सिन्धु सभ्यता /हड़प्पा सभ्यता के पतन के पश्चात जो नई संस्कृति प्रकाश में आई उसके विषय में हमें सम्पूर्ण जानकारी वेदों से मिलती है। इसलिए इस काल को हम वैदिक काल के नाम से जानते हैं। इस सभ्यता का संस्थापक आर्यों को माना जाता है, इसलिए इसे ‘आर्य सभ्यता’ भी कहा जाता है। यह सम्भ्यता मूलत: ग्रामीण थी। आर्यों का जीवन मुख्यत: पुशचारण का था, कृषि उनका गौण धंधा था। यहां आर्य शब्द का अर्थ है- श्रेष्ठ, उत्तम, अभिजात्य, कुलीन, उत्कृष्ट एवं स्वतंत्र आदि।
वैदिक काल (1,500 ई.पू. से 600 ई.पू.) में वैदिक साहित्यों की रचना हुई जिनमें ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक इत्यादि शामिल हैं। वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया जाता है। अ- ऋग्वैदिक काल ब-उत्तर वैदिक काल।
ऋग्वैदिक काल (1500 ई.पू. से 1000 ई.पू.)-
‘वेद’ शब्द का अर्थ होता है- जानना जो ज्ञान का द्योतक है। कहा जाता है कि वेदों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से आदान-प्रदान होता रहा इसलिए इन्हें श्रुति (सुनना) अथवा दैवी ज्ञान भी कहा जाता है। ऋग्वैदिक काल का इतिहास हमें पूर्णतया ऋग्वेद से ही ज्ञात होता है।
ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम धार्मिक ग्रन्थ है, इसलिए इसे मानव जाति का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। ऋग्वेद में 10 मंडल, 1029 सूक्त और 10580 ऋचाएं हैं। ऋग्वेद का प्रथम एवं दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया। दसवें मंडल में ही प्रसिद्ध पुरुष सूक्त है, जिसमें ब्रह्मा के मुख, भुजाओं, जंघाओं और पैरों से क्रमश: चार वर्णों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति का उल्लेख है। शूद्र शब्द (सिर्फ एक बार) का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में मिलता है।
ऋग्वेद के प्रमुख रचनाकारों में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ का नाम शामिल है। ऋग्वेद के द्वितीय से सप्तम मंडल की रचना ऋषियों के एक ही परिवार द्वारा रचित है, इसलिए इन्हें ‘वंश मंडल’ भी कहा जाता है। दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे तथा सातवें मंडल के रचयिता क्रमश: गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ हैं। आठवें मंडल के रचनाकार कण्व और आंगिरस थे जो अनार्य माने जाते थे। ऋग्वेद का नौवां मंडल सोम देवता को समर्पित है। ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला एवं विश्वारा जैसी स्त्रियां भी वैदिक ऋचाओं की रचयिता थी जिनमें विदर्भराज की कन्या लोपामुद्रा प्रमुख थी।
भौगोलिक विस्तार-
भारत में आर्य सम्भवत: ईरान से होते हुए आए थे। भारत में आर्यों की जानकारी ऋग्वेद से मिलती है जो हिन्द-यूरोपीय भाषा का सबसे पुराना ग्रन्थ है। ऋग्वेद की अनेक बातें ईरानी भाषा के प्राचीनतम ग्रन्थ ‘अवेस्ता’ से मिलती हैं। अनुमानत: आर्यों का प्रसार अफगानिस्तान से गंगा घाटी तक था। ऋग्वैदिक आर्य सिन्ध व उसकी सहायक नदियों के क्षेत्रों में रहते थे जिसे ‘सप्त सैन्धव’ प्रदेश कहा गया है। सरस्वती तथा दृशद्वती नदियों के मध्य का प्रदेश ब्रह्मवर्त कहा जाता है, यह प्रदेश अत्यन्त पवित्र माना जाता है। जबकि हिमालय से विंध्य पर्वत तथा पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक का सम्पूर्ण क्षेत्र आर्यावर्त कहा जाता है।
ऋग्वेद में अनके नदियों और पर्वतों के नाम मिलते हैं। ऋग्वेद में हिमालय पर्वत का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। हिमालय की चोटी को ‘मूजवन्त’ कहा गया है। पश्चिम में कुभा (काबुल), क्रुमु (कुर्रम) गोमती, सुवास्तु नदियों के उल्लेख से यह पता चलता है कि अफगानिस्तान भी उस समय भारत का ही अंग था। इसके बाद पंजाब की पांच नदियों सिन्धु, वितस्ता (झेलम), चेनाब, रावी, विपासा (व्यास) का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद के नदी सूक्त में व्यास नदी को ‘परिगणित नदी' कहा गया है। इसके साथ ही शतुद्री (सतलज), सरस्वती, यमुना तथा गंगा के नाम भी मिलते हैं।
ऋग्वैदिक काल की सबसे महत्वपूर्ण नदी सिन्धु है, इसके बाद दूसरी सर्वाधिक पवित्र नदी सरस्वती थी। ऋग्वेद में सरस्वती को ‘नदीतमा’ (नदियों में प्रमुख) कहा गया है। ऋग्वेद में गंगा का एक बार और यमुना का तीन बार उल्लेख मिलता है जबकि नदियों की संख्या लगभग 25 बताई गई है।
राजनीतिक व्यवस्था
पितृसत्तात्मक परिवार आर्यों के कबीलाई समाज की बुनियादी इकाई थे। आर्यों के पांच कबीलों को ‘पंचजन्य’ कहा गया है, जिनके नाम क्रमश: थे- अनु, द्रुहु, पुरू, यदु तथा तुर्वस। ग्राम, विश व जन उच्चतर इकाईयां थी। ग्राम सबसे छोटी राजनीतिक इकाई थी, जो कई परिवारों का समूह थी। ग्राम का प्रधान ‘ग्रामणी’ होता था। जबकि गांवों का समूह विश होता था जिसका प्रधान ‘विशपति’ कहलाता था। जन का अधिपति ‘जनपति’ या ‘राजा’ कहा जाता था। देश या राज्य के लिए राष्ट्र शब्द आया है। ऋग्वेद में ‘जन’ शब्द का उल्लेख 275 बार मिलता है जबकि जनपद शब्द का एक बार भी उल्लेख नहीं मिलता है।
ऋग्वैदिक काल में राजा का पद आनुवांशिक हो चुका था, लेकिन उसके अधिकार सीमित थे। समिति के द्वारा राजा को चुने जाने के उल्लेख मिलते हैं। राजा को कबीले का संरक्षक (गोप्ता जनस्य) तथा पुराभेत्ता (नगरों पर विजय पाने वाला) कहा गया है। राजा के लिए ‘गोप’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
ऋग्वेद में सभा (8 बार), समिति (9 बार) तथा विद्थ (122 बार) तथा गण (46 बार) नामक कबीलाई परिषदों का उल्लेख है। विद्थ आर्यों की सर्वाधिक प्राचीन संस्था थी, इसे जनसभा भी कहा जाता था। सभा श्रेष्ठ एवं अभिजात लोगों की संस्था थी। जबकि समिति जनता की प्रतिनिधि सभा थी। समिति को राजा को नियुक्ति, पदच्युत करने व उस पर नियंत्रण का अधिकार था। समिति का सभापति ईशान कहा जाता था। ऋग्वैदिककालीन महिलाएं सभा एवं विदथ में भाग लेती थीं। ब्राजपति गोचर भूमि का अधिकारी एवं कुलप परिवार का मुखिया होता था। ऋग्वैदिक कालीन न्यायाधीशों को प्रश्नविनाक तथा गुप्तचरों को स्पश कहा जाता था। उग्र तथा जीव गृभ सम्भवत: पुलिस अधिकारी थे।
युद्ध के लिए राजा के पास सेना होती थी लेकिन यह सेना स्थाई नहीं थी। व्रात, गण, ग्राम और सर्ध नामक कबायली टोलियां युद्ध लड़ती थीं। ऋग्वेद में वर्णित शर्ध, व्रात तथा गण सेना की इकाईयां थी। भरत और त्रित्सु दोनों आर्यों के शासक वंश थे और पुरोहित वशिष्ठ इन दोनों वंशों के सम्पर्क में थे। कालान्तर में परूष्णी नदी के तट पर दाशराज्ञ युद्ध का उल्लेख मिलता है जिसमें भरत राजवंश के राजा सुदास और अन्य दस राजाओं के बीच युद्ध हुआ था। दाशराज्ञ युद्ध में सुदास की विजय हुई। पराजित जनों में सबसे प्रमुख पुरू थे।
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सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था
ऋग्वैदिक कालीन समाज पितृसत्तात्मक था, परन्तु स्त्रियों को पर्याप्त सम्मान प्राप्त था। परिवार के मुखिया को कुलप या गृहपति कहा जाता था। आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्याओं को अमाजू: कहा जाता था। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों को राजनीति में भाग लेने तथा सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे। पुत्री का उपनयन संस्कार किया जाता था। स्त्रियों को यज्ञ करने का अधिकार था।
ऋग्वैदिक काल में अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे। वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर कर्म पर आधारित थी, बतौर उदाहरण- ऋग्वेद में एक ऋषि कहता है कि “मैं कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं तथा मेरी माता अन्न पीसने वाली है, साधन भिन्न है परन्तु सभी धन की कामना करते हैं।”
ऋग्वेद में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के उदाहरण भी मिलते हैं। अनुलोम विवाह- ब्राह्मण विमद व राजकन्या कमद्यु क्षत्रिय का विवाह। ब्रह्मर्षि श्यावाश्व व राजा रथवीति की कन्या दार्म्य का विवाह। प्रतिलोम विवाह- महर्षि शुक्राचार्य की कन्या देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ। महर्षि अंगरिस की कन्या का राजा असंग के साथ विवाह। विधवाओं का पुनर्विवाह पुनर्भू कहलाता था। लड़कियों का विवाह यौवनावस्था के बाद किया जाता था। लड़कियां अविवाहित भी रह सकती थीं, जैसे-घोषा। नि:संन्तान स्त्रियों के लिए नियोग की अनुमति थी।
स्त्रियां वैदिक शिक्षा प्राप्त करती थीं तथा यज्ञ-होम आदि भी करती थीं। ऋग्वेद के आठवें मंडल में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, निवावरी, अपाला, आत्रेयी, शचि, पौलोमी, काक्षावृत्ति, इन्द्राणी एवं विश्वारा जैसी विदुषी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है। इन विदुषी स्त्रियों को ऋषि कहा गया है। विदर्भराज की कन्या लोपामुद्रा महर्षि अगस्त्य की पत्नी थी।
ऋग्वेद में दस्यु वर्ग का भी उल्लेख हुआ है। इनके लिए अनास (चपटी नाक वाले), मृधवाच: (कटुवाणी वाले) तथा अमानुष जैसे विशेषणों का प्रयोग हुआ है। दस्युओं को अदेवयु (देवताओं में श्रद्धा न रखने वाले), अब्रह्मन (वेदों को न मानने वाले) तथा अन्यव्रत (वैदिकोत्तर व्रतों को मानने वाले) तथा अयज्वन (यज्ञ न करने वाले) कहा गया है।
ऋग्वेद में फाल का उल्लेख मिलता है अर्थात् लोगों के जीवन का मूल आधार कृषि एवं पशुपालन थे। कृषि योग्य भूमि को उर्वरा अथवा क्षेत्र कहा जाता था। चारागाह के लिए गव्य शब्द प्रयुक्त है। हल को लांगल कहा जाता था। कीवाश हलवाहा होता था। गोबर की खाद को करीष या शकृत कहा जाता था। अनाज नापने का यंत्र उर्दर कहलाता था। ऋग्वेद में धनी व्यक्ति को गोमत कहा गया है। युद्ध के लिए गविष्टि शब्द का प्रयोग होता था अर्थात- गायों की खोज करना। अतिथि को गोधना तथा बेटी को दुहित्री (दूध दुहने वाली) कहा जाता था।
विनिमय के माध्यम के रूप में निष्क का भी उल्लेख हुआ है। बेकनाट (सूदखोर) वे ऋणदाता थे जो बहुत अधिक व्याज लेते थे। पशु ही सम्पत्ति का मुख्य अंग था। सम्पत्ति रयि की गणना मुख्यत: मवेशियों से ही होती थी। गाय मुद्रा की भांति समझी जाती थी, अधिकांश लड़ाईयां गायों के लिए लड़ी गयी थी। ऋग्वेद में एक ही अनाज यव का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में कृषि सम्बन्धी प्रक्रिया का उल्लेख चतुर्थ मंडल में मिलता है। पणियों से लोग डरते थे क्योंकि ये पशुचोर होते थे तथा पशु सम्पत्ति की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध भी होते थे। घोड़ा आर्य समाज का अति उपयोगी पशु था। इसके अतिरिक्त हाथी,उंट, बैल, भेड़, बकरी, कुत्ते आदि का भी उल्लेख है।
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धार्मिक व्यवस्था
ऋग्वैदिक लोग सार्वभौमिक सत्ता में विश्वास रखते थे। ऋग्वेद अनेक देवताओं का अस्तित्व मानता है हांलाकि देवियों की नगण्यता थी। तकरीबन सभी देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे। आर्यों के देवताओं की तीन श्रेणियां थीं— 1— आकाश देवता: सूर्य, वरूण, द्यौस, मित्र, पूषन, विष्णु, सवितृ, आदित्य, उषा, अश्विन आदि। 2— अंतरिक्ष के देवता: इन्द्र, रूद्र, मरूत, वायु, पर्जन्य, मातश्विन आदि। 3— पृथ्वी के देवता : अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि।
ऋग्वेद के सबसे महत्वपूर्ण देवता का नाम इन्द्र है जिसे पुरन्दर भी कहा गया है। ऋग्वेद में इन्द्र की स्तुति में 250 सूक्त हैं। दूसरे महत्वपूर्ण देवता का नाम अग्नि है। ऋग्वैद में इन्द्र को विभिन्न नामों से पुकारा गया है— रथेष्ट (कुशल रथ योद्धा), विजयेन्द्र (महान विजेता), पुरन्दर (शत्रुओं के किलों को नष्ट करने वाला), सोमपाल (सोम का पालन करने वाले), शतक्रतु (शक्ति धारण करने वाले), वृत्रहन (वृत्र राक्षस का संहार करने वाले), मधवा (अत्यधिक दानशील) ।
ऋग्वेद में अग्नि की स्तुति में 200 सूक्त मिलते हैं। तीसरे प्रमुख देवता का नाम वरूण था जो जलनिधि का प्रतिनिधित्व करता है। वरूण को ऋतस्य गोपा अर्थात वह प्राकृतिक घटना का संयोजक समझा जाता था। उसे असुर भी कहा गया है। ऋग्वेद के एक मंत्र में शिव को त्रयम्बक कहा गया है। सरस्वती नदी की देवी थी, बाद में विद्या की देवी। सोम को पेय पदार्थ का देवता माना जाता था। ऋग्वेद का नवम मंडल सोम की स्तुति करता है। ऋग्वैदिक काल में पूषन को पशुओं का देवता माना गया है जबकि उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता हो गए। ऋग्वैदिक काल में जंगल की देवी को अरण्यानी कहा गया है। मरूत—आंधी-तूफान के देवता तथा पर्जन्य— वर्षा के देवता थे।
ऋग्वैदिक काल से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
— ऋग्वेद में दासों के विषय में स्पष्ट उल्लेख है। भीषज वैद्य थे।
— बलि या आहूति में शाक, जौ आदि वस्तुएं दी जाती थीं। यज्ञाहूति के अवसर अनुष्ठानिक या याज्ञिक मंत्र नहीं पढ़े जाते थे।
— दशराज्ञ युद्ध में भरतों के राजा सुदास विजयी हुए थे। पराजित जनों के राजा पुरू थे, जो बाद में भरतों के मित्र बन गए और नया कुल कुरू बना। कुरूओं ने पांचालों के साथ मिलकर उच्च गंगा मैदान में शासन स्थापित किया।
— दाशराज्ञ युद्ध का मुख्य कारण यह था कि सुदास ने विश्वामित्र को पुरोहित पद से हटाकर वशिष्ठ को पुरोहित बना लिया था। श्रीजंय कबीले ने सुदास का पक्ष लिया था।
— सुदास ने कालान्तर में भेद नामक एक अनार्य राजा को भी पराजित किया था।
— दिवोदास का पुत्र या पौत्र था सुदास। दिवोदास ने भी सम्बर नामक अनार्य राजा को हराया था।
— ऋग्वैदिक कालीन अनार्य जातियां— अज, शिग्रु, यज्ञु, किकिट, पिशाच, सिम्यु।
— अनार्य राजा— भेद, सम्बर, घुनि, चुमुरि, पिप्रु।
— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों को द्विज कहा जाता था। ये उपनयन संस्कार के अधिकारी थे। गोत्र प्रथा इसी काल में स्थापित हुई।
— शिल्पियों में रथकार आदि को यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार था।
— सोम एक प्रकार का पौधा था जिससे सोम रस नामक मादक पेय बनाया जाता था।
— ऋग्वैदिक देवियों में उषा को समर्पित सूक्त बहुत सुन्दर और आकर्षक है। यह अरूणोदय की देवी थीं।
— पृथ्वी, अदिति, अरण्यानी, रात्रि, र्निरती, अप्सराएं आदि अन्य देवियां थीं।
— ऋग्वैदिक कालीन नदियां— सतलज (शतुद्रि), चिनाब (अस्किनी), सिन्ध (सिन्धु),गोमल (गोमती), सोहन (सुषोमा), व्यास (विपासा), रावी (परूष्णी), झेलम (वितस्ता), कुर्रम (क्रुमु), काबुल (कुभा), स्वात (सुवास्तु), गंडक (सदानीरा), सरस्वती (नदीतमा)।
—ऋग्वैदिक काल में पितृसत्तात्मक समाज था, अत: पुत्रों के बहुलता की कामना की जाती थी। नि:सन्तान स्त्री अथवा पुत्रविहिन विधवा पुत्र प्राप्ति के लिए देवर के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करती थी। इससे नियोग प्रथा के प्रचलन का संकेत मिलता है।
सम्भावित प्रश्न—
— भारतीय संस्कृति के विकास में आर्यों के योगदान का मूल्यांकन कीजिए?
— ऋग्वैदिक कालीन समाज, राज व्यवस्था, और अर्थव्यवस्था का उल्लेख कीजिए?
— अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह के अतिरिक्त सभा और समिति पर टिप्पणी कीजिए?
— ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति का विस्तार से उल्लेख कीजिए?
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