाही कुनबे को महरौली स्थानान्तरित कर दिया गया था। अकबर शाह द्वितीय की बेगम मुमताज महल अपनी मन्नत पूरी करने के लिए नंगे पांव हजरत कुतुबुद्दीन काकी की दरगाह के लिए निकली तो रास्ते में लोगों ने फूल बिछा दिए। बेगम मुमताज महल के आदेश पर महरौली स्थित योगमाया मंदिर में भी फूलों के पंखें के आकार में पुष्पांजलि अर्पित की गई।
मुगल उत्सव ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ से तात्पर्य
सैर-ए-गुल-फरोशां का मतलब होता है- ‘फूलवालों की सैर’। यह सात दिवसीय मुगल उत्सव दिल्ली के फूल विक्रेताओं द्वारा प्रत्येक वर्ष महरौली इलाके में अक्टूबर अथवा नवम्बर महीने में मनाया जाता है जो धार्मिक सौहार्द्र का प्रतीक है। इस मुगल उत्सव में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते हैं।
वर्षा ऋतु के बाद आयोजित होने वाले इस उत्सव में हिन्दू-मुसलमान दोनों शामिल होते हैं। सैर-ए-गुल फ़रोशां यानि ‘फूलवालों की सैर’ के दौरान शहनाई वादकों तथा नर्तक-नर्तकियों के नेतृत्व में एक जुलूस निकलता है। जुलूस में शामिल होने वाले लोग हाथ में फूलों के बड़े-बड़े पंखे लिए महरौली बाजार से होते हुए सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह तक पहुँचते हैं। इसके बाद महरौली स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ योगमाया मंदिर तक जाकर फूलों का छत्र और फूलों का पंखा चढ़ाते हैं।
ऐसा भी कहा जाता है कि ‘सैर-ए-गुल फ़रोशां’ यानि फूलवालों की सैर नामक इस त्यौहार के दौरान दिल्ली के फूल विक्रेता ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह तथा योगमाया मंदिर में फूलों से सजे बड़े-बड़े पंखे अर्पित कर आगामी साल में फूलों के बेहतर मौसम की प्रार्थना करते हैं।
अंग्रेजों ने बन्द करवा दिया था मुगल उत्सव ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’
बादशाह अकबर शाह द्वितीय के द्वारा शुरू किया गया मुगल उत्सव ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ यानि फूलवालों की सैर का आयोजन अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के शासनकाल में भी जारी रहा। यहां तक कि 1857 की महाक्रांति के बाद भी यह उत्सव दिल्ली के ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर के संरक्षण में कुछ प्रमुख नागरिकों के मदद से मनाया जाता रहा।
ऐसा उल्लेख मिलता है कि मुगल बादशाह अकबर शाह द्वितीय के शासनकाल से जारी ‘फूलवालों की सैर’ नामक इस उत्सव को साल 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों ने बन्द करवा दिया ताकि अगस्त क्रांति को सुगमता से दबाया जा सके। इसके बाद से यह मुगल उत्सव तकरीबन बन्द ही रहा।
पं. जवाहरलाल नेहरू ने फिर से शुरू करवाया ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’
राजधानी दिल्ली के धार्मिक सौहार्द्र का प्रतीक फूलवालों की सैर यानि ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ को पुनर्जीवित अथवा फिर से शुरू करने का श्रेय देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को जाता है।
पं. जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली के मेयर नुरूद्दीन अहमद, मुगल वंशज तैमूर जहां बेगम तथा एक कुलीन योगेश्वर दयाल से फूल वालों की सैर यानि ‘सैर-ए-गुल-फरोशां’ नामक सात दिवसीय उत्सव फिर से शुरू करने को कहा। इसके बाद साल 1962 में दिल्ली के महरौली इलाके में फूलवालों की सैर नामक मुगल उत्सव मनाया गया।
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू 6 सितम्बर 1962 को फूलवालों की सैर नामक इस उत्सव में शरीक भी हुए। पं. जवाहरलाल नेहरू जबतक जीवित रहे, वे ‘फूल वालों की सैर’ उत्सव पर प्रत्येक वर्ष महरौली आते रहे। तभी से देश के सभी प्रधानमंत्री इस उत्सव में शरीक होते आए हैं। इंदिरा गांधी ने अपने शासनकाल में देश के सभी राज्यों से इस उत्सव में भाग लेने का अनुरोध किया था।
फूलवालों की सैर नामक इस उत्सव में एक परम्परा यह भी है कि भारत के राष्ट्रपति, दिल्ली के मुख्यमंत्री तथा उपराज्यपाल की तरफ से फूलों का बड़ा पंखा भेंट किया जाता है, जो हजरत कुतुबुद्दीन काकी की दरगाह तथा शक्तिपीठ योगमाया मंदिर को अर्पित किया जाता है।
दिल्ली के चांदनी चौक से शुरू होने वाला यह उत्सव महरौली स्थित 'जहाज़ महल' में आयोजित किया जाता है। मुख्य समारोह के दौरान देश के विभिन्न राज्यों से आईं सांस्कृतिक मंडलियां गीत,नृत्य और नाटक प्रस्तुत करती हैं। मुगलों के दौर से जारी त्योहार ‘फूलवालों की सैर’ हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब का अनुपम उदाहरण है।
इसे भी पढ़ें : डॉ. भीमराव आम्बेडकर की 32 शैक्षणिक डिग्रियों वाले दावे से जुड़ा असली सच
इसे भी पढ़ें : भारत के इस महान राजा के नाम से विख्यात है बिहार का जिला भोजपुर