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Indian sailors used to sea voyage without magnetic compass, how?

मैग्नेटिक कम्पास के बिना समुद्री यात्रा करते थे भारतीय नाविक, आखिर कैसे?

यूरोपीय नाविकों के भारत आगमन से पूर्व (सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक) भारतीय नाविकों द्वारा कुतुबनुमा यानि दिशा सूचक यंत्रों (Magnetic compass) के इस्तेमाल करने के पक्ष में कोई निर्णायक प्रमाण हमारे पास नहीं है। ऐसे में यह प्रश्न आपके दिमाग में भी कौंधता होगा कि भारतीय नाविक कुतुबनुमा के अभाव में रोमांचक समुद्री यात्रा किस तरह से पूरी करते होंगे क्योंकि विशाल समुद्र में बिना मैग्नेटिक कम्पास के दिशाओं का पता लगाना बेहद दुष्कर कार्य है।  इस स्टोरी में हम आपको बताने का प्रयास करेंगे कि भारतीय नाविक परम्परा के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाने वाली विशेष मौखिक सूचनाओं के जरिए समुद्री यात्रा को अंजाम देते ​थे। समुद्री यात्रा से जुड़ी वे मौखिक सूचनाएं क्या थीं, इसके लिए स्टोरी को ध्यान से पढ़ें।

भारत में समुद्री यात्रा के दौरान दिशा प्राप्त करने वाली सूचनाएं सुरक्षित और गोपनीय रखी गईं और मास्टर नाविक द्वारा अपने ही परिवार में अपने पसंदीदा उत्तराधिकारी को हस्तांतरि​त कर दी जाती थी। यूरोपीय नाविकों के भारत आगमन तक भारतीय नाविकों द्वारा नौसंचालन के परम्परागत तरीके में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुए थे।

भारतीय नाविक किस प्रकार से अपनी समुद्री यात्रा को अंजाम देते थे, इस सम्बन्ध में अबुल फजल द्वारा उल्लेखित जानकारी बेहद रोचक है। अबुल फजल  के मुताबिक, “मौलिम” जहाज पर एक महत्वपूर्ण नाविक होता था जो दिशाओं को पहचानने और सितारों की स्थिति पढ़ने में निपुण होता था। दिन के समय दोपहर में सिर के उपर सूर्य (उत्तर-दक्षिण) दिशा निर्धारित करने में सहायक सिद्ध होता था। रात को ध्रुव तारा (Pole star) उत्तर दिशा निर्धारित करने में सहायक सिद्ध होता था जबकि तारामंडल (constellations) क्षितिज में स्पष्ट दिशा पहचानने में मदद करता था। विशेष हवाओं को पहचाना जाता था और उनके नाम उन क्षेत्रों के नामों पर रखे जाते थे ; जिस ओर ये हवाएं बढ़ती थीं और जिनके सहारे ये जहाज आगे बढ़ते थे। कच्छ के नाविक दक्षिण-पूर्वी हवाओं को मालाबारी हवाएं कहते थे क्योंकि वे मालाबार तट पर ले जाती थीं।

कालान्तर में हवाओं, सूर्य और सितारों की मदद से दिशा प्राप्त करने की प्राचीन पद्धतियों का अध्ययन कर दिशा-सूचक कार्ड (compass cards) बनाए गए। ये दिशा सूचक कार्ड तटों की स्थिति सुनिश्चित करने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। कच्छ के नाविकों के बीच जो दिशा सूचक कार्ड बेहद प्रचलित था, उसमें पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण को क्रमश: ‘आगमन’ (उगता सूर्य), ‘अथमन’ (डूबता सूर्य), ‘ध्रुव’ (ध्रुव तारा) और ‘थोम’ या ‘चौकी’ (दक्षिणी क्रास) के रूप में दर्शाया गया था। चारों दिशाओं के बीच के कोणों को चार “लाल” यानि ‘सराती लाल’ (उत्तर-पूर्व), ‘मालाबारी लाल’ (दक्षिण -पूर्व), ‘बखाई लाल’ (उत्तर-पश्चिम) और ‘मकरानी लाल’ (दक्षिण-पश्चिम) के नाम से जाना जाता था। इस प्रकार दिशा सूचक कार्ड वस्तुत: क्षेत्रों की पहचान करता था। अगर कुछ एक विशेष दिशाओं के क्षेत्र पहचानने में​ दिक्कत होती थी तो ताराकृति नक्षत्र उनको नाम प्रदान करने में सहायक साबित होते थे।

बाद में समुद्र की कठिन यात्रा को सुगम बनाने के लिए भारतीय नाविकों ने नौसंचालन मानचित्रकारी में दक्षता हासिल की। दुर्भाग्यवश इस सम्बन्ध में कोई विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। फिलहाल कुछ देशी समुद्री मानचित्र मिले हैं। 1664 ई. के आस-पास एक कच्छ नाविक की एक नियमावली में कुछ एक मानचित्र पाए गए हैं जिन्हें परवर्ती मध्यकालीन भारत में नियमित रूप से इस्तेमाल होने वाले मानचित्रों का व्यापक रूप कहा जा सकता है। निश्चित क्रम में लगे विभिन्न मानचित्रों में आधुनिक कर्नाटक, केरल तटों और लंका के अलावा तमिलनाडु के दक्षिण तट के दूरवर्ती हिस्सों को दर्शाया गया है।

ये उपयोगी मानचित्र नाविकों को तटीय इलाकों में अपने जहाजों का पता लगाने की आवश्यक सूचनाएं प्रदान करते हैं। इस मानचित्र में ​विभिन्न स्थल चिह्नों की स्पष्ट पहचान के लिए उनकी क्षैतिज दूरियों और कोणीय दिशाओं का विशेष उल्लेख है। समुद्री दूरियों को ‘जाम’ में आंका गया है जो तीन घंटे में तय की गई दूरी की एक ईकाई है। तट की सामान्य रेखा अग्रभूमि के किनारे-किनारे एक समांतर रेखा के रूप में खींची गई है। इसी तरह अन्य उपयोगी संकेतों जैसे पानी की गहराई और ध्रुवीय अक्षांश का भी विशेष उल्लेख किया गया है।

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