
पूर्वी उत्तर प्रदेश के अधिकांश ग्रामीण आज भी निश्चित स्थानों की दूरी को कोस में ही नापते हैं। आलसी लोगों के लिए एक कहावत बहुत मशहूर है- “नौ दिन चले अढ़ाई कोस”। दरअसल मध्ययुगीन भारत में दूरी नापने की ईकाई कोस ही मानी जाती थी। कालान्तर में कोस को मील अथवा किलोमीटर में परिवर्तित कर दिया गया। जानकारी के लिए बता दें कि कोस एक योजन का एक चौथाई होता है यानि कि एक कोस तकरीबन 2 मील अथवा 3.22 किलोमीटर का होता है। शेरशाह सूरी को भारतीय इतिहास में सड़कें तथा सरायें बनवाने के लिए याद किया जाता है। उसने सोनारगांव से सिन्धु नदी तक तकरीबन 1500 किमी. लम्बी सड़क बनवाई थी जिसे हम लोग जीटी रोड के नाम से जानते हैं। इसके अतिरिक्त उसने आगरा से बुरहानपुर, आगरा से जोधपुर तथा लाहौर से मुल्तान तक सड़कें बनवाईं। इतना ही नहीं शेरशाह ने प्रत्येक दो कोस पर लोगों को ठहरने के लिए सराय बनवाईं और हर सराय पर दो घोड़े भी रखवाए जिनके जरिए हरकारे संदेश भेजने का काम करते थे। इन्हीं राजमार्गों पर शेरशाह सूरी ने कोस मीनारें भी बनवाईं थीं। इस स्टोरी में शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित कोस मीनारों के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।
कोस मीनारें बनवाने का असली मकसद
हिन्दुस्तान के महान शासक शेरशाह सूरी ने साल 1540 से 1545 ई. के बीच राजमार्गों के किनारे प्रत्येक दो या तीन कोस पर ‘कोस मीनारें’ बनवाईं थीं। पहले के जमाने में गाय के रम्भाने की आवाज जितनी दूरी तक सुनी जा सके उसे ‘क्रोश दूरी’ कहा जाता था। यही क्रोश शब्द आगे चलकर कोस में परिवर्तित हो गया। दरअसल ‘कोस’ शब्द फ़ारसी भाषा के कुरोह अथवा संस्कृत के ‘क्रोश’ से लिया गया है। वहीं ‘मीनार’ एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ होता है- प्रकाश स्तम्भ। इस प्रकार शेरशाह सूरी ने सड़कों के किनारे प्रत्येक दो या तीन कोस पर उन्नत ईटों से निर्मित ठोस गोल खम्भें लगवाए जिन्हें सुर्खी चूने से प्लास्टर किया गया था। अत: इन मीनारों को ‘कोस मीनार’ कहा जाने लगा। इन कोस मीनारों की ऊंचाई तकरीबन 30 फीट होती थी।
कोस मीनारें प्रशासनिक कार्यों को गति देने का काम करती थीं। बतौर उदाहरण- यह एक प्रकार से दिशा सूचक यंत्र की भांति कार्य करती थीं। इन्हीं मीनारों को देखकर सैनिकों के काफिले निश्चित दिशा में आगे बढ़ते थे। प्रत्येक कोस पर एक घुड़सवार तथा एक ढोलवादक की तैनाती रहती थी जिससे संदेशवाहक इधर-उधर जाते थे। मतलब साफ है, कोस मीनारें डाक व्यवस्था को भी संचालित करने में सहायक थीं। यही वजह है कि शेरशाह सूरी को ‘डाक व्यवस्था का जनक’ कहा जाता है।
इतना ही नहीं, कोस मीनारें एक प्रकार से सूरी साम्राज्य को एकजुट रखने वाली संचार नेटवर्क का भी काम करती थीं। यात्रियों के मार्गदर्शन में सहायक कोस मीनारों की महत्ता को देखते हुए ब्रिटिश यात्री सर टामस रो ने इन्हें ‘भारत का चमत्कार’ कहा है। जबकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार, कोस मीनारें भारत के राष्ट्रीय संचार प्रणाली का एक अभिन्न हिस्सा थीं।
मुगलों ने भी बनवाईं थी कोस मीनारें
इसमें कोई दो राय नहीं है कि शेरशाह की प्रशासनिक व्यवस्था, मुद्रा प्रणाली तथा सड़क एवं डाक व्यवस्था की नकल कर मुगलों ने अपने साम्राज्य को मजबूती देने का काम किया था। शेरशाह सूरी की तर्ज पर ही मुगलों ने भी कोस मीनारें बनवाई थीं। बाबर की आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ के मुताबिक, मुगल बादशाह बाबर ने आगरा से काबुल के बीच प्रत्येक नौ मील पर 12 गज ऊंची मीनारें बनवाकर डाक चौकियां स्थापित की थीं। अबुल फजल कृत ‘अकबरनामा’ में भी कोस मीनारों का उल्लेख मिलता है।
मोहनलाल गुप्ता अपनी किताब ‘राजस्थानः जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन’ में लिखते हैं कि मुगल बादशाह अकबर ने 1573 में आगरा से अजमेर के मार्ग पर पक्की सरायों का निर्माण करवाया था जिससे कि वह प्रतिवर्ष बिना किसी अवरोध के अजमेर जा सके। प्रत्येक कोस की दूरी पर कोस मीनारें बनवाई गईं जिन पर हजारों हिरणों के सींग लगे हुए थे, जिन्हें शायद अकबर और उसके सैनिकों ने मारे थे। इन कोस मीनारों के पास कुएं भी खुदवाए गए थे।
जहांगीर ने आगरा से लाहौर और काबुल के बीच कोस मीनारें, पुल तथा सरायों का निर्माण करवा कर संचार व्यवस्था को दुरूस्त करने का काम किया था। प्रत्येक कोस मीनारों के पास एक बड़ा नगाड़ा रखा होता था जो प्रत्येक घंटे की समाप्ति पर बजाया जाता था। इन कोस मीनारों के जरिए सौदागर और मुसाफिर बड़े आराम से अपना रास्ता तय करते थे।
साहित्य अकादमी से प्रकाशित अल्ताफ हुसैन हाली की किताब ‘मुकद्दमा-ए-शेऽर-ओ-शायरी’ से पता चलता है कि कलकत्ता से पेशावर तक प्रत्येक सात कोस पर एक सराय और प्रत्येक कोस पर कोस मीनारें बनी हुई थीं। मुगल इतिहासकारों के अनुसार, भारत में मुख्य सड़कों के किनारे लगभग 600 ऐसी कोस मीनारें मौजूद थीं।
अभी भी कहां-कहां मौजूद हैं कोस मीनारें
सदियों से मौजूद इन कोस मीनारों को लोगों ने क्षतिग्रस्त कर दिया। परन्तु आजादी के कई वर्षों बाद पुरातत्व विभाग ने कुछ बची हुई कोस मीनारों की सुध ली तथा इन्हें प्राचीन स्मारक घोषित किया। तब से इन कोस मीनारों का राष्ट्रीय महत्व बढ़ गया है। इन मीनारों के 200 मीटर के दायरे को विनियमित एवं प्रतिबंधित घोषित कर दिया गया हैं। इसके साथ ही उस क्षेत्र के 100 मीटर की परिधि में कोई भी निर्माण कार्य प्रतिबंधित है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के द्वारा संरक्षित कोस मीनारों की संख्या 110 है। ये कोस मीनारें देश के विभिन्न शहरों दिल्ली, सोनीपत, पानीपत, कुरुक्षेत्र, अंबाला, लुधियाना, जालंधर, अमृतसर से पेशावर (पाकिस्तान) तक व दिल्ली-आगरा राजमार्ग पर स्थित हैं। तो देर किस बात की, आईए जानते हैं कहां-कहां मौजूद हैं कोस मीनारें।
— वर्तमान में हरियाणा में 49 कोस मीनारें अभी भी वजूद में हैं। जिसमें से 17 कोस मीनारें फरीदाबाद में, 7 कोस मीनारें सोनीपत में, 5 कोस मीनारें पानीपत में, 10 कोस मीनारें करनाल में, 9 कोस मीनारें कुरुक्षेत्र में तथा रोहतक में 1 कोस मीनार शेष है।
— दिल्ली-अंबाला राजमार्ग पर भी कोस मीनारों को देखा जा सकता है।
— जबकि अंबाला में स्थित सभी कोस मीनारें देखरेख के अभाव में नष्ट हो चुकी हैं।
— दिल्ली में पुराने किले की प्राचीर के पास, विशाल चिड़ियाघर परिसर के अंदर एक कोस मीनार है जो सबसे अलग है।
— दिल्ली के सरिता विहार, बदरपुर रोड और मथुरा रोड पर मौजूद हैं कोस मीनारें।
— फ़तेहपुर सीकरी में भी एक भव्य कोस मीनार खड़ी है, जो हिरन मीनार के रूप में जानी जाती है क्योंकि इन मीनारों पर शिकार किए गए हिरनों के सींग लटके होते थे।
— दिल्ली के हौस खाज़ एन्क्लेव में स्थित कोस मीनार को लोग ‘चोर मीनार’ के नाम से जानते है। कभी यात्रियों को अपना शिकार बनाने वाले चोरों के सिर इन मीनारों पर लटका दिए जाते थे। इसलिए इन मीनारों को चोर मीनार कहा जाने लगा। इससे पता चलता है कि उन दिनों दिल्ली की कानून-व्यवस्था चिंताजनक थी।
—अमृतसर के जीटी रोड स्थित सदर चौक के समीप सड़क पर मौजूद हैं कोस मीनारें।
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