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Megasthenes has written shocking matter about Pataliputra in 'Indica'

मेगस्थनीज ने ‘इंडिका’ में पाटलिपुत्र के बारे में जो लिखा है, जानकर चौंक जाएंगे आप

मेगस्थनीज एक यूनानी राजदूत था जिसे सेल्यूकस निकेटर ने चन्द्रगुप्त मौर्य की राज्य सभा में भेजा था। सम्भवत: मेगस्थनीज ईसा पूर्व 304 से 299 के बीच किसी समय पाटलिपुत्र की सभा में उपस्थित हुआ था। मेगस्थनीज ने काफी समय तक चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में निवास किया। भारत में रहकर उसने जो कुछ भी देखा-सुना उसने उसे इंडिका नामक अपनी कृति में लिपिबद्ध किया। दुर्भाग्यवश यह अमूल्य कृति अपने मूल रूप में आज उपलब्ध नहीं है। इंडिका में लिखे गए उद्धरण बाद के अनेक यूनानी लेखकों एरियन, स्ट्रेबो तथा प्लिनी की रचनाओं में भी मिलते हैं। इतना ही नहीं, स्ट्रेबों ने तो मेगस्थनीज के वृत्तांत को पूर्णतया असत्य तथा अविश्वनीय कहा है।

यह सच है कि मेगस्थनीज के विवरण पूर्णतया प्रामाणिक नहीं है। उसने भारतीय भाषा, रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं को न समझ सकने के कारण कहीं-कहीं अनर्गल बातें लिख डाली हैं। परन्तु केवल इसी आधार पर हम उसे पूर्ण रूप से झूठा नहीं कह सकते। मेगस्थनीज के विवरणों का ऐतिहासिक मूल्य है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

मेगस्थनीज की नजरों में चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य की एक झलक

इंडिका में लिखे गए मेगस्थनीज के विवरणों से यह पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में हर तरफ शांति और समृद्धि व्याप्त थी। जनता पूर्णरूप से आत्मनिर्भर थी तथा भूमि बड़ी उर्वर थी। लोग नैतिक दृष्टि से उत्कृष्ट थे तथा सादगी का जीवन व्यतीत ​करते थे। भारतवासी बड़े वीर, साहसी तथा सत्यवादी थे। उनकी वेशभूषा भी सादगीपूर्ण थी। गेहूं,जौ तथा चावल प्रमुख खाद्यान्न थे। मेगस्थनीज लिखता है कि समाज में सात वर्ग थे- दार्शनिक, कृषक, शिकारी, पशुपालक, व्यापारी, शिल्पी, योद्धा, निरीक्षक तथा मंत्री। मेगस्थनीज ने ब्राह्मण-साधुओं की प्रशंसा की है। उसके अनुसार भारतीय यूनानी देवता डियोनिसियस तथा हेराक्लीज की पूजा करते थे। वस्तुत: इससे शिव तथा कृष्ण की पूजा से तात्पर्य है।

चन्द्रगुप्त सदैव प्रजा के आवेदनों पर ध्यान देता रहता था। दण्ड विधान कठोर थे। अपराध बहुत कम होते थे जबकि सामान्यत: लोग घरों तथा सम्पत्ति की रखवाली नहीं करते थे। सम्राट अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा का विशेष ध्यान रखता था।

मेगस्थनीज लिखता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य अपने सभी सैनिकों को राजकोष से नकद वेतन देता था। शासन के सभी कामों में वह स्वयं रूचि लेता था। उसके सैन्य संगठन को लेकर मेगस्थनीज अपने वृत्तांत में लिखता है कि चन्द्रगुप्त के पास छह लाख से भी अधिक सैनिक थे। वह लिखता है कि एक बार जब चंद्रगुप्त छावनी लगा कर रुका हुआ था तब वो अपने साथ 4 लाख की सेना लेकर आया हुआ था जिससे हम अनुमान लगा सकते है की चंद्रगुप्त मौर्य के पास निश्चित रूप से इससे विशाल सैन्यबल मौजूद था। सेना का प्रबन्ध युद्धपरिषद् करती थी जिसमें क्रमश: नौ, पदाति, अश्व, रथ और गज सेना के लिये पाँच समितियाँ थीं।

मेगस्थनीज ने नगर-शासन का विस्तृत ब्यौरा दिया है। नगर का शासन प्रबन्ध 30 सदस्यों का एक मण्डल करता था। मण्डल समितियों में विभक्त था और प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे। पहली समिति उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करती थी। दूसरी समिति विदेशियों की देखरेख करती थी। विदेशियों की सुरक्षा, स्वास्थ्य, अंत्येष्टि क्रियाओं से लेकर उनकी सम्पत्ति उचित उत्तराधिकारियों को सुपुर्द करने का कार्य यह समिति करती थी। तीसरी समिति जन्म-मरण का हिसाब रखती थी। चौथी समिति व्यापार-वाणिज्य की देखरेख करती थी। पांचवी समिति निर्मित वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण करती थी तथा इस बात पर विशेष ध्यान रखा जाता था कि मिलावटी वस्तुएं तो नहीं बेची जा रही हैं। छठी समिति का कार्य बिक्रीकर वसूल करना था। इस कर से बचने वाले को मृत्युदंड दिया जाता था।

राजधानी पाटलिपुत्र के बारे में क्या लिखता है मेगस्थनीज

यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र की विस्तार से प्रशंसा की है। वह अपनी कृति इंडिका में लिखता है कि गंगा तथा सोन नदियों के संगम पर स्थित यह पूर्वी भारत का सबसे बड़ा नगर था। यह नगर 16 किमी. लम्बा तथा तीन किमी. चौड़ा था। नगर के चारों ओर लकड़ी की दीवार बनी हुई थी जिसके बीच-बीच में तीर चलाने के लिए छेद बने हुए थे। दीवार के चारों ओर एक खाई थी जो 600 फीट चौड़ी तथा 60 फीट गहरी थी। पाटलिपुत्र नगर में आने-जाने के लिए 64 द्वार बने हुए थे। दीवारों पर बहुत से बुर्ज थे जिनकी संख्या तकरीबन 570 थी। अन्य यूनानी लेखकों ने लिखा है कि नदी तट पर स्थित नगरों में प्राय: काष्ठशिल्प का उपयोग होता था। ऐसे में पाटलिपुत्र की भी यही स्थिति थी। यूनानी विवरणों में पाटलिपुत्र को ‘पालिबोथरा’ की संज्ञा दी गई है।

मेगस्थनीज ने अपनी कृति में चन्द्रगुप्त मौर्य के राजप्रासाद का विस्तृत वर्णन किया है। वह लिखता है कि पाटलिपुत्र के मध्य चन्द्रगुप्त का विशाल राजप्रासाद स्थित था। राजमहल चारों तरफ से रमणीक उपवनों तथा उद्यानों से घिरा हुआ था। भवन के उद्यानों में मोर तथा सरोवर में बड़ी-बड़ी मछलियां पाली जाती थीं। चन्द्रगुप्त अपने महल से प्राय: सोने की पालकी अथवा हाथी पर सवार होकर बाहर निकलता था। राजमहल में मौजूद सोने-चांदी के बर्तनों को देखकर आंखें चौंधियां जाती थीं। मेगस्थनीज के मुताबिक चन्द्रगुप्त के राजप्रासाद की भव्यता और शान-शौकत में सूसा तथा एकबतना के राजमहल भी उसकी तुलना नहीं कर सकते थे। चन्द्रगुप्त का यह राजप्रासाद सम्भवत: वर्तमान पटना के निकट कुम्रहार गांव के समीप था। कुम्रहार की खुदाई में प्रासाद के सभा भवन के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उससे प्रासाद की विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है।

पाटलिपुत्र के विनाश से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य

भारतीय इतिहास में हूण सम्राट मिहिरकुल अपनी ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों के लिए जाना जाता है। मिहिरकुल की हूण सेना ने पाटलिपुत्र के विनाश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसा कहा जाता है कि हूण सैनिकों ने तकरीबन 1600 स्तूपों तथा मंदिरों को ध्वस्त किया था हजारों नागरिकों का नरसंहार किया। कुम्रहार की खुदाई में मिले राख की परतों से पता चलता है कि हूणों ने नगर के एक बड़े हिस्से को आग के हवाले कर दिया होगा।

गंगा और सोन नदियों के संगम पर बसे पाटलिपुत्र के बारे में भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्य आनंद से कहा था कि इस नगर को बाढ़, आग और नागरिक कलह से खतरा होगा। ऐसे में भगवान बुद्ध की भविष्यवाणी सच साबित हुई, 8वीं शताब्दी के चीनी इतिहास से पता चलता है कि बाढ़ से पाटलिपुत्र का एक बड़ा हिस्सा बिल्कुल नष्ट हो गया था। एक जैन दस्तावेज के मुताबिक, छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में विनाशकारी बाढ़ के दौरान लगातार 17 दिनों तक हुई बारिश के दौरान पूरा पाटलिपुत्र जलमग्न हो गया था। इस विनाशकारी जलप्रलय ने भारी तबाही मचाई थी।

चीनी बौद्ध भिक्षु जुआनज़ैंग अपने यात्रा वृत्तांत में लिखता है कि “637 ई. में पाटलिपुत्र की यात्रा के दौरान उसने खंडहर में तब्दील हो चुके नगर को देखा था जहां स्तूप, मंदिरों त​था महल के मलबों के ढेर लगे हुए थे।” गौरतलब है कि भगवान बुद्ध की भविष्यवाणी सच निकली और बाह्य आक्रमणों, आग तथा विनाशकारी बाढ़ ने पाटलिपुत्र जैसे महान नगर का पतन सुनिश्चित कर दिया।

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