मुंडा आदिवासियों का महाविद्रोह 1899-1900 ई. के बीच हुआ। चूंकि मुंडा जाति में सामूहिक खेती का प्रचलन था, लेकिन जागीरदारों, ठेकेदारों (लगान वसूलने वालों), बनियों और सूदखोरों ने सामूहिक खेती की परम्परा पर हमला बोला। इन सभी लोगों के खिलाफ तथा सामूहिक खेती के लिए मुंडा सरदारों ने विद्रोह किया, जिनका नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुई लड़ाई को आधुनिक भारत के इतिहास में उलगुलान (महान हलचल) महाविद्रोह के नाम से जाना जाता है।
बिरसा मुंडा ने ऐसे सूदखोर महाजनों (आदिवासी लोग इन महाजनों को दिकू कहते थे) के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका जो कर्ज के बदले मुंडा आदिवासियों की जमीनें हड़प लिया करते थे, साथ ही उन्होंने अंग्रेजी सरकार द्वारा लागू जमींदारी प्रथा तथा राजस्व व्यवस्था के खिलाफ जंगल और जमीन के हक के लिए 1895 में उलगुलान महाविद्रोह की शुरूआत की। यह महाविद्रोह वास्तव में आदिवासियों की अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति के अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई थी।
बिरसा का जन्म बंटाई की खेती करने वाले एक परिवार में 1874 ई. में हुआ था। बिरसा मुंडा को बाँसुरी बजाने का शौक था। बिरसा मुंडा के कद-काठी की बात करें तो वह केवल 5 फ़ीट 4 इंच के थे, वह पढ़ाई में भी होशियार थे। बंटाईदार सुगना मुंडा ने अपने बेटे बिरसा को मिशनरियों से थोड़ी बहुत शिक्षा दिलवाई थी, जहां ईसाई धर्म की शिक्षा दी जाती थी। बाद में बिरसा मुंडा वैष्णवों के प्रभाव में आए। 1893-94 ई. में वह एक आन्दोलन में भी भाग ले चुके थे जो गांव की बंजर जमीन को वन विभाग द्वारा अधिगृहीत किए जाने से रोकने के लिए चलाया जा रहा था।
ऐसा कहा जाता है कि 1895 ई. में युवा बिरसा मुंडा को ईश्वर के दर्शन हुए और वह पैगम्बर होने का दावा करने लगे। बिरसा मुंडा का कहना था कि उनके पास निरोग करने की चमत्कारी शक्ति है। प्रतिदिन हजारों लोग बिरसा मुंडा का नया उपदेश सुनने के लिए मीलों दूर से चलकर आने लगे। बिरसा मुंडा ने भविष्यवाणी की थी कि भविष्य में प्रलय होने वाला है। इस प्रकार बिरसा मुंडा का धार्मिक आन्दोलन जल्द ही खेतिहर मजदूरों के राजनीतिक आन्दोलन में बदल गया।
24 अगस्त, 1895 ई. में षड्यंत्र रचे जाने के भय से ब्रिटीश सरकार ने बिरसा मुंडा को जेल भेज दिया। इसके बाद बिरसा मुंडा को पूरे 2 साल 12 दिन के बाद नवम्बर 1897 में रिहा किया गया। बिरसा मुंडा जब जेल से बाहर निकले तब तकरीबन 25 लोग उनके स्वागत में खड़े थे, उन्होंने बिरसा मुंडा को देखते ही ‘बिरसा भगवान की जय’ का नारा लगाया। इसके बाद बिरसा मुंडा ने कहा कि ‘आप सबको मुझे भगवान नहीं कहना चाहिए क्योंकि इस लड़ाई में हम सभी बराबर हैं।’ बिरसा मुंडा की यह पहली गिरफ्तारी थी हांलाकि बिरसा जेल से और अधिक कटटर विद्रोही बनकर लौटे।
साल 1898-99 में अनेक रात्रि सभाएं आयोजित की गईं जिसमें बिरसा मुंडा ठेकेदारों, जागीरदारों, राजाओं, हाकिमों और ईसाईयों को मार डालने की बात कहते और यह भी कहते थे कि शत्रु की बंदूकें और गोलियां पानी बन जाएंगी। किताब 'बिरसा मुंडा एंड हिज़ मूवमेंट' के लेखक केएस सिंह के मुताबिक बिरसा अपने भाषण में कहते थे— “डरो मत, मेरा साम्राज्य शुरू हो चुका है। सरकार का राज समाप्त हो चुका है। उनकी बंदूकें लकड़ी में बदल जाएंगी। जो लोग मेरे राज को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं उन्हें रास्ते से हटा दो।” इन सभाओं में ब्रिटीश राज के पुतले जलाए जाते और मुंडा लोग बड़े उत्साहपूवर्क और घृणा के साथ इस गीत को गाते थे—
कटोंग बाबा कटोंग, साहेब कटोंग कटोंग, रारी कटोंग कटोंग
अर्थात— काटो बाबा, काटो! यूरोपीयों को काटो....।
1899 ई. में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर बिरसा और उसके साथियों ने रांची और सिंहभूम के जिलों में 6 पुलिस थानों क्षेत्रों में तीर चलाए और चर्चों को जलाने के प्रयास किए। जनवरी 1900 में मुंडा आदिवासियों ने पुलिस को ही अपने तीरों का निशाना बना लिया जिससे रांची में भय की लहर फैल गई। बिरसा मुंडा और उनके साथियों ने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए छापामार लड़ाई का सहारा लिया। मुंडा सरदारों ने अंग्रेजों के झंडों को उखाड़कर सफेद झंडा लगाना शुरू कर दिया जो मुंडा राज का प्रतीक माना जाता था। ऐसे में अंग्रेजी सरकार ने 25 वर्षीय बिरसा को पकड़ने के लिए उन पर 500 रूपए का इनाम रखा था, उन दिनों यह बहुत बड़ी धनराशि थी।
बता दें कि बिरसा मुंडा का उलगूलान महाविद्रोह 1900 ई. तक छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल चुका था। उसी साल तकरीबन 89 ज़मीदारों के घरों में आग लगाई गई थी। बतौर उदाहरण— मुंडा आदिवासियों का विद्रोह इस कदर बढ़ चुका था कि राँची के जिला कलेक्टर को सेना की मदद माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
ब्रिटीश सेना और बिरसा मुंडा के बीच अंतिम और निर्णायक झड़प जनवरी 1900 ई. में डोम्बारी पहाड़ी पर हुई। इस पहाड़ी पर बिरसा मुंडा एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे तभी अंग्रेज सिपाहियों ने हमला कर दिया। तकरीबन छह हजार मुंडा तीर-तलवार, कुल्हाड़ी और अन्य हथियारों से लैस होकर बिरसा के साथ हो लिए। चूंकि अंग्रेजों के पास बंदूकें और तोपें थी लिहाजा 400 मुंडा मारे गए लेकिन बिरसा हाथ नहीं आए। जबकि ब्रिटीश रिकॉर्ड के मुताबिक सिर्फ 11 लोगों मारे गए थे। बाद में फरवरी 1900 के शुरूआत में ही बिरसा मुंडा को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिया और उन पर लूट, दंगा करने और हत्या के 15 मामलों में आरोप तय किए गए थे। रांची जेल में बिरसा मुंडा को तीन महीने तक किसी से भी मिलने नहीं दिया गया। बिरसा मुंडा को रोज केवल एक घंटे के लिए सूर्य की रोशनी प्राप्त करने के लिए जेल की कोठरी से बाहर निकाला जाता था।
जेल में एक दिन बिरसा मुंडा जब सोकर उठे तो उनके शरीर में दर्द उठा और उनके गले में ऐसी तकलीफ हुई कि एक बूंद पानी पीना भी मुश्किल हो गया। कुछ दिनों में उन्हें खून की उल्टियां भी शुरू हो गई थीं। लिहाजा 9 जून, 1900 को सुबह 9 बजे बिरसा मुंडा की मृत्यु हो गई। कहते हैं जीवन के अंतिम क्षणों में बिरसा के मुंह से शब्द निकले— 'मैं सिर्फ़ एक शरीर नहीं हूँ, मैं मर नहीं सकता। उलगुलान (आंदोलन) जारी रहेगा।' यद्यपि बिरसा के जेल साथियों के अनुसार उन्हें ब्रिटीश सरकार ने जहर दिया था। जबकि अंग्रेजों का कहना था कि बिरसा मुंडा की मौत हैजा की वजह से हुई, हांलाकि बिरसा मुंडा को हैजा होने के कोई भी साक्ष्य नहीं मिले थे।
महान उपन्यासकार महाश्वेता देवी अपने उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में बिरसा मुंडा के बारे में कुछ इस तरह से लिखती हैं- “सुगना मुंडा का 25 वर्षीय बेटा बिरसा मुंडा सवेरे आठ बजे खून की उलटी कर अचेत हो गया। एक विचाराधीन कैदी जो ब्रिटीश सरकार के हाथों 30 फरवरी को पकड़ा गया था, बावजूद इसके उस महीने के आखिरी सप्ताह तक बिरसा मुंडा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था.....हांलाकि क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत सी धाराओं में बिरसा मुंडा पकड़ा गया था, लेकिन बिरसा मुंडा जानता था कि उसे सजा नहीं मिलेगी। डॉक्टर को बुलाया गया उसने मुंडा की नाड़ी देखी। वो बंद हो चुकी थी। बिरसा मुंडा नहीं मरा था, बल्कि आदिवासी मुंडाओं का ‘भगवान’ मर चुका था।”