आज की तारीख में शल्य-चिकित्सा आधुनिक विशेषज्ञों का क्षेत्र समझी जाती है लेकिन आपको जानकारी के लिए बता दें कि आज से सैकड़ों वर्षों पूर्व भारत के शल्य चिकित्सक सुश्रुत की ख्याति अरब देशों सहित कंबोडिया तक फैल चुकी थी। अरब के विद्वानों ने ‘सुश्रुत संहिता’ का अरबी भाषा में अनुवाद किया तथा अनुवादित ग्रंथ का नाम ‘किताब-ए-सुश्रुत’ रखा। ‘सुश्रुत संहिता’ का पारसी भाषा में भी अनुवाद किया गया। ईरान के महान चिकित्सक अल-राजी ने सुश्रुत के ग्रन्थ ‘सुश्रुत संहिता’ का अनेक बार उल्लेख किया है। उसने सुश्रुत को एक महान शल्य चिकित्सक कहा है।
इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि सुश्रुत के समय भारत शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले बहुत आगे था। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि पिछले दो हजार साल की लम्बी अवधि में भारत के आयुर्वेदिक वैद्यों ने इस परम्परा को आगे नहीं बढ़ाया।
शल्य चिकित्सक सुश्रुत द्वारा लिखित ‘सुश्रुत-संहिता’ 184 अध्यायों में विभक्त है जिसमें विभिन्न औषधियों के साथ ही शल्य कर्म की विवेचना की गई है। शरीर रचना का अध्ययन करने के लिए मृत शरीर पर शल्यक्रिया करने की जानकारी ‘सुश्रुत-संहिता’ में दी गई है। इस बात से हमें यह महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है कि सुश्रुत के समय हमारे देश में मृत व्यक्ति की शल्य परीक्षा (सर्जरी) करना वर्जित नहीं था।
सुश्रुत ने लिखा है कि— तस्मान्नि: संशयं ज्ञानं हर्त्रा शल्यस्य वाअछता।
शोधयित्वा मृतं सम्यग् द्रष्टव्योड़ंगविनिश्चय:।।
अर्थात् ‘संदेहरहित ज्ञान चाहने वाले भावी शल्य चिकित्सक को मृत शरीर का विश्लेषण कर अंगों के निश्चित स्वरूप को अच्छी तरह से देख लेना चाहिए।’ सुश्रुत यह भी कहते हैं कि शिष्य जब शास्त्रों में पारंगत हो जाए तो उसे छेद्यकर्म का उपदेश देना चाहिए। छेद्यकर्म के अभ्यास के लिए सर्वप्रथम कुम्हड़ा, लौकी, तरबूज, ककड़ी आदि पर प्रयोग करना चाहिए। तत्पश्चात मशक या चमड़े के किसी थैले में पानी या कीचड़ भरकर छेद्यकर्म करना चाहिए। इसी प्रकार जख्मों पर पट्टियां बांधने, जख्मों की सिलाई करने तथा कान की प्लास्टिक सर्जरी करने के भी तरीके बताए गए हैं।
सुश्रुत कहते हैं कि “जो शख्स छेद्यकर्म में अच्छी योग्यता प्राप्त कर लेता है, वह शल्यकर्म (सर्जरी) के दौरान गलतियां नहीं करता, परन्तु जो इन क्रियाओं में पारंगत नहीं है उसे ऐसे बचना चाहिए जैसे विषैले सांप से बचते हैं।” सुश्रुत ने ‘सुश्रुत संहिता’ में शल्यागार (सर्जरी कक्ष) का भी विस्तृत वर्णन किया है। सुश्रुत ने लिखा है कि चिकित्सक के घर में एक परामर्श कक्ष होना चाहिए तथा औषधियों (medicines) व औजारों से युक्त एक शल्यागार (surgery Room)। शल्यागार में यंत्र, क्षार, शलाका, श्रृंग, सीने का धागा, बांधने की पट्टियां, तेल, आलेपन, पेस्ट, गरम व ठण्डा पानी आदि वस्तुएं हमेशा तैयार रखना चाहिए। इसके साथ ही शल्यागार में निश्चेतन (एनेस्थीसिया) के लिए आवश्यक औषधि (दवाईयां ) भी होना चाहिए।
सुश्रुत ने शल्यकर्म सर्जरी के लिए जिन यंत्रों का विवरण दिया है, उनमें कुछ इस प्रकार हैं- शलाका यंत्र- ये 28 प्रकार की सलाइयां होती थीं। संदंश यंत्र- ये वर्तमान में संडासियों की शक्ल में होते थे। ये त्वचा, मांस,स्नायु आदि खींचकर निकालने के लिए होते थे। स्वास्तिक यंत्र- ये 34 प्रकार के होते थे। इनमें से 9 यंत्र जंगली जानवरों के मुख की शक्ल के होते थे, जैसे- सिंहमुख, व्याघ्र मुख, मार्जार मुख (जंगली बिल्ली) आदि। शेष 25 यंत्र पक्षियों के मुखाकृति के होते थे, जैसे- काकमुख, गिद्ध मुख आदि। इन यंत्रों के द्वारा हड्डियां निकाली जाती थीं।
अंग्रेजों ने भारत से सीखी प्लास्टिक सर्जरी-
आपको याद दिला दें कि हमारे देश में प्राचीन काल में अपराधियों को अंग-भंग की सजा दी जाती थी। किसी की नाक काट दी जाती थी तो किसी के कान। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नाक-कान कटे व्यक्ति को समाज में किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता होगा, इसलिए वह पीड़िता हमेशा कृत्रिम नाक की तलाश में रहता था। इसी आवश्यकता के चलते भारत में नाक की प्लास्टिक सर्जरी अस्तित्व में आई थी।
सुश्रुत ने अपने ग्रंथ में नाक की प्लास्टिक सर्जरी का भी अच्छा वर्णन किया है। गालों की चमड़ी काटकर नाकों पर ओढ़ा दिया जाता था तत्पश्चात कई प्रकार के लेपों की सहायता से जख्म को सुखाया जाता था। हांलाकि गाल पर चमड़ी काटने से जख्म के निशान तो रह जाते थे, लेकिन इस क्रिया से पीड़ित व्यक्ति को एक कृत्रिम नाक मिल जाती थी।
आधुनिक भारत के इतिहास में इस बात की जानकारी मिलती है कि हैदर अली तथा उसके पुत्र टीपू सुल्तान और ब्रिटीश सेना के बीच 1769 ई. से लेकर 1799 ई. के बीच तकरीबन चार मैसूर युद्ध लड़े गए। इस दौरान अंग्रेजों ने राकेट निर्माण और प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी भारत से सीखी।
अंग्रेजों ने भारतीयों से प्लास्टिक सर्जरी किस तरह सीखी, इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। अंग्रेजों की आवभगत करने वाला कावसाजी नाम का एक मराठा गाड़ीवान और अंग्रेजी फौज के चार सिपाही मैसूर राज्य की सीमा में दाखिल हुए तो टीपू सुल्तान के सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया और उनकी नाक काट दी और फिर उन्हें अंग्रेज कमांडर के पास वापस भेज दिया।
इस घटना के कुछ दिनों के बाद वह अंग्रेज कमांडर एक भारतीय व्यापारी से कोई सौदा तय कर रहा था तो उसने देखा कि भारतीय व्यापारी की नाक कुछ अजीब किस्म की है और उसके ललाट पर जख्म के निशान भी हैं। अंग्रेज कमाण्डर के पूछताछ करने पर उस व्यापारी ने बताया कि परस्त्री गमन अपराध में दण्डस्वरूप उसकी नाक काट दी गई थी। व्यापारी ने कहा कि कुम्हार जाति के एक मराठा वैद्य ने उसकी नई नाक बना दी है।
यह महत्वपूर्ण जानकारी हासिल करने के बाद उस अंग्रेज कमांडर ने उस वैद्य को बुला लिया तथा कावसाजी तथा चार भारतीय सैनिकों के नाक की प्लास्टिक सर्जरी करने को कहा। यह सर्जरी पुणे के पास के एक स्थान पर हुई। उस समय दो अंग्रेज डॉक्टर वहां उपस्थित थे। कुछ दिन बाद उस सनसनीखेज सर्जरी का विवरण ‘मद्रास गजेटियर’ में प्रकाशित हुआ।
इसके बाद अक्टूबर 1794 ई. में ‘जेन्टलमेन्स मेगजीन’ के अंक में भी उस भारतीय सर्जरी का विवरण पुर्नर्मुदित हुआ।द जेंटलमैन मैगज़ीन एक मासिक पत्रिका थी जिसकी स्थापना जनवरी 1731 में एडवर्ड केव द्वारा लंदन, इंग्लैंड में की गई थी। उस विवरण ने इंग्लैण्ड के 30 वर्षीय युवा सर्जन जॉसेफ कोन्स्टाटिन कार्पुए को बहुत ज्यादा प्रभावित किया और भारत में होने वाली नाक के प्लास्टिक सर्जरी के अनुंसन्धान में जुट गया। इसके बाद साहस करके 23 अक्टूबर 1814 को दो सफल प्लास्टिक सर्जरी की, जो ठीक वैसी ही थी जैसी कि भारत में कावसाजी और चार भारतीय सैनिकों पर की गई थी। इस घटना के बाद से ही यूरोप में भारतीय तरीके से नाक सर्जरी मशहूर हो गई और आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी का युग शुरू हो गया।
आपको यह बात जानकारी हैरानी होगी कि प्राचीन यूरोप में प्लास्टिक सर्जरी की कोई परम्परा नहीं थी। गौरतलब है कि शल्य चिकित्सक सुश्रुत ने 395 प्रकार की औषधीय वनस्पति, पशु द्रव्य से तैयारी की जाने वाली 57 प्रकार की दवाईयों तथा 64 खनिज द्रव्यों से तैयार की जाने वाली औषधियों का भी वर्णन किया है।
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