
छत्रपति शिवाजी महाराज के निधन के पश्चात उनके पुत्र सम्भाजी महाराज को मुगल सेनाओं ने पराजित करके बेरहम मौत दी तथा सम्भाजी के पुत्र शाहूजी को बन्दी लिया, मुगल बादशाह औरंगजेब के लिए यह विशेष उपलब्धि थी। इस प्रकार मुगलों के खिलाफ मराठा बुरी तरह हार तो गए लेकिन अभी निर्जीव नहीं हुए थे। छत्रपति शिवाजी महाराज का छोटा बेटा राजाराम मृत्युपर्यन्त (1700 ई.) मुगलों से लड़ता रहा, इसके बाद उसकी पत्नी ताराबाई ने अपने अल्पवयस्क पुत्र शिवाजी द्वितीय के संरक्षिका के रूप इस युद्ध को जारी रखा।
1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल साम्राज्य के पतन से मराठों को एक नया अवसर मिला। औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहादुरशाह ने शाहूजी को इस उम्मीद से मुक्त कर दिया ताकि उसके महाराष्ट्र पहुंचते ही वहां गृहयुद्व छिड़ जाएगा। बता दें कि औरंगजेब जब तक दक्षिण में रहा शाहूजी को अपने कैद में ही रखा था।
अक्तूबर 1707 ई. में सतारा की गद्दी के लिए शाहूजी और उसकी चाची ताराबाई में खेड़ में गृहयुद्ध हुआ। इस गृहयुद्ध में बालाजी विश्वनाथ ने शाहूजी का साथ दिया और अपनी कूटनीति से ताराबाई को सत्ता से बेदखल कर दिया। मराठा सत्ता प्राप्त करते ही शाहू ने 1713 ई. में बालाजी विश्वनाथ को पेशवा के पद पर नियुक्त किया। पेशवा बनते ही बालाजी विश्वनाथ ने न केवल विरोधी मराठा सरदारों को शाहू के पक्ष में कर लिया बल्कि छत्रपति के रूप में राजपूतों से भी मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली।
इतना ही नहीं, पूना तथा कोल्हापुर पर अधिकार करने के बाद बालाजी विश्वनाथ ने मुगलों से सन्धि करके शाहूजी को छत्रपति के रूप में मान्यता दिलवाने में भी कामयाबी हासिल की। अब मुगलों ने दक्षिण के सभी राज्यों पर मराठों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। 1720 में बालाजी विश्वनाथ के देहावसान के बाद शाहू ने उसके बड़े पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा नियुक्त कर दिया।
बाजीराव प्रथम ने जब पेशवा पद ग्रहण किया तब उसकी आयु 19 वर्ष थी लेकिन वह पूर्व में ही अपने पिता से कूटनीति तथा प्रशासन में महारत हासिल कर चुका था। बाजीराव के समक्ष एक नहीं अनगिनत चुनौतियां थीं। दक्षिण में निजाम उसके चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने के अधिकार को चुनौती दे रहा था। मराठों का एक बड़ा क्षेत्रफल जंजीरा के सिद्दियों के अधीन था। इतना ही नहीं शिवाजी के वशंज कोल्हापुर के शम्भूजी, शाहू की सर्वोच्च सत्ता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे तथा दूसरे मराठा सरदार भी स्वायत्तता प्राप्त करने के ताक में थे।
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लड़ाकू पेशवा के रूप में विख्यात बाजीराव बल्लाल ने एक झटके में उपरोक्त सभी गुत्थियों को सुलझा लिया। दक्कन में अपनी विजय पताका लहराने के बाद बाजीराव ने उत्तर विजय की योजना बनाई। मुगल साम्राज्य के पतन का लाभ उठाते हुए उसने शाहू से कहा- “अब समय आ गया है कि हम विदेशियों को भारत से निकाल दें और हिन्दुओं के लिए अमर कीर्ति प्राप्त कर लें। यदि हम पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करेंगे तो शाखाएं स्वत: ही गिर जाएंगी और मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।”
बाजीराव प्रथम की इस ललकार से प्रभावित होकर शाहू ने कहा- “आप निश्चित ही योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं। आप अवश्य ही मराठों की विजय ध्वज हिमालय के पार फहरा देंगे।” बाजीराव ने हिन्दू पादशाही को इतना लोकप्रिय बनाया ताकि अन्य हिन्दू शासक इस योजना में मुगलों के खिलाफ इनका पक्ष लें और साथ दें।
इतिहासकार रिचर्ड टेम्पल के अनुसार, “घुड़सवारी में बाजीराव से बाजी मारना दुष्कर कार्य था और जब कभी रणक्षेत्र में कठिनाई आती थी तो वह स्वयं को गोलियों की बौछार में झोंक देते थे। थकान तो वह जानते ही नहीं थे और अपने सैनिकों के साथ ही सब दुख झेलते थे। सैनिकों को मिलने वाला रूखा-सूखा भोजन बाजीराव भी खाते थे। अपने बीस वर्ष के कार्यकाल (1720-1740) में बाजीराव ने अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक मराठा आतंक का प्रसार देखा तथा मराठा सैनिकों के साथ ही खेमों में जिये और खेमों में मरे। इसीलिए मराठे आज भी पेशवा बाजीराव को शक्ति के अवतार के रूप में याद करते हैं।” अपनी पेशवाई में बाजीराव ने तकरीबन 40 युद्ध लड़े और सभी में जीत हासिल की।
पेशवा बाजीराव बल्लाल का विजय अभियान
दक्कन के निजाम से सम्बन्ध- दक्कन का निजाम आसफशाह निजाम-उल-मुल्क साल 1719 ई. में मुगल-मराठा सन्धि को अस्वीकार कर चौथ तथा सरदेशमुखी पर रोक लगा चुका था। शाहू इस गतिरोध को दूर करने का विफल प्रयास कर चुका था। जब निजाम-उल-मुल्क वजीर बनकर दो वर्ष के लिए दिल्ली चला गया, तब उसकी जगह मुबारिज खां को दक्षिण का सूबेदार बनाया गया, जो मुख्यतया निजाम का विरोधी था। इस कमजोरी का लाभ उठाकर पेशवा बाजीराव ने बुरहानपुर पर अधिकार कर लिया।
साल 1724 ई. में निजाम आसफशाह निजाम-उल-मुल्क दोबार दक्कन आ पहुंचा और उसने आसफजाह को पराजित कर हैदराबाद में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। चूंकि निजाम मराठों से ईष्या करता था इसलिए उसने कोल्हापुर गुट को प्रोत्साहित कर मराठों के बीच फूट डालने का प्रयास किया। साल 1725-26 में पेशवा बाजीराव कर्नाटक अभियान पर गया हुआ था, इसी बीच उसने शम्भूजी को सैनिक सहायता प्रदान कर शाहू को अपनी अधीनता स्वीकार कराने में सफलता प्राप्त कर ली। ऐसे में कर्नाटक अभियान से वापस लौटते ही बाजीराव बल्लाल ने साल 1728 ई. में पालखेड़ के नजदीक निजाम को करारी शिकस्त दी। तत्पश्चात मुंशी शिवागांव की सन्धि के तहत निजाम ने शम्भूजी को सहायता नहीं देना, विजित प्रदेश को लौटाना तथा बन्दियों को मुक्त करना स्वीकार किया।
हांलाकि साल 1731 ई. में निजाम ने मालवा के शासक मुहम्मदशाह बंगश को साथ लेकर मराठों पर दोबारा आक्रमण कर दिया परन्तु इस युद्ध में भी उसे हार का मुंह देखना पड़ा। इस प्रकार दक्कन में मराठों की सर्वोच्चता स्थापित हो गई। नई सन्धि के तहत निजाम को यह भी स्वीकार करना पड़ा कि वह मराठों के उत्तर के अभियानों में तटस्थ बना रहेगा।
बुन्देलखण्ड विजय- मालवा के पूर्व में यमुना तथा नर्मदा नदी के बीच स्थित पहाड़ी क्षेत्र बुन्देलखण्ड में बुन्देले राजपूतों का शासन था। उन्होंने मुगलों का डटकर विरोध किया था। चूंकि बुन्देलखण्ड का इलाका इलाहाबाद की सूबेदारी में था अत: जब मुहम्मद खां बंगश इलाहाबाद का सूबेदार नियुक्त हुआ तब उसने बुन्देलों को इस क्षेत्र से समाप्त करने की ठानी। ऐसे में बुन्देल नरेश छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव से सहायता मांगी। फिर क्या था, छत्रसाल की मदद से बाजीराव ने मुहम्मद खां बंगश को परास्त कर बुन्देलखण्ड के सभी विजित प्रदेशों को मुगलों से छीन लिए। बाजीराव के इस ऋण से मुक्ति पाने के लिए राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव की शान में न केवल एक दरबार का आयोजन किया बल्कि काल्पी, सागर, झांसी, भाटा के प्रदेश पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।
मालवा विजय- दक्कन तथा गुजरात को जाने वाले व्यापारिक मार्ग मालवा से होकर ही गुजरते थे। ऐसे में मराठों ने महराष्ट्र में मुगल आक्रमणों का जवाब देने के लिए 18वीं शताब्दी के शुरूआती वर्षों से ही मालवा पर हमले करने शुरू कर दिए थे। साल 1719 ई. में पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने मालवा से चौथ आदि प्राप्त करने का असफल प्रयत्न किया था। 1735 ई. में जब मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ ने आमेर के शासक जयसिंह को हटाकर मुहम्मद खां बंगश को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया तब पेशवा बाजीराव ने उत्तर की ओर बढ़ते हुए सवाई जयसिंह, मुहम्मद खां बंगश तथा जयसिंह जैसे मुगल सूबेदारों को रणक्षेत्र में धूल चटाते हुए मालवा फतह किया। इस प्रकार मालवा पर अब मुगलों की सत्ता लुप्त हो गई।
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मुगल सत्ता के केन्द्र दिल्ली पर आक्रमण
दक्कन में निजाम को शिकस्त देने के बाद गुजरात, मालवा तथा बुन्देलखण्ड में अपनी धाक जमाते हुए पेशवा बाजीराव बल्लाल ने मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ को मराठा शक्ति की एक झलक दिखाने के लिए दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। महज 500 मराठा घुड़सवारों के साथ जाटों तथा मेवातियों के प्रदेश को बिजली की गति से लांघता हुआ बाजीराव 29 मार्च 1737 को दिल्ली पहुंचा। भयभीत होकर मुगल सम्राट ने दिल्ली से भागने की तैयारी कर ली। बाजीराव प्रथम केवल तीन दिन ही दिल्ली में ठहरा लेकिन मुगल बादशाह कुछ नहीं कर सका। मुहमद शाह को जैसे ही पता चला कि बाजीराव अपनी मराठा सेना सहित दिल्ली में प्रवेश कर चुके हैं, मुगल बादशाह डरकर तहखाने में जाकर छिप गया। बाजीराव आगे बढ़कर राजपूताने को लूटते हुए वापस पूना लौट गया।
बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ ने मराठों को दबाने के लिए एक बार फिर से निजाम का सहारा लिया लेकिन इस बार भी पेशवा बाजीराव ने मुगल-निजाम की संयुक्त शक्ति को भोपाल में करारी शिकस्त दी। इतिहासकार किनकेड तथा पार्सिनीज के मुताबिक, “मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ ने पेशवा बाजीराव बल्लाल जो उसके साम्राज्य को रौंद रहा था, का चित्र बनाने के लिए एक चित्रकार को भेजा। चित्रकार ने जब बाजीराव का सैनिक वेशभूषा में चित्र लाकर मुगल सम्राट को लाकर दिया। चित्र में घोड़े की लगाम घोड़े की पीठ पर ढीली पड़ी थी और व्यक्ति के कन्धे पर तलवार थी। घुड़सवार व्यक्ति घोड़े पर यात्रा कर रहा था और वह अपने हाथ से गेहूं की बालें मल-मल कर खा रहा था। इस चित्र को देखकर मुगल सम्राट मुहम्मद शाह भयभीत हो गया और उसने व्याकुल होकर निजाम से कहा कि यह तो प्रेत है। इससे सन्धि कर लो।”
गौरतलब है कि मुगल सम्राट मुहम्मद शाह के आदेश पर वर्ष 1738 ई. में निजाम को विवश होकर दोराहा सराय की सन्धि करनी पड़ी। जिसके अनुसार, शाहू को मालवा एवं नर्मदा के साथ चम्बल नदी के मध्यवर्ती इलाके तथा 50 लाख रुपए हर्जाने के रूप में निजाम को देना स्वीकार करना पड़ा जिसे मुगल बादशाह ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।