ब्लॉग

How did neo-imperialist forces enter independent India?

आजाद भारत में नव-साम्राज्यवादी ताकतों ने आखिर कैसे मारी एन्ट्री?

ब्रिटेन द्वारा हस्तगत समस्त उपनिवेशों विशेषकर भारत में आर्थिक शोषण की शुरूआत धन निकास सिद्धान्त’ (Drain of Wealth) के तहत की गई, जिसमें कच्चे माल तथा बाजार के उपभोक्तावादी व्यवस्था दोनों की शुरूआत हुई। यूरोप के इस उपनिवेशवादी संघर्ष में ब्रिटेन एक महाशक्ति के रूप में उभरा लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आई आर्थिक मन्दी ने ब्रिटेन की शक्ति को कमजोर करने का काम किया।

इतना ही नहीं, द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका एक परम शक्तिशाली (Super Power) देश के रूप में उभरा। दरअसल ​प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका की कोई विशेष क्षति नहीं हुई, अतिरिक्त जापान द्वारा अमेरिकी नौसैनिक अड्डे पर्ल हार्बर पर आक्रमण के। ऐसे में अमेरिका ने ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए शक्ति अ​र्जित करना आरम्भ किया जिसमें दुर्भाग्यवश उसके एकमात्र प्रतिद्वंदी देश सोवियत संघ के विभक्तिकरण ने उसे पूरे विश्व का नेतृत्वकर्ता बना दिया।

अब अमेरिका ने महसूस किया ​कि पुरानी उपनिवेशवादी व्यवस्था को कायम रखना राजनीतिक चेतनायुक्त समाज में असम्भव है। अत: उसने विकास एवं सहायता’ (Development and Aid) के नाम पर कुछ बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे- विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं विश्व व्यापार संगठन के जरिए एक नए साम्राज्यवादी व्यवस्था की शुरूआत की जो आज तक निरन्तर प्रगतिशील है।

भारत का ब्रिटेन के साथ संवैधानिक समझौता

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवादी शक्तियों ने कई देशों को आजादी दी जैसे- वियतनाम, उत्तर कोरिया, ईरान, जॉर्डन, फिलीपींस, श्रीलंका, इजरायल, म्यांमार और दक्षिण कोरिया। इनमें से एक नाम भारत भी है, जिससे अलग होकर पाकिस्तान बना।

इन सभी आजाद देशों के अपने सपने थे, दुनिया की अपनी समझ थी और विकास की अपनी योजनाएं थी परन्तु भारत को जो आजादी मिली वह किसी राजनीतिक क्रांति का प्रतिफल नहीं थी बल्कि यह आजादी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ हुए एक संवैधानिक समझौते के तहत हासिल हुई थी। 1

इतना ही नहीं, आजादी के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने ऐसी समस्याओं में तनिक भी रूचि नहीं ली कि स्वतंत्र भारत के भावी राज्य की कौन सी संरचना उपयुक्त रहेगी आदि। 2 ऐसे में केवल यह कहना काफी नहीं है कि भारत को आजादी मिली। चूंकि आजादी से पहले भारत को विश्व अर्थव्यवस्था में महज एक ऐसे देश के रूप में शामिल किया गया था जो निम्न तकनीक तथा कच्चे माल की सप्लाई करता था और उच्च तकनीक तथा महंगी उत्पादित वस्तुओं का बाजार मात्र था।

अत: औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के पीछे केवल यही महत्वाकांक्षा निहित थी कि साम्राज्यवादी देशों के साथ हमारे जो रिश्ते हैं उन्हें उलट दिया जाए। परन्तु ठीक इसके विपरीत संवै​धानिक समझौते (माउण्टबेटेन प्लान) के तहत सुलहवादी चरित्र का एक बुरा नतीजा यह निकला कि आजादी के बाद भी साम्राज्यवाद के समूचे प्रशासकीय तंत्र को बरकरार रखा गया।

साम्राज्यावादी प्रशासन तंत्र की मौजूदगी

ब्रिटेन के साथ हुए संवैधानिक समझौते का यह नतीजा निकला कि साम्राज्यवादी दलालों और चाटुकारों की वही पुरानी नौकरशाही, न्यायपालिका और पुलिस के वही पुराने तरीक बरकरार रहे जैसे- पुलिस द्वारा निहत्थे लोगों पर गोलाबारी, लाठीचार्ज, सभाएं करने पर पाबन्दी, अखबारों की बन्दी, बिना किसी आरोप के लोगों को हिरासत में रखना आदि। हिन्दुस्तान में साम्राज्यवादी पूंजीनिवेशों तथा वित्तीय हितों की बड़े लगन से हिफाजत की गई।

शुरूआत में ही ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड माउण्टबेटेन को ही आजाद भारत के सत्ता प्रधान के रूप में उसके पुराने ओहदे पर बरकरार रखा गया। इसी के साथ शुरूआती दौर में ही मजदूरों तथा किसानों के असंतोष पर जबरदस्त दमन चक्र चलाया गया। बतौर उदाहरण- 1949 ई. में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के 25000 नेता जेल में बन्द थे। 3

जहां एक तरफ 15 अगस्त 1947 ई. से अगस्त 1950 तक के तीन वर्षों में पुलिस या सेना ने जनप्रदर्शनों पर कम से कम 1982 बार गोलाबारी की। 3784 लोगों को मार डाला, 10000 लोग घायल हुए, 50000 लोगों को जेल में डाल दिया और 82 कैदियों को जेल में ही गोली मार दी गई।

साम्राज्यवादी आर्थिक हितों की हिफाजत

वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग ने हिन्दुस्तान में मौजूद साम्राज्यवादी आर्थिक हितों की हिफाजत करते हुए विदेशी पूंजी को हिन्दुस्तान में आने का लालच देने के लिए शुरू में ही गारण्टी दिया कि अगले 10 वर्षों तक किसी भी आर्थिक गतिविधि का राष्ट्रीयकरण नहीं होगा। 4 दरअसल भारत में पूंजीपति वर्ग की उत्पत्ति भारतीय समाज नहीं वरन विदेशी पूंजीवाद के धक्के और प्रभाव से हुई थी। क्योंकि उस समय जो कम्पनियां खुद को स्वदेशी कहती थीं वे भी कैपिटल गुड और तकनीकी के लिए विदेशी ​शक्तियों पर ही निर्भर थीं। उन दिनों चाहे तैयार माल विदेश से आए अथवा भारत में कारखाने लगाने के लिए आवश्यक मशीन व तकनीकी इंजीनियर मंगाए जाएं, दोनों ही परिस्थितयों में विदेशी प्रभुत्व कायम रहता था। 5

आजादी से पहले विदेशी पूंजी के सम्बन्ध में मशहूर उद्योगपति सर पुरूषोत्तम दास ठाकुर और बिड़ला का कहना था कि भारत की मुक्ति विदेशी पूंजी के साथ समझौते में है” (पुरूषोत्तम दास ठाकुर का पत्र बिड़ला के नाम, 4 जुलाई 1932 ई., पी.टी.पेपर्स फाईल 107, पार्ट एक, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम, दिल्ली) साल 1944 में बम्बई प्लान के जनक जे.आरडी. टाटा, घनश्यामदास बिड़ला, पुरूषोत्तम दास ठाकुर, श्रीराम आदि के बारे में प्रो. पी.ए.वाडिया तथा के.वी. मर्चेण्ट की टिप्पणी उल्लेखनीय है-“ बाम्बे प्लान के जनक की मंशा है कि भविष्य में पूंजी निवेश के लिए विदेशी पूंजी और भारतीय पूंजी का गठबन्धन जरूरी है 6

लिहाजा 1944 ई. में गवर्नर जनरल लार्ड वेवेल ने जे. आर. डी. टाटा और जी.डी. बिड़ला के नेतृत्व में एक व्यापारिक​ शिष्टमण्डल का निर्माण कर इंग्लैण्ड और अमेरिका भेजने की तैयारी शुरू की थी जो 1945 की गर्मियों में उन देशों में गया। इस व्यापारिक नेतृत्व ने वहां गठबन्धन और पूंजी की तलाश की। तत्पश्चात बालचंद हीराचंद और क्राइसल (अमेरिका), किर्लोस्कर और ब्रिटिश आयल इंजन, इनफील्ड और बिड़ला, टाटा और आई.सी. आडे के बीच एक संयुक्त उपक्रम के प्रस्ताव पर विमर्श हुआ। इस प्रकार भारत के शीर्ष उद्योगपति पूंजी उपस्कर, अभियंता के लिए अधिकाधिक विदेश पर निर्भर होते गए। 7  

साल 1929 के अपने अध्यक्षीय भाषण में जिस पं. ​नेहरू ने कहा था कि मैं समाजवादी हूं, मेरा राजाओं और महाराजाओं में विश्वास नहीं है, न ही मैं उस उद्योग में विश्वास करता हूं जो आधुनिक राजे-महाराजे पैदा करते हैं जो पुराने राजे-महाराजाओं से भी अधिक जनता की जिन्दगी और तकदीर को नियंत्रित करते हैं 8  उसी पं. नेहरू ने 1963 ई. के शुरू में सटर्डे इवनिंग पोस्ट के साथ अपने बातचीत में दावा किया कि ब्रिटेन की कम्पनियां आज अंग्रेजी राज्य के जमाने से ज्यादा मुनाफा कमा रही हैं। यहां तक कि विस्टन चर्चिल ने भी इस बात पर काफी संतोष प्रकट किया। हांलाकि अप्रैल,1963 में कांग्रेस फोरम में पं. नेहरू ने इस बात पर भी अफसोस जाहिर किया कि तमाम कोशिशों के बावजूद हिन्दुस्तान में धनी और निर्धन वर्ग के बीच खाई बढ़ती जा रही है। 9

विदेशी सहायता पर निर्भर हुआ हिन्दुस्तान

इस प्रकार अब धीरे-धीरे हिन्दुस्तान की विदेशी सहायता पर निर्भरता काफी बढ़ गई। विदेशी सहायता का बढ़ता हुआ हिस्सा पहले मिली सहायता का सूद चुकाने में लगने लगा। बेरोजगारों की तादाद पहली योजना के अंत में 55 लाख और दूसरी योजना के अंत में 71 लाख और तीसरी योजना के अंत में 96 लाख पहुंच गई। 1962 ई. में योजना आयोग ने बताया कि फिलहाल हिन्दुस्तान की दो तिहाई जनता भूखमरी के कगार से गुजर रही है 10

हांलाकि इन आंकड़ों की गिरावट के बावजूद हिन्दुस्तान की राजनीति में कुछ उछाल आया था जैसे- इंग्लैण्ड की महारानी ने भारत को राष्ट्रमण्डल का गणराज्य स्वीकार किया, पं. नेहरू और स्टालिन के बीच कोरियाई युद्ध के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सक्रिय वार्ता की शुरूआत, कोलम्बों में हिन्दुस्तान ने पांच बड़े देशों के आयोजन का नेतृत्व किया, इसके साथ ही हिन्दी-चीनी सरकारों ने मिलकर वांडुग सम्मेलन आयोजित किया।

इसमें तकरीबन 29 देशों ने हिस्सा लिया जिनकी आबादी तकरीबन डेढ़ अरब थी, जो दुनिया की आबादी के बहुमत की आवाज थी। निश्चितरूप से यह दुनिया में नए शक्ति संतुलन को उजागर करने वाला था। साल 1955 में आयोजित वाडुंग सम्मेलन एक प्रकार से अमेरिकी और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के लिए खतरे की घंटी थी। साम्राज्यवाद के विरोध में राष्ट्रीय स्वाधीनता व समाजवाद के पक्ष में नई दुनिया उभर रही थी। दुनिया के दो सबसे बड़े आबादी वाले देश हिन्दुस्तान ​और चीन ने दोस्ती और सहयोग का रिश्ता कायम किया था। 11

भारत -चीन युद्ध और साम्राज्यवादी ताकतें

साम्राज्यवादी ताकतों को लगा कि अब उनके दिन लदने वाले हैं और दुनिया में समाजवाद की जीत तय है, अत: उन्होंने हिन्दुस्तान-चीन सीमा को जमकर इस्तेमाल किया। साम्राज्यवादी ताकतों ने इस मुद्दे को कुछ इस तरह से भड़काया ताकि दोनों देशों की दोस्ती और सहयोग की जगह टकरार और युद्ध हो, दुर्भाग्यवश यही हुआ, 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध की अप्रिय घटना घटी। इसके दुष्परिणाम बेहद हानिकारक हुए।

दोनों देशों के बीच युद्ध विराम के अतिरिक्त कोई विशेष समझौता नहीं हो सका। ऐसे में हिन्दुस्तान में वामपंथ का बढ़ना बन्द हो गया और पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों का हिन्दुस्तान के बड़े व्यापारियों के बीच उनके प्रतिक्रियावादी सहयोगियों का मकसद पूरा हो गया। इस प्रकार अमेरिकी और अंग्रेजी साम्राज्यावादियों को हिन्दुस्तान में अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका मिला।

अब धीरे-धीरे आर्थिक एवं वित्तीय क्षेत्रों में साम्राज्यवाद की घुसपैठ बढ़ती गई और विदेशी कर्जदाताओं ने खुलेआम ऐलान कर दिया कि वे सरकार की नीति को अपने मनमाफिक बदलवा सकते हैं। लिहाजा ​आर्थिक हालात बिगड़ते गए और आम जनता की हालत बदतर होती गई और बेरोजगारों की संख्या बढ़ती चली गई। साल 1964 में पं. नेहरू के निधन के पश्चात आर्थिक हालात और तेजी से बदले और विदेशी सहायता का आसरा बढ़ता ही गया। 12  इस प्रकार हमारे के देश के नीति-निर्माताओं ने विकास के नाम पर जो कर्ज राशि विकसित देशों से लेनी शुरू की नि:सन्देह वह आज तक कायम है।

सन्दर्भग्रन्थ सूची-

1-J.D.Tomlinson : the first world war and British cotton piece export to India, Economic History Review II, Sept.1979.

2- Jagdish Gandhi : Globlised Indian Economy, New Delhi,2003

3-Jain, R.K : U.S. South Asian Relation (1947-1982), Vol- III, Radiant Publisher, New Delhi, 1983

4-James A. Baker : The United states and other great Asian Power, 15 April,1996.

5- James M. Blant : The Colonizer’s Model of the world, Guilford Publication, Newyork, 1993.

6- James Petras and Henary Velt Meyer : Globlisation and Unmasked imperialism in 21st Century,Newyork.

7- Jawahar Lal Nehru, Discovery of India.

8- Jawahar Lal Nehru : Glimpses of world history,Bombay,1965.

9- Jawahar Lal Nehru : India’s Foreign Policy: Selected speeches,sept,1946-april 1961,Bombay.

10- Jawahar Lal Nehru : Report on the International Congress Against imperialism held at Brussels,The Inidian National Congress,1973.

11- Jha Akhileshwar : Intellectual at the cross road, New Delhi,1973.

12- Jim Potter : The American Economy between the world war, London,1974.

इसे भी पढ़ें : प्रयागराज के कुम्भ मेले के बारे में क्या लिखता है चीनी यात्री ह्वेनसांग?

इसे भी पढ़ें- भूपेन हजारिका : संगीत के जादूगर से भारत रत्न तक का सफर

इसे भी पढ़ें - उलगुलान महाविद्रोह : भगवान बिरसा मुंडा की शौर्य गाथा

इसे भी पढ़ें : भारतीय इतिहास के पांच शक्तिशाली हाथी जिनसे कांपते थे शत्रु