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Mehrauli's Iron Pillar is still a mystery for historians and scientists

इतिहासकारों और वैज्ञानिकों के लिए आज भी एक रहस्य है मेहरौली का लौह स्तम्भ

दिल्ली में कुतुबमीनार के निकट मेहरौली नामक स्थान पर एक लौह स्तम्भ स्थित है, जो पूरे देश में मेहरौली लौह स्तम्भ के नाम से विख्यात है। इस लौह स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार, इसका एक नाम विष्णुध्वज भी है। हैरानी की बात यह है कि तकरीबन 1600 से भी अधिक वर्षों से यह लौह स्तम्भ खुले आसमान के नीचे यथावत खड़ा है और जाड़ा, गर्मी, बरसात की मार सहन करने के बाद भी इसमें जंग नहीं लगी, दुनियाभर के धातु वैज्ञानिकों के लिए यह आश्चर्य का विषय है। मेहरौली का यह लौह स्तम्भ इतिहासकारों के बीच भी रहस्य बना हुआ है क्योंकि आज तक कोई भी इतिहासकार यह प्रमाण देने में सफल नहीं हो सका है कि इस लौह स्तम्भ को किस राजा ने बनवाया और दिल्ली में इसे किसने स्थापित किया था?

दरअसल इस लौह स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख में कोई तिथि अंकित नहीं है और न ही किसी राजा का पूरा नाम मिलता है और न ही कोई वंशावली दी गई है। ऐसे में इस लौह स्तम्भ को किसने बनवाया था, इस तथ्य को लेकर आज भी इतिहासकारों में गहरा मतभेद है। इस स्टोरी में आज हम आपसे मैहरौली लौह स्तम्भ से जुड़े वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक तथ्यों को साझा करने का प्रयत्न करेंगे।

इतिहासकारों के लिए एक रहस्य है मेहरौली का लौह स्तम्भ

मेहरौली लौह स्तम्भ कुतुबमीनार परिसर के निकट मौजूद है। इस लौह स्तम्भ की ऊंचाई 7 मीटर से भी ज्यादा है और इसका वजन तकरीबन 6 टन से अधिक है। मेहरौली का लौह स्तम्भ 1600 से अधिक वर्षों से अपनी जगह पर यथावत खड़ा है, लेकिन इसमें आज तक जंग का नामोनिशान भी नहीं है। दरअसल यह ​अतिप्राचीन लौह स्तम्भ अपनी जंगरोधी विशेषता को लिए ज्यादा विख्यात है। मेहरौली लौह स्तम्भ पर चन्द्र नामक किसी राजा की उपलब्धियों का वर्णन तीन श्लोकों के अन्तर्गत किया गया है, जो इस प्रकार है

श्लोक-1

यस्योद्वर्त्तयत: प्रतीपमुरसा शत्रुन्समेत्यागतान्

वंगेष्वाहव वर्त्तिनोअभिलिखता खड्गेन कीर्तिभुजे।

तीर्त्वा सप्तमुखानि येन समरे सिन्धोर्जिता वाह्विका:,

यस्याद्याप्यधिवास्यते जलनिधिर्वीर्यानिलैर्दक्षिण:।।

श्लोक-2

प्राप्तेन स्वभुजार्जितं च सुचिरं चैकाधिराज्यं क्षितौ।

श्लोक—3

प्रान्शुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णोर्ध्वज: स्थापित:।।

उपरोक्त तीनों श्लोकों का सारांश यह है कि, “जिसने बंगाल के युद्ध क्षेत्र में मिलकर आए हुए अपने शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था, जिसकी भुजाओं पर तलवार द्वारा उसका यश लिखा गया था, जिसने सिन्धु नदी के सातों मुखों को पारकर युद्ध में बाह्विकों को जीता था, जिसके प्रताप से दक्षिण का समुद्र तट अब भी सुवासित हो रहा था।1

अभिलेख के अनुसार, “जब यह लेख उत्कीर्ण किया गया वह राजा मर चुका था, किन्तु उसकी कीर्ति इस पृथ्वी पर फैली हुई थी। उसने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त किया और चिरकाल तक शासन किया।भगवान विष्णु के प्रति अत्यधिक श्रद्धा के कारण विष्णुपद नामक पर्वत पर उसने विष्णुध्वज की स्थापना की थी।3

रामायण और महाभारत में भी वाहीक शब्द का उल्लेख

वाल्मीकि रामायण में ऐसा उल्लेख मिलता है कि राजा दशरथ की मृत्यु के पश्चात म​हर्षि वशिष्ठ ने भरत को बुलाने के लिए कैकय देश को जो दूत मण्डल भेजा था वह बाह्विक प्रदेश के बीच से होकर गया था। वहां उसने सुदामन पर्वत, विष्णुपद, विपाशा और शाल्मली नदी के भी दर्शन किए थे। बता दें कि प्राचीन काल में पंजाब की व्यास नदी के आस-पास का क्षेत्र बाह्विक के नाम से विख्यात था। महाभारत में भी इस क्षेत्र को वाहीक कहा गया है।

आखिर कौन है राजा चन्द्र

मेहरौली के लौह स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख में न ही राजा का पूरा नाम उत्कीर्ण है और न ही ​कोई तिथि अंकित है। केवल चन्द्र नाम के आधार पर अलग-अलग ​इतिहासकारों ने इसे अपने ढंग से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। इतिहासकार रायचौधरी ने चन्द्र नामक राजा की पहचान पुराणों में वर्णित नागवंशी शासक चन्द्रांश से किया है, परन्तु चन्द्रांश कोई प्रतापी राजा नहीं था।

वहीं एच. डी. सेठ चन्द्र राजा की पहचान चन्द्रगुप्त मौर्य के रूप में की है, परन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य भगवान विष्णु का भक्त नहीं था। रमेशचन्द्र मजूमदार ने मेहरौली के चन्द्र राजा की तुलना कुषाण नरेश कनिष्क से की है क्योंकि खोतानी पांडुलिपी में उसे चन्द्र कनिष्क कहा गया है परन्तु कनिष्क बौद्ध मतानुयायी था और उसके राज्य का विस्तार दक्षिण में नहीं था। कुछ इतिहासकारों ने चन्द्रगुप्त प्रथम का भी नाम लिया है परन्तु बंगाल अथवा दक्षिण में उसका कोई प्रभाव नहीं था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य

मेहरौली स्तम्भ लेख पर उत्कीर्ण उपलब्धियां चन्द्रगुप्त द्वितीय से मेल खाती हैं जैसे- चन्द्रगुप्त परम विष्णु भक्त था, जिसकी सर्वप्रिय उपाधि परमभागवत की थी। समतट, डवाक, कामरूप और कर्त्तृपुर और नेपाल इन पांच राज्यों ने मिलकर अपना संघ बना लिया था, इसी संघ को पराजित कर चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उत्तरी बंगाल को अपने अधीन कर लिया था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने करीब 40 वर्षों तक शासन किया, इस प्र​कार उसका शासन चिरकालीन रहा। यहां तक कि उसकी कुछ मुद्राओं पर भी चन्द्र नाम ही अंकित है। इसके साथ ही लौह स्तम्भ की लिपि भी गुप्तकालीन है। सम्भव है कुमारगुप्त प्रथम ने अपने पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के पश्चात इस लेख को उत्कीर्ण करवाया था, इसीलिए इसमें चन्द्रगुप्त के नाम का केवल प्रथमभाग चन्द्र ही प्रयुक्त किया गया है। ऐसे में मेहरौली के लौहस्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख को चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य से जुड़ा मानने में कोई सन्देह नहीं रहा जाता है।

मेहरौली लौह स्तम्भ को दिल्ली में लाया कौन?

दिल्ली के मेहरौली स्थित इस लौह स्तम्भ से जुड़ा एक रहस्य यह भी है कि आखिर में इस विष्णुध्वज को दिल्ली में किसने स्थापित किया। इस लौह स्तम्भ पर उत्कीर्ण श्लोक में जिस विष्णु पद पहाड़ी और विष्णुध्वज का जिक्र किया गया है, वह वर्तमान में बिहार राज्य के गया जिले में स्थित भगवान विष्णु का मंदिर हो सकता है। दूसरा तथ्य एक यह भी है कि उत्तर प्रदेश के मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर भगवान विष्णु का एक मंदिर है, सम्भव है उसी के सामने इस स्तम्भ को खड़ा किया गया था, जिसे 1050 ई. के करीब दिल्ली के शासक अनंगपाल तोमर ने मेहरौली में स्थापित किया था। परन्तु उपरोक्त तथ्यों से जुड़ा प्रमाण भी इतिहास में नहीं मिलता है, अत: यह लौह स्तम्भ दिल्ली में स्थापित कैसे हुआ, यह भी एक रहस्य ही है।

वैज्ञानिकों के लिए चमत्कार है मेहरौली का लौह स्तम्भ

मेहरौली का जंगरोधी लौह स्तम्भ धातुविज्ञानियों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है। सवाल यह उठता है कि आज से तकरीबन 1600 वर्ष पहले लौह कारीगरों ने इतनी उन्नत तकनीक कैसे हासिल की होगी। सन 1961 ई. में इस लौह स्तम्भ का रासायनिक परीक्षण किया गया जिससे स्पष्ट हुआ कि यह स्तम्भ 100 फीसदी शुद्ध इस्पात से निर्मित है तथा वर्तमान के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा न्यूनतम रखी गई।

आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर डॉ. आर. सुब्रह्मण्यम ने साल 1998 में इस लौह स्तम्भ को लेकर एक शोध किया और बताया कि इस लौह स्तम्भ को निर्मित करते समय पिघले हुए कच्चे लोहे में फास्फोरस को मिलाया गया था जिससे इसमें आजतक जंग नहीं लग पाया। ऐसे में एक सवाल दोबारा उठ खड़ा होता है कि क्या आज से 1600 वर्ष पूर्व भारत के धातु विज्ञानी फास्फोरस के बारे में भी जानते थे? जबकि फास्फोरस की खोज 1669 ई. में हेनिंग ब्रांड ने की थी। एक सवाल यह भी उठता है कि जंगरोधी इस लौह स्तम्भ में कोई जोड़ क्यों नहीं दिखता है। इस सम्बन्ध में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के विभाग के डॉ. बी.बी. लाल का कहना है कि 20 से 30 किलो के गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़कर इस लौह स्तम्भ का निर्माण किया गया है। खैर जो भी हो, मेहरौली का लौह स्तम्भ यह साबित करता है कि आज से हजार वर्ष पहले भी भारत का धातु विज्ञान पूरी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ था।

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