
मोरक्को के प्रदेश तानजीर का निवासी शेख फकीह अबू अब्दुल्ला मुहम्मद भारत के मध्यकालीन इतिहास में ‘इब्नबतूता’ के नाम से विख्यात है। पूर्वीय देशों में उसे शमसुद्दीन के नाम से जाना जाता था। इब्नबतूता चौदहवीं शताब्दी का एक महत्वपूर्ण यात्री था जो सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में भारत आया था। इब्नबतूता ने उत्तरी अफ्रीका, अरब देश, फारस, कुस्तुनतुनिया आदि की यात्राएं की।
इब्नबतूता जब 21 वर्ष का था तब सन् 1325 ई. में तानजीर से मक्का के लिए रवाना हुआ। वह मार्ग में सिकन्दरिया, काहिरा, दमिश्क तथा मदीना होते हुए मक्का पहुंचा। मक्का में तीन साल रहकर उसने इस्लामी दर्शन का अध्ययन किया। इसके बाद मक्का से चलकर वह मिस्र, कुस्तुनतुनिया, समरकन्द, खुरासान, बल्ख, हेरात होते हुए 1333 ई. में सिन्ध पहुंचा। सिन्ध से अपनी यात्रा जारी रखते हुए वह उच्छ, मुल्तान होते हुए 20 मार्च 1334 ई. को दिल्ली पहुंचा।
इब्नबतूता विधि शास्त्र तथा धर्म शास्त्र का प्रकाण्ड विद्वान था। इब्नबतूता जब दिल्ली दरबार में आया तो उसने सुल्तान मुहम्मद बिन तुलगक को 30 घोड़े तथा अनेक दास उपहार में दिए। मुहम्मद बिन तुलगक ने भी उसका खूब स्वागत किया तथा दिल्ली का काजी (न्यायाधीश) नियुक्त किया। इस स्टोरी में हम आपको मोरक्को निवासी इब्नबतूता की दिल्ली के काजी पद पर नियुक्ति से जुड़ी रोचक जानकारी साझा करने की कोशिश करेंगे।
बतौर न्यायाधीश (काजी) इब्नबतूता
बता दें कि सल्तनत के सैनिक एवं असैनिक प्रशासन का मुख्य केन्द्र बिन्दु सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ही था परन्तु उसने अनेक बड़े पदाधिकारियों की नियुक्ति कर रखी थी। इनमें दिल्ली के काजी (न्यायाधीश) पद पर इब्नबतूता की नियुक्ति की गई थी। बतौर काजी इब्नबतूता का वार्षिक वेतन 12000 टंका (स्वर्ण दीनार) था। इसके साथ ही उसे एक घोड़ा तथा मेहराबी खिल्लत प्रदान किया गया जिसके सामने तथा पीछे मेहराब के चित्र बने हुए थे। काजी पद पर नियुक्त होने से पहले इब्नबतूता को एक इकरारनामा (शपथपत्र) पर दस्तखत करना पड़ा था कि “जब तक वह उस पद पर नियुक्त रहेगा स्वदेश वापस नहीं जा सकता है।”
इब्नबतूता अपने ग्रन्थ ‘रेहला’ में लिखता है कि “चीन तथा मिस्र के समान यहां भी मुकदमों का पंजीकरण होता था जिसके लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता था।” यहां तक कि सुल्तान के विरूद्ध भी मुकदमों का पंजीकरण काजी के न्यायालय में ही होता था। बतौर उदाहरण- जब शेख शिहाबुद्दीन ने सुल्तान पर अत्याचारी होने का आरोप लगाया था तो सुल्तान ने न्यायालय में स्वयं उपस्थित होकर काजी द्वारा निर्धारित दंड को स्वीकार किया था। इसका तात्पर्य यह है कि न्यायालय का अस्तित्व स्वतंत्र था जिसकी परिधि में स्वयं सुल्तान भी आता था।
काजी के पद पर नियुक्त इब्नबतूता जब भी किसी मुकदमें के सिलसिले में किसी व्यक्ति को बुलाता था तो उसे एक सादा और कभी-कभी लिखा हुआ नोटिस भेजा करता था। इस आदेश के मिलते ही अपराधी को न्यायालय में पेश होना पड़ता था अन्यथा वह उस अपराधी को कठोर दंड देता था।
कोई भी व्यक्ति काजी के आदेश के बगैर न्यायालय में प्रवेश नहीं कर सकता था। यहां तक कि शस्त्र लेकर भी कोई व्यक्ति न्यायालय में नहीं जा सकता था। प्रत्येक व्यक्ति को न्यायालय में सबसे पहले काजी का अभिवादन करना पड़ता था। इस प्रकार काजी तथा न्यायालय को बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।
इब्नबतूता की कमजोरी
इब्नबतूता एक स्पष्ट वक्ता तथा जिज्ञासु प्रवृत्ति का शख्स था। प्रत्येक नई बात को गहन दृष्टि से देखने तथा उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की उसकी आदत थी। वह विद्यानुरागी एवं विद्वान भी था। वह स्वभाव से हंसमुख एवं आकर्षक था परन्तु उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि वह बेहद खर्चीले स्वभाव (अपव्ययी) का था। सुल्तान से बार-बार कर्ज मांगना उसका स्वभाव बन चुका था, इस बात के लिए सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने उसे चेतावनी भी दी थी।
चीन का राजदूत बनकर निकला फिर कभी नहीं लौटा
इब्नबतूता तकरीबन आठ वर्ष तक दिल्ली में रहा, इस दौरान उसने देखा कि सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक उदारता और क्रूरता का एक असाधारण मिश्रण है जिसे सबसे अधिक दान देने और सबसे अधिक रक्त बहाने में आनन्द आता है। इब्नबतूता ने दरबार में अपने कई दोस्तों को सुल्तान के कोपभाजन का शिकार होते देखा। इन सब बातों से डरकर इब्नबतूता ने अतिशीघ्र दिल्ली छोड़ने का मन बना लिया।
कहते हैं कि इसका मौका भी इब्नबतूता को जल्द ही मिल गया। दरअसल एक सूफी संत ने मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में आने से मना कर दिया, इस बात से क्रोधित होकर सुल्तान ने उसका सिर धड़ से अलग करवा दिया। इतना ही नहीं, मुहम्मद बिन तुगलक ने उस सूफी संत के रिश्तेदारों और दोस्तों की एक सूची तैयार करवाई जिसमें इब्नबतूता का नाम भी शामिल था। फिर क्या था, सुल्तान ने इब्नबतूता को 3 सप्ताह तक नजरबंद रहने की सजा सुनाई।
इब्नबतूता को ऐसा महसूस हुआ कि सुल्तान उसकी भी हत्या करवा सकता है, इसीलिए वह किसी भी तरह दिल्ली से निकल जाना चाहता था। संयोगवश 1342 ई.में मुहम्मद बिन तुगलक ने उसे अपना राजदूत बनाकर चीन भेजा। ऐसे में सुल्तान से मिले ढेर सारे तोहफे लेकर इब्नबतूता 22 जुलाई 1342 ई. को दिल्ली से चीन के लिए निकल पड़ा।
चीन जाते समय इब्नबतूता अभी कालीकट ही पहुंचा था, तभी समुद्री डाकूओं ने उसे लूट लिया। इब्नबतूता के पास महज दस टंके शेष थे। ऐसे में वह किसी तरह 1345 में चीन के क्वानझोउ के हलचल भरे वाणिज्यिक केंद्र में पहुंचा। तकरीबन एक वर्ष तक चीनी सम्भ्यता और संस्कृति का अध्ययन करने के बाद इब्नबतूता ने 1346 ई. में सुमात्रा, मालाबार और खाड़ी देशों के रास्ते अपने देश मोरक्को लौटने की यात्रा शुरू की। शिराज, बसरा व बगदाद होते हुए इब्नबतूता नवम्बर 1348 ई. में मक्का पहुंच गया। मक्का में हज की रस्म अदा करने के बाद काहिरा होते हुए वह 1349 ई. मोरक्को के प्रसिद्ध नगर तानजीर पहुंच गया।
इब्नबतूता की मृत्यु
बेहद घुमक्कड़ इब्नबतूता कुछ समय तक तानजीर में रहा, इसके बाद वह स्पेन की ओर निकल पड़ा, यहां से 1352 ई. में उसने मध्य अफ्रीका जाने की तैयारी की। मध्य अफ्रीका की यात्रा पूरी करने के बाद 1353 ई. में इब्नबतूता पुन: मोरक्को लौट आया। इसके बाद वह सुल्तान अबू ईनान मारिनी के दरबार में पहुंचा। सुल्तान अबू ईनान ने उसे प्रोत्साहित किया और जिन-जिन देशों की उसने यात्रा की थी, उसका विवरण लिखने के लिए कहा। इब्नबतूता ने अपनी विचित्र और आश्चर्यजनक यात्रा वृत्तांत का पूर्ण विवरण लिखवाया। इसके बाद सुल्तान अबू ईनान मारिनी ने मुहम्मद इब्ने मुहम्मद कलबी को इसे मूल पुस्तक के रूप में संकलित करने का आदेश दिया। सुल्तान के आदेशानुसार, इब्नबतूता के यात्रा वृत्तांत का संकलन 1356 ई. में समाप्त हुआ और यात्रा वृत्तांत से परिपूर्ण इस ग्रन्थ का नाम ‘रेहला’ रखा गया। 1377-78 ई. में 73 वर्ष की उम्र में इब्नबतूता का मोरक्को में देहान्त हो गया। इब्नबतूता को उसके गृहनगर तानजीर में ही दफनाया गया।
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