
चौरी चौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आन्दोलन अचानक वापस ले लिए जाने से देश के उत्साही युवकों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। जनान्दोलन की आंधी में उत्साहित होकर जिन युवकों ने पढ़ाई-लिखाई (कुछ ने तो घर-बार भी) छोड़ दी थी, वे अब महसूस कर रहे थे कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है। उनमें से बहुत से युवकों ने राष्ट्रीय नेतृत्व की रणनीति पर प्रश्नचिह्न लगाना शुरू कर दिया। अहिंसक आन्दोलन की विचारधारा से उनका विश्वास उठने लगा और किसी अन्य विकल्प की तलाश होने लगी। इनमें से अधिसंख्य ने मान लिया कि सिर्फ हिंसात्मक तरीकों से ही आजादी हासिल की जा सकती है। अत: क्रांतिकारियों की इसी श्रेणी में पहला नाम आता है राम प्रसाद बिस्मिल का जिन्होंने योगेश चटर्जी, शचीन्द्र सान्याल, चन्द्रशेखर आजाद जैसे युवा साथियों के संग साल 1924 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया जिसका मुख्य उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत को सत्ता से उखाड़ फेंकना तथा एक संघीय गणतंत्र संयुक्त राज्य भारत की स्थापना करना था।
काकोरी कांड और राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी
क्रांतिकारी अभियान शुरू करने से पहले बड़े पैमाने पर प्रचार कार्य जरूरी था, नौजवानों को अपने दल में मिलाना और प्रशिक्षित करना था, साथ ही हथियार भी जुटाना था। अत: इन कार्यों के लिए पैसे की जरूरत थी। ऐसे में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी ने पैसा एकत्र करने के उद्देश्य से ब्रिटिश भारत में पहली बड़ी कार्रवाई की काकोरी में। ब्रिटिश गवर्नमेन्ट का खजाना लूटने की यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ‘काकोरी कांड’ के नाम से मशहूर है।
9 अगस्त 1925 ई. को राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में दस युवा क्रांतिकारियों ने लखनऊ के पास एक गांव काकोरी में 8 डाउन ट्रेन को रोककर रेल विभाग का खजाना लूट लिया। इस घटना से ब्रिटिश सरकार बहुत ज्यादा कुपित हुई, भारी संख्या में युवकों को गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया। ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व यात्रियों की हत्या करने के आरोप में राम प्रसाद बिस्मिल के साथ अशफाकउल्ला खां, रोशन सिंह तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी दे दी गई। चन्द्रशेखर आजाद फरार हो गए। कुछ क्रांतिकारियों को आजीवन कारावास की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया। महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी दिए जाने के बाद उनके माता-पिता और भाई-बहनों को कितने दुख झेलने पड़े थे, यह जानकर आपके आंखों में भी आंसू आ जाएंगे।
क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल का जीवन परिचय
महान क्रांतिन्कारी राम प्रसाद बिस्मिल को जब गोरखपुर जेल में फांसी दी गई तब वह अभी 30 साल के ही थे। उनका मूल नाम राम प्रसाद था, ‘बिस्मिल’ उनका उपनाम था जिसका हिन्दी अर्थ है- आहत अथवा जख्मी। राम प्रसाद बिस्मिल क्रांतिकारी होने के साथ-साथ एक शायर, कवि, अनुवादक व इतिहासकार भी थे। राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा लिखित तकरीबन 11 पुस्तकें उनके जीवनकाल में ही प्रकाशित हुईं, इनमें से अधिकांश पुस्तकें ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली गईं।
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में जन्मे राम प्रसाद के पिता का नाम मुरलीधर और माता का नाम मूलमती था। चूंकि मुरलीधर और मूलमती दोनों की भगवान श्रीराम के आराधक थे अत: अपने बेटे का नाम राम प्रसाद रखा। राम प्रसाद बिस्मिल के जिन भाई-बहनों का उल्लेख मिलता है, उसके मुताबिक एक छोटा भाई था जिसका नाम रमेश और दो बहनें थीं जिनका नाम शास्त्री और ब्रह्मदेवी था। राम प्रसाद बिस्मिल ने 19 वर्ष की उम्र में क्रान्तिकारी जीवन में कदम रखा था। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने क्रांतिकारी जीवन में जो पुस्तकें लिखीं और प्रकाशित करवाई, उन्ही पुस्तकों को बेचकर हथियार खरीदे और ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा लिखित यह पंक्तियां आज भी देश के हर युवा के जुबां के रहती है- ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।’
राम प्रसाद बिस्मिल की मां मूलमती
सच कहते हैं, किसी भी इंसान का पहला गुरु उसकी मां होती है। जी हां, दोस्तों, उत्तरी भारत के महान क्रांन्तिकारियों में से एक राम प्रसाद बिस्मिल की मां मूलमती का नाम भी अपने इस महान बेटे के साथ ही सदा के लिए अमर हो गया। रामप्रसाद बिस्मिल अपने संघर्ष के दिनों में जब भी हतोत्साहित हुए क्रान्तिकारी विचारों वाली महिला मूलमती ने उन्हें देशप्रेम से सिंचित कर अभिभूत किया। रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी मां से पांच हजार रुपए उधार लेकर ग्वालियर से अपना पहला रिवॉल्वर खरीदा था लेकिन मूलमती ने ये पैसे इस शर्त पर दिए थे वह इनका दुरुपयोग नहीं करेंगे। बाद में राम प्रसाद ने अपनी क्रांतिकारी पुस्तकों को बेचकर अपनी मां के पैसे लौटा दिए थे।
19 दिसम्बर 1927 को काकोरी कांड के नायक राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी होनी थी, इससे ठीक एक दिन पहले मूलमती अपने बेटे के पसन्द का खाना लेकर उनसे मिलने जेल गईं। अपनी फांसी से चंद घंटे पहले बैरक में कसरत करने वाले रामप्रसाद बिस्मिल अपनी मां को देखते ही रोने लगे। तब मूलमती ने अपने बेटे से कहा- तुम्हारे जैसे बेटे को पाकर हर कोई गर्व महसूस करेगा, रोते क्यों हो? तब राम प्रसाद बिस्मिल ने कहा- मुझे दुख केवल इस बात का है कि मैं अपनी मां से फिर कभी नहीं मिल सकूंगा। मूलमती अपने बेटे द्वारा लिखित आत्मकथा की मूल पांडुलिपि छुपाकर जेल से बाहर निकाल लाईं थीं जिससे भारत को राम प्रसाद बिस्मिल के बारे में जानने का अवसर मिल सका। परन्तु इस महान क्रान्तिकारी को फांसी दिए जाने के बाद उनके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।
राम प्रसाद बिस्मिल के घर का सारा समान ब्रिटिश सरकार ने जलाकर खाक कर दिए। ब्रिटिश पुलिस के आतंक से उनके घरवालों से भी लोग नहीं मिलना चाहते थे। राम प्रसाद की मौत के बाद उनकी बहन शास्त्री देवी भी विधवा हो गईं, उनका एक तीन साल पुत्र था। घर में खाने के लाले पड़े थे, शास्त्री देवी ने एक डॉक्टर के यहां छह रूपए महीने पर खाना बनाने की नौकरी शुरू कर दी। गरीबी इतनी कि बेटे को जैसे-तैसे करके पांचवीं तक पढ़ाया, बाद में वह भी मजदूरी करने लगा।
छोटी बहन ब्रह्मा देवी भी बिस्मिल की फांसी को बरदाश्त नहीं कर सकी और चार महीने बाद ही जहर खाकर अपने प्राण त्याग दिए। छोटे भाई रमेश को तपेदिक हो गया, परन्तु इलाज के अभाव में वह भी इस दुनिया से चल बसा। दुर्भाग्यवश ये सभी मार्मिक घटनाएं मूलमती और मुरलीधर के आंखों के सामने ही घटित हुईं।
राम प्रसाद बिस्मिल की मां मूलमती देवी और पिता मुरलीधर को कई दिनों तक भूखे ही रहना पड़ता। कहते हैं क्रांतिकारी विचारों वाली मूलमती को मजदूरी तक करनी पड़ी। इसी गरीबी में मुरलीधर एक दिन सोए और दुबारा फिर कभी नहीं उठे। मुरलीधर के अंतिम संस्कार तक के पैसे नहीं थे, कुछ क्रांतिकारियों की मदद से उनका दाह संस्कार किया गया।
मूलमती अन्न और कपड़े के अभाव में गरीबी के दिन गुजारने लगीं थीं तभी एक दिन विष्णु शर्मा जेल से रिहा होकर मूलमती से मिलने उनके घर पहुंचे। जाड़े का दिन था, मूलमती एक फटा हुआ कोट लपेटे एक छोटी से कोठरी में बैठी हुई थीं। विष्णु शर्मा ने बहुत कोशिश करके उत्तर प्रदेश सरकार से शहीद परिवार सहायक फंड से 60 रुपए मासिक पेन्शन दिलवाई। जिससे मूलमती देवी और उनकी बेटी शास्त्री देवी के परिवार का भी गुजर बसर होने लगा। आखिरकार 13 मार्च 1956 ई. को मूलमती देवी इस दुनिया से चल बसीं।
गौरतलब है कि महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के परिवार को भूखमरी और तंगहाली में जीना पड़ा। बिस्मिल की मां मूलमती देश के आजाद होने के 9 साल बाद तक जीवित रहीं लेकिन तत्कालीन सरकार ने कभी-कोई सुध नहीं ली। दुर्भाग्य की बात यह है कि शाहजहांपुर के खिरनी बाग मुहल्ले में स्थित राम प्रसाद बिस्मिल की मां का 80 वर्ग गज में बना मकान अब तक तीन बार बिक चुका है, लेकिन तब से लेकर आजतक इसमें एक भी नई ईंट नहीं लगी।
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