भारत का इतिहास

Interesting history of independent Jat state Bharatpur

स्वतंत्र जाट राज्य भरतपुर का रोचक इतिहास

15वीं शताब्दी के आखिर में दिल्ली सल्तनत के पतन का लाभ उठाकर जाटों के कई कबीले पंजाब व हरियाणा के इलाकों को छोड़कर ब्रज की तरफ आ गए। 17वीं शताब्दी तक ये लोग आगरा, मथुरा, कोइल, मेरठ तथा चम्बल नदी पारकर गोहद तक आकर बस गए। जाटों द्वारा अधिशासित यह क्षेत्र जाटवाड़ा प्रदेश के नाम से विख्यात हुआ।

गोकुला - मथुरा क्षेत्र के तिलपत गांव का जमींदार गोकुला बादशाह औरंगजेब के अत्याचारों से परेशान होकर महावन आ गया और उसने जाटों को एकत्र कर मुगलों के विरूद्ध खड़ा किया।

तिलपत के युद्ध में मुगल फौजदार हसन अली खां ने गोकुला को बन्दी बनाकर उस पर इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए दबाव डाला। गोकुला ने जब ऐसा करने से इनकार कर दिया तब आगरा कोतवाली के सामने उसके एक-एक अंग काटकर फिकवा दिए।

भज्जा - भरतपुर के सिनसिनी गांव के जमींदार भज्जा को राजपूताना में जाट शक्ति को उदित करने का श्रेय जाता है। भज्जा उन दिनों थून किले में रहता था, उसने अपने रिश्तेदारों की मदद से सेना एकत्र करके आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद बादशाह औरंगजेब ने उसका दमन करने के लिए मुगल सेना भेजी, इस युद्ध में भज्जा व उसका पुत्र भाव सिंह दोनों मारे गए।

राजाराम (1685-88 ई.)

 भज्जा के सात पुत्र थे- राजाराम, प्रतापसिंह, भावसिंह, सूपा, मेढू, गुमान और चूड़ामन। भज्जा सिंह का बड़ा बेटा राजाराम भी अपने पिता के समान ही बहादुर था।

ऐसा कहा जाता है कि एक बार मउ नामक स्थान के थानेदार लालबेग ने एक अहीर स्त्री का बलात्कार किया, इसलिए राजाराम ने लालबेग को मार डाला। इस बात की सूचना जब जाटों को मिली तो उन्होंने राजाराम को अपना नेता स्वीकार कर लिया।

राजाराम के नेतृत्व में जाटों ने मार्च 1688 ई. को सिकन्दरा स्थित बादशाह अकबर की कब्र खोदकर उसकी हड्डियों को जला दिया और वहां से सोने-चांदी के बर्तन तथा गलीचे आदि लूटकर ले गया।

इसके बाद गुस्साए औरंगजेब ने आमेर नरेश रामसिंह को राजाराम को दंडित करने के लिए भेजा। रामसिंह की मृत्यु हो जाने से उसका पुत्र बिशनसिंह व औरंगजेब के पौत्र बीदरबख्श ने राजाराम को उसी के क्षेत्र में मार गिराया तथा उसका सिर काटकर औरंगजेब के पास भिजवा दिया। बादशाह औरंगजेब ने राजाराम के कटे सिर के साथ आगरा में एक बड़ा उत्सव मनाया।

चूड़ामन (1688-1722 ई.)

राजाराम की मौत के बाद उसका भाई चूड़ामन साल 1688 में जाटों का नया नेता बना। साल 1704 में चूड़ामन ने सिनसिनी दुर्ग को मुगलों से छीन लिया। फरवरी 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगलों के उत्तराधिकार युद्ध का लाभ उठाकर चूड़ामन ने खूब लूटमार मचाई।

बेहद चालाक चूड़ामन ने उत्तराधिकार युद्ध में विजयी मुगल बादशाह बहादुरशाह का साथ दिया। ऐसे में बादशाह बहादुरशाह ने खुश होकर चूड़ामन को 1500 जात तथा 500 सवारों की मनसबदारी प्रदान की। ऐसे में चूड़ामन एक लुटेरे से राजा बन गया।

यही वजह है कि चूड़ामन को ही जाट साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है। चूड़ामन ने थून को अपनी राजधानी बनाया और पुराने किले के स्थान पर एक मजबूत किला खड़ा कर दिया। जहांदरशाह के पश्चात जब फर्रूखशिर दिल्ली की गद्दी पर बैठा तब उसने चूड़ामन को राव बहादुर खान की उपाधि दी।

चूड़ामन के दो पुत्रों मौखमसिंह तथा जूलकरण में सम्पत्ति को लेकर विवाद हुआ। चूड़ामन ने जब इस विवाद को सुलझाने का प्रयास किया तब मौखमसिंह ने चूड़ामन का अपमान किया। इस गृहकलह से परेशान होकर चूड़ामन ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली।

चूड़ामन की मृत्यु के पश्चात मौखमसिंह ने स्वयं को जाटों का नेता घोषित किया। उसने भावसिंह के पुत्र बदन सिंह को खोह नामक स्थान पर कैद कर लिया। हांलाकि मौखमसिंह ने अपने गुरू माखनदास बैरागी के कहने पर बदनसिंह को कैद से मुक्त कर दिया।

इसके बाद बदन सिंह सीधे आमरे पहुंचा और उसने सवाई जयसिंह से मदद मांगी। सवाई जयसिंह ने मुगल बादशाह के कहने पर थून किले पर आक्रमण कर दिया। बदन सिंह की मदद से सवाई जयसिंह ने थून किले पर विजय प्राप्त कर ली। इसके बाद 17 नवम्बर 1722 ई. की रात में मौखमसिंह और उसके भाई जूलकरण ने भागकर जोधपुर महाराजा के यहां शरण ली।

बदन सिंह (1722-56 ई.)

थून किले पर विजय प्राप्त करने के पश्चात सवाई जयसिंह ने 23 नवम्बर 1722 ई. को बदन सिंह के सिर पर पगड़ी बाधकर और राजतिलक लगाकर उसको चूड़ामन का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, साथ ही उसे निशान, नक्कारा तथा पचरंगा झंडा प्रदान कर ब्रजराज की उपाधि से नवाजा तथा डीग की जागीर प्रदान की।

तत्पश्चात बदनसिंह ने 1722 ई. में भरतपुर नामक नवीन रियासत का गठन कर डीग के किले व जलमहलों का निर्माण शुरू करवाया। यही वजह है कि चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह को जाट साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।

अहमद शाह अब्दाली ने बदन सिंह को 1752 ई. में राजा की उपाधि दी। बाद में इसमें महेन्द्र शब्द जोड़ा गया। बदन सिंह ने भरतपुर, कुम्हेर, वैर, डीग के किलों का निर्माण करवाया।

जीवन के अंतिम दिनों में बदनसिंह के आंखों की रोशनी बेहद कम हो गई, इसलिए उसने अपने गैलड़ पुत्र सूरजमल को भरतपुर का शासन सौंप दिया और 1734 ई. में सहार चला गया। सहार में ही 7 जून 1756 ई. को बदनसिंह की मृत्यु हो गई।

सूरजमल (1756-63 ई.)

सूरजमल के पिता का नाम रूपसिंह तथा मां का नाम देवकी था। देवकी अत्यंत सुन्दर थी, जब देवकी विधवा हो गई तब वह अपने पुत्र सूरजमल के साथ अपनी बहन से मिलने गई। इस दौरान देवकी की बहन का पति बदनसिंह उसकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गया और उसने देवकी से विवाह कर लिया। बाद में सूरजमल इतना योग्य निकला कि बदन सिंह ने अपने असली पुत्रों की जगह सूरजमल को ही अपना उत्तराधिकारी बनाया।

बदन सिंह के दत्तक पुत्र सूरजमल को जाट जाति का प्लेटो अथवा अफलातून कहा जाता है। पानीपत के तीसरे युद्ध में सूरजमल तटस्थ रहा। हांलाकि 12 जून 1761 ई. को सूरजमल ने आगरा पर कब्जा कर उसे खूब लूटा।

25 दिसम्बर 1763 ई. को महाराजा सूरजमल ने तकरीबन साढ़े तीन शाहदरा के पास हिंडन नदी को पार किया। महाराजा सूरजमल के पास 6000 घुड़सवारों की एक सेना थी जहां नजीब की सेना के साथ उसका घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में महाराजा सूरजमल वीर गति को प्राप्त हुआ। शहादरा में महाराजा सूरजमल की समाधि बनी हुई है।

जवाहर सिंह (1763-1769 ई.)

सूरजमल अपने बड़े बेटे जवाहर सिंह से नाराज था क्योंकि 1756 ई. में उसने सूरजमल के विरूद्ध बगावत की थी। ऐसे में सूरजमल ने अपने जीवित रहते ही छोटे पुत्र नाहरसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। अत: सूरजमल की मृत्यु के पश्चात जाट सरदारों ने नाहर सिंह को भरतपुर की गद्दी पर बैठाया। परन्तु सूरजमल की रानी किशोरी के कहने पर जाट सरदारों ने नाहरसिंह की जगह जवाहर सिंह को भरतपुर का राजा बनाया।

इस प्रकार सूरजमल के बाद जवाहर सिंह भरतपुर का शासक बना। सूरजमल की रानी किशोरी ने अपने पति के हत्यारे अफगानों से बदला लेने के लिए जवाहर सिंह को दिल्ली भेजा। जवाहर सिंह ने दिल्ली पर आक्रमण कर इस शहर को खूब लूटा, यहां तक कि वह अपने साथ लाल किले से अष्टधातु के किवाड़ तथा काले संगमरमर का सिंहासन भी ले आया। जानकारी के लिए बता दें कि लालकिले में लगे अष्टधातु के किवाड़ वर्तमान में भरतपुर के लोहागढ़ दुर्ग में लगे हैं जबकि काले संगमरमर से बना सिंहासन डीग के महलों में रखा हुआ है।

दिल्ली विजय की स्मृति में जवाहर सिंह ने भरतपुर में जवाहर बुर्ज का निर्माण करवाया। अगस्त 1769 ई. में एक सैनिक ने जवाहर सिंह की हत्या कर दी। जवाहरसिंह की मौत के साथ ही जाट साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया।

रणजीत सिंह (1777-1805 ई.)

1777 ई. में रणजीत सिंह भरतपुर का शासक बना। साल 1803 में द्वितीय मराठा युद्ध के समय जब भरतपुर के राजा रणजीत सिंह ने मराठा सरदार यशवन्त राव होल्कर को सहायता दी तो अंग्रेज जनरल लेक ने डीग को घेर लिया और उस पर कब्जा कर लिया।

जनरल लेक ने भरतपुर की भी घेराबंदी की लेकिन वह भरतपुर के लोहागढ़ किले को जीतने में असफल रहा। ऐसा कहते हैं कि जनरल लेक ने लोहागढ़ किले पर ससैन्य 13 बार हमला किया लेकिन हर बार असफल रहा। अंत में विवश होकर ब्रिटिश हुकूमत ने भरतपुर के राजा रणजीत सिंह से 29 सितम्बर 1803 ई. को एक संधि कर ली। राजस्थान की पहली रियासत थी भरतपुर जिसके राजा रणजीत सिंह ने ब्रिटिश हुकूमत को युद्ध में करारी शिकस्त दी।

अन्य जाट महाराजा (1805 से 1947 ई. )

रणजीत सिंह के पुत्र रणधीर सिंह ने 1805 से 1823 ई. तक भरतपुर राज्य पर शासन किया। राजा रणधीर सिंह के बाद उसका छोटा भाई बलदेव सिंह भरतपुर की गद्दी पर बैठा परन्तु बलदेव सिंह केवल 2 वर्ष ही ही शासन कर सका। तत्पश्चात बलदेव सिंह का पुत्र बलवन्त सिंह राजा बना जिसने 1825 से लेकर 1853 ई.तक राज किया।

बलवन्त सिंह के बाद उसका जसवंत सिंह, फिर जसवन्त सिंह का पुत्र राम सिंह व राम सिंह के पुत्र किशन सिंह ने भरतपुर राज्य का कार्यभार सम्भाला। इन तीन जाट राजाओं ने 1853 से लेकर 1929 ई. तक शासन किया।

तत्पश्चात 1929 ई. में महाराजा बृजेन्द्र सिंह भरतपुर की गद्दी पर बैठे जिन्होंने 1947 ई. तक शासन किया। महाराजा बृजेन्द्र सिंह को भरतपुर रियासत का अंतिम शासक माना जाता है।  28 दिसम्बर 1971 ई. को भारत सरकार ने उनसे शाही पद, उपाधियां और सम्मान आदि छीन लिए। 

भरतपुर राज्य से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

भरतपुर को लोहागढ़ तथा राजस्थान का पूर्वी द्वार भी कहा जाता है।

भरतपुर का नाम भगवान श्रीराम के अनुज भरत के नाम पर रखा गया था।

भरतपुर रियासत के राजा व उनके वंशज भगवान श्रीराम के भाई लक्ष्मण की पूजा अपने कुल देवता के रूप में करते थे।

भरतपुर के जाटों की कुलदेवी कैलादेवी हैं। वहीं कुछ अन्य सन्दर्भ ग्रन्थों में राजेश्वरी माता को कुलदेवी बताया गया है।

स्वतंत्र हिन्दू राज्य भरतपुर पर जाटों के सिनसिनवार वंश का शासन था।

भरतपुर के महाराजा सूरजमल ने अजेय लोहागढ़ किले को साल 1732 ई. में बनवाया था। कृत्रिम द्वीप पर बने इस किले को बनवाने में तकरीबन 8 साल लग गए।

लोहागढ़ किला अपनी दुर्जेय रक्षा के कारण 1732 ई. से लेकर 1825 ई. तक ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त रहा।

18 जनवरी 1826 ई. को लार्ड कॉम्बरमेयर के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने लोहागढ़ किले पर कब्जा कर लिया।

साल 1826 में भरतपुर रियासत को एक संधि पत्र पर हस्ताक्षर करना पड़ा, जिसके बाद से भरतपुर रियासत ब्रिटिश हुकूमत के अधीन हो गई।

गर्मी के दिनों में शाही निवास के लिए महाराजा सूरजमल ने साल 1730 में डीग महल का निर्माण करवाया था।

लोहागढ़ दुर्ग से 10 किमी की दूरी पर मौजूद केवलादेव घाना राष्ट्रीय पक्षी उद्यान भी महाराजा सूरजमल के द्वारा ही विकसित किया गया था, यह राष्ट्रीय उद्यान जाट राजाओं का पसन्दीदा शिकार स्थल था।

दो नदियों गंभीर और बाणगंगा के संगम पर अजान बांध का निर्माण महाराजा सूरजमल ने करवाया था।

महाराजा सूरजमल के समय भरतपुर राज्य का राजस्व 17,500,000 स्वर्ण सिक्के प्रति वर्ष था।

जवाहर सिंह के समय में भरतपुर राज्य के पास 25,000 पैदल सैनिक, 15,000 घुड़सवार और 300 तोपों की एक बड़ी सेना थी।

साल 1761 से लेकर 1774 ई. तक तकरीबन 13 वर्षों तक आगरा पर भरतपुर के जाट राजवंश का शासन था।

18 फरवरी 1774 ई. को मुगल सैन्य अफसर मिर्जा नजफ खान ने आगरा पर कब्जा कर लिया।

1760 के दशक में भरतपुर साम्राज्य अपने चरम पर था। आधुनिक पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के हिस्से पर जाटों का नियंत्रण था।

साल 1722 से 1826 तक भरतपुर एक स्वतंत्र हिंदू राज्य था। जबकि 1826 से 1947 ई. तक यह जाट रियासत ब्रिटिश शासन के अधीन थी।

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