ऋग्वैदिक संस्कृति की पृष्ठभूमि पर ही उत्तर वैदिककालीन संस्कृति का विकास हुआ। अर्थात् इतिहास के जिस काल में संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों तथा उपनिषदों की रचना हुई उसे ‘उत्तर वैदिक काल’ कहा जाता है। संहिताओं में सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के नाम उल्लेखनीय हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में कर्मकाण्डों के महत्व को अनेक गाथाओं के माध्यम से स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है। ब्राह्मण ग्रंथों के अंतिम भाग में आरण्यक हैं जिसमें दर्शनात्मक तथा रहस्यात्मक विषयों का वर्णन किया गया है। चूंकि इनके अध्ययन के लिए अरण्य (जंगल) जैसे एकांत स्थान की आवश्यकता होती थी, इसलिए इन ग्रन्थों को आरण्यक कहा गया। आरण्यकों में ऐतरेय, कौषीतकी तथा तैत्तिरीय प्रमुख हैं। आरण्यकों के पश्चात के ग्रन्थ उपनिषद हैं। उपनिषदों में वैदिक चिन्तन का चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है, इसी कारण इन्हें वेदान्त कहा गया है। इन ग्रन्थों की रचना गंगा घाटी में हुई थी।
उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता का केन्द्र
ऋग्वैदिक कालीन सभ्यता जहां केवल पंजाब तथा सिन्ध क्षेत्र तक ही सीमित थी वहीं उत्तर वैदिक काल में आर्यों का प्रसार विस्तृत क्षेत्र में हो गया। आर्यों ने यमुना, गंगा, राप्ती या गण्डक द्वारा सिंचित उपजाऊ मैदानों के अतिरिक्त मध्य देश यानि सरस्वती से लेकर गंगा के दोआब तक के विस्तृत क्षेत्र को जीत लिया था। उत्तर वैदिक काल के अंत में यानि 600 ई. पू. के आसपास आर्य सभ्यता का विस्तार कोशल, काशी, विदेह, मगध, अंग आदि राज्यों में भी हो चुका था।
आर्य सभ्यता का विस्तार विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में नहीं पाया था। इसीलिए किसी भी वैदिक ग्रन्थ में हमें दक्षिण के राज्यों का नामोल्लेख नहीं मिलता है। उत्तर वैदिक काल में अनु, द्रुह्, तुर्वश, क्रिवि, पुरु तथा भरत आदि जनों का लोप हो चुका था। पुरु एवं भरत को मिलाकर कुरू तथा तुर्वश व क्रिवि को मिलाकर पांचाल जैसे विशाल राज्यों की स्थापना हुई। अथर्ववेद में मगध के लोगों को व्रात्य कहा गया है जो प्राकृत भाषा बोलते थे।
उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में त्रिककुद नामक एक पर्वत श्रृंखला के अतिरिक्त क्रौच और मैनाक पर्वतों का उल्लेख मिलता है। परीक्षित तथा जनमेजय के समय कुरु राज्य उन्नति के चरमोत्कर्ष था। अथर्ववेद में कुरु की समृद्धि का वर्णन है। पांचाल के राजाओं में प्रवाहन, जैबालि, अरूणि एवं श्वेतकेतु के नाम मिलते हैं जो उच्चकोटि के दार्शनिक थे। उपनिषद काल में विदेह ने पांचाल का स्थान ग्रहण कर लिया था। विदेह के राजा जनक प्रसिद्ध दार्शनिक थे। इस प्रकार कुरु, पांचाल, कोशल, काशी तथा विदेह उत्तर वैदिक काल के प्रमुख राज्य थे।
राजनीतिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक काल में राज्य के आकार और राजा की शक्ति में वृद्धि हुई अत: कबीले पर शासन करने वाला राजा अब एक विस्तृत भूभाग का स्वामी बन गया। राजा अब राजाधिराज, सम्राट, एकराट जैसी बड़ी उपाधियां धारण करने लगा। राष्ट्र शब्द जो राज्य का सूचक है, पहली बार उत्तर वैदिक काल में प्रकट हुआ। राजतंत्र ही शासन का आधार था, कहीं-कहीं गणराज्यों के भी उदाहरण मिलते हैं। अथर्ववेद में राजा परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा गया है।
अथर्ववेद के मुताबिक, राजा को आय का सोलहवां भाग मिलता था। राजा कोई स्थायी सेना नहीं रखता था। इस काल में नियमित करों की प्रतिष्ठा स्थापित हुई। यजुर्वेद के अनुसार, राज्य के उच्च पदाधिकारियों को रत्नी कहा जाता था। उच्चाधिकारियों में सेनानी (सेनापति), सूत (रथसेना का नायक), ग्रामणी (गांव का मुखिया), संग्रहीता (कोषाध्यक्ष), एवं भागदुध (वित्त मंत्री) शामिल हैं। स्थपति (सीमान्त प्रदेश का शासक अथवा न्यायाधिकारी) तथा शतपति (सौ गांवों के समूह का अधिकारी) नामक दो प्रान्तीय अधिकारियों के नाम मिलते हैं।
सभा श्रेष्ठ जनों की संस्था थी तथा समिति राज्य की केन्द्रीय संस्था थी जिसे ‘जनसामान्य की संस्था’ भी कहते थे। समिति की अध्यक्षता स्वयं राजा करता था। समिति की अध्यक्षता करने वाले को ईशान कहा जाता था। सभा को अथर्ववेद में नरिष्ठा कहा गया है। उत्तर वैदिक काल में विदथ का उल्लेख नहीं मिलता है। उत्तर वैदिक काल में राजाओं द्वारा राजसूय, अश्वमेध, वाजपेय, अग्निष्टोम तथा पुरुषमेध यज्ञ करने का उल्लेख मिलता है।
राजसूय यज्ञ राजा के राज्याभिषेक के लिए होता था। इस यज्ञ में राजा रत्नियों के घर जाता था। इसमें सोमरस पिया जाता था। राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान से प्रजा को यह विश्वास हो जाता था कि अब सम्राट को दिव्य शक्तियां मिल गईहैं।
अश्मेध यज्ञ में राजा एक घोड़ा छोड़ता था। यह घोड़ा जिन प्रदेशों में बिना किसी प्रतिरोध के गुजरता था वे प्रदेश राजा के अधिकार में माने जाते थे। यह राजकीय यज्ञों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण यज्ञ था।
वाजपेय यज्ञ में राजा द्वारा रथ दौड़ का आयोजन किया जाता था जिसमें राजा को उसके सहयोगियों द्वारा विजयी बनाया जाता था।
अग्निष्टोम यज्ञ में याज्ञिक व उसकी पत्नी एक वर्ष तक सात्विक जीवन व्यतीत करती थी। इसके बाद इस यज्ञ में सोम रस पिया जाता था तथा इस एक दिवसीय यज्ञ में अग्नि को पशुबलि दी जाती थी।
उत्तर वैदिक काल में गृहस्थ आर्यों द्वारा पंच महायज्ञों का अनुष्ठान करने का उल्लेख मिलता है- ब्रह्म यज्ञ या ऋषि यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, नृयज्ञ, भूत यज्ञ या बलि।
सामाजिक जीवन
उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था कर्म के स्थान पर जन्म आधारित हो गई। यहां तक कि व्यवसाय भी अनुवांशिक हो गए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अधिकारों, कर्तव्यों तथा स्थिति में विभेद किया जाने लगा। उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में प्रत्येक वर्ण के लिए अलग-अलग रंग के यज्ञोपवीत का विधान मिलता है।
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य को द्विज कहा जाता था जिन्हें उपनयन संस्कार का अधिकार था। शूद्र वर्ग को उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं था। ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों में श्रेष्ठता के लिए प्रतिस्पर्धा थी। शतपथ ब्राह्मण में एक स्थान पर क्षत्रिय को ब्राह्मण से श्रेष्ठ बताया गया है। उपनिषद काल में अनेक राजाओं ने अपने ब्रह्मज्ञान तथा आध्यात्मिक चिंतन से ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती दी।
ऐतरेय ब्राह्मण में राजा को ब्राह्मण की जीविका चलाने वाला तथा दान देने वाला कहा गया है। केवल वैश्य ही ‘कर’ (tax) चुकाते थे। उत्तर वैदिक काल में गोत्र प्रथा (कुल अथवा वंश का प्रतीक) की स्थापना हुई हांलाकि समाज में अभी तक अस्पृश्यता की भावना का उदय नहीं हुआ था। छान्दोग्य उपनिषद में केवल तीन आश्रमों की जानकारी मिलती है जबकि जाबालोपषिद में चारों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) का विवरण मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई। उन्हें पैतृक सम्पत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया गया। स्त्रियों का सभा तथा समितियों में प्रवेश वर्जित कर दिया गया। इसके साथ ही स्त्रियों को उपनयन संस्कार से भी वंचित कर दिया गया। अथर्ववेद में पुत्री के जन्म पर रोष प्रकट किया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को कृपण कहा गया है तथा समस्त दुखों का स्रोत माना गया है।
यद्यपि शतपथ ब्राह्मण में अनेक विदुषी कन्याओं का उल्लेख मिलता है, ये हैं- गार्गी, गन्धर्व, गृहीता, मैत्रेयी, जाबाल। स्त्रियों को यज्ञ करने तथा वैदिक ग्रन्थ पढ़ने का भी अधिकार था। जनक के दरबार में गार्गी द्वारा याज्ञवल्क्य को चुनौती देने का वर्णन है।
अथर्ववेद में जहां कन्याओं को ब्रह्मचर्य पालन करने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है वहीं भगवद्गीता में स्त्रियों को शूद्र के समकक्ष माना गया है। मैत्रायणी संहिता में स्त्री को पासा तथा सुरा के साथ तीन प्रमुख बुराईयों में गिना गया है। तैत्तिरीय संहिता में देधिषव्य शब्द का उल्लेख मिलता है जिसका अर्थ है- विधवा का पुत्र। तैत्तिरीय संहिता में विधवा विवाह का भी उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दास व शूद्र सोमयज्ञ में भाग ले सकते थे। छान्दोग्य उपनिषद में दासों को सम्पत्ति माना गया है। समय-समय पर जनसमूह द्वारा किए जाने वाले खेल एवं मनोरंजन को समज्या कहा जाता था।
धार्मिक जीवन
उत्तर वैदिक काल में यज्ञ संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ और अनेकानेक अनुष्ठान तथा मंत्र विधियां प्रचलित हुईं। ऋग्वैदिक देवताओं वरुण, इन्द्र आदि की जगह प्रजापति, विष्णु एवं शिव ने ले लिया। पूषन शूद्रों के देवता के रूप में प्रचलित थे। ऋग्वैदिक काल में वह पशुओं के देवता थे। उत्तर वैदिक काल में मूर्ति पूजा आरम्भ होने का कुछ आभास मिलने लगता है। यज्ञों में पशुबलि को प्राथमिकता दी जाने लगी। राजसूय, वाजपेय तथा अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान किया जाने लगा। प्रेतात्माओं, जादू-टोने, इन्द्रजाल, वशीकरण आदि में लोगों का विश्वास दृढ़ होने लगा। इन अन्धविश्वासों को धर्म में स्थान मिलने लगा। अप्सरा, गन्धर्व, नाग आदि की भी देवरूप में कल्पना की जाने लगी।
उत्तर वैदिक काल में बहुदेववाद, वासुदेव सम्प्रदाय तथा षड्दर्शनों (सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा) का उदय हुआ। उत्तर वैदिक काल में पुनर्जन्म का सिद्धान्त पूर्णत: स्थापित हो गया। वृहदारण्यक उपनिषद में पुनर्जन्म के सिद्धान्त का पहली बार उल्लेख किया गया है। वहीं निष्काम कर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम इषोपनिषद में हुआ है। कठोपनिषद में यम-नचिकेता संवाद है। वृहदारण्यक उपनिषद में गार्गी-याज्ञवलक्य संवाद है। वंदोगों के अन्तर्गत छंद, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, शिक्षा तथा ज्योतिष आते हैं।
ऋक संहिता का पुनसृर्जन करने वाले पुरोहित को होता कहा जाता था। जबकि सामवेद का गायन करने वाले पुरोहित उद्गगाता कहलाते थे। यजुर्वेद का मंत्रोचार करने वाले पुरोहित अध्वर्यु तथा सभी यज्ञों को विधि पूर्वक सम्पन्न करने वाले पुरोहित ब्रह्म कहलाते थे।
आर्थिक जीवन
ऋग्वैदिक काल की तरह उत्तर वैदिक युग में भी कृषि तथा पशुपालन आर्थिक जीवन का मुख्य आधार था। शतपथ ब्राह्मण में जुताई, बुआई, कटाई और मड़ाई का उल्लेख है। काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हलों का उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद में ब्रीहि (धान), गोधूम (गेहूं), मुदग (मूंग), यव (जौ), माण (उड़द), तथा मसूर आदि अनाजों का वर्णन मिलता है। उत्तर वैदिक काल की मुख्य फसल धान और गेहूं हो गई। पशु ही चल सम्पत्ति के आधार थे अत: लोग पशुओं की वृद्धि के लिए देवताओं से प्रार्थना करते थे। तैत्तिरीय उपनिषद में अन्न को ब्रह्म तथा यजुर्वेद में हल को सीर कहा गया है। अथर्ववेद के मुताबिक सर्वप्रथम पृथवैन्य ने हल और कृषि को जन्म दिया।
उत्तर वैदिक काल में व्यापार का विकास हुआ। व्यापारी श्रेणियों में संगठित हुए। श्रेणी का प्रधान व्यापारी श्रेष्ठीन होता था। शतपथ ब्राह्मण में ऋण देने वाले यानी सूदखोर को कुसीदिन कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिए कुसीद शब्द मिलता है। उत्तर वैदिक युग के लोग टिन, तांबा, चांदी, सोना (हिरण्य), श्याम अयस् (लोहा), सीसा आदि धातुओं से परिचित हो चुके थे।
निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल आदि माप की भिन्न-भिन्न इकाईयां थीं। बाट की इकाई कृष्णल था। रत्तिका तथा गुंजा भी तौल की एक इकाई थी। रत्तिका तौल की सबसे छोटी इकाई थी। शतमान सम्भवत: चांदी की मुद्रा थी। व्यापार में लेन-देन का माध्यम गाय तथा निष्क को बनाया गया था। निष्क ऋग्वैदिक काल में एक आभूषण था जो उत्तर वैदिक काल में एक मुद्रा माना जाने लगा।
उत्तर वैदिक काल से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
— उपनिषद काल के दार्शनिक राजाओं के नाम- जनक (विदेह), अश्वपति (केकैय), अजातशत्रु (काशी), प्रवाहण जाबालि (पांचाल)।
— श्वेताश्वर उपनिषद ‘रूद्र’ देवता को समर्पित जिनमें उनके परवर्ती नाम शिव का उल्लेख हुआ है।
— आरुणि उद्दालक और श्वेतकेतु के मध्य संवाद छान्दोग्य उपनिषद में मिलता है।
— ‘यज्ञ एक ऐसी नौका है जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है’- मुण्कोपनिषद।
— ‘ब्रह्मलोक में सभी समान माने जाते हैं अत: चाण्डाल भी यज्ञ का अवशेष पाने का अधिकारी है’- वृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषद।
— ऐतरेय ब्राह्मण में समुद्र पर्यन्त पृथ्वी के शासक को एकराट कहा गया है।
— उत्तर वैदिक काल में राजा बलिहर (बलि लेने वाला) तथा विशामत्ता भी कहा गया है।
— तीन ऋृण - ऋषि ऋण, पितृ ऋण, देव ऋण। सात सोम यज्ञ- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्या, सोढ़ासिन, वाजपेय, अतिरात्र, अप्तोर्यम।
— सात हर्वियज्ञ- अग्न्याध्येय, अग्निहोत्र, दर्श पूर्णमासी, आग्रहायन, चतुर्मास्य, निरूद्ध पशुबन्ध, सौत्रामणि।
— उत्तर वैदिक काल में हल को लांगल कहा जाता था।
— मैत्रायणी संहिता में मुन की दस पत्नियों का उल्लेख मिलता है।
— आर्यों का चावल से प्रथम परिचय गंगा घाटी के दोआब में 1000 ई.पू. से 800 ई. पू. के बीच हुआ।
— शतपथ ब्राह्मण में वैश्य को अन्यस्य बलिकृत कहा गया है।
—वैश्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वाजसनेयी संहिता में मिलता है।
— छान्दोग्य उपनिषद में धर्म के तीन स्कन्ध बताए गए हैं- यज्ञ, अध्ययन, दान।
— छान्दोग्य उपनिषद में इतिहास पुराण को पंचमवेद कहा गया है।
— सबसे बड़ा उपनिषद वृहदारण्यक उपनिषद है।
— वृहदारण्यक उपनिषद के प्रधान प्रवक्ता का नाम महर्षि याज्ञवल्क्य है। याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां मैत्रेयी व कात्यायनी थीं।
— श्राद्ध प्रथा की शुरूआत सर्वप्रथम दत्तात्रेय ऋषि के बेटे निमि ने की।
— ब्राह्मण ग्रन्थों में गोपथ ब्राह्मण की रचना सबसे अंत में हुई।
— शल्य क्रिया का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है।
— सत्यमेव जयते मुंडकोपनिषद में है।
— शून्य का उल्लेख यजुर्वेद में है।
— गौतम धर्म सूत्र में संस्कारों की संख्या 40 वर्णित है। लेकिन प्राय: सभी धर्मशास्त्राकार संस्कारों की संख्या 16 मानते हैं जो इस प्रकार हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्ण वेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि।
— ‘समुद्र के उत्तर में तथा हिमालय के दक्षिण में जो स्थित है वह भारत देश है तथा वहां की संताने भारती हैं’-विष्णु पुराण।
— ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित शासन पद्धति : साम्राज्य- सम्राट, स्वराज्य- स्वराट, वैराज्य-विराट, भोज्य-भोज, राज्य-राजा।
— उत्तर वैदिक काल में लाल मृदभाण्ड सर्वाधिक प्रचलित थे परन्तु चित्रित धूसर मृदभाण्ड इस युग के विशिष्ट भाण्ड थे।
सम्भावित प्रश्न-
— उत्तर वैदिक काल में प्रतिबिम्बित समाज, राज्य व्यवस्था और अर्थव्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
— यह कैसे कहा जा सकता है कि उत्तर वैदिक काल में एक मिश्रित परन्तु विकसित संस्कृति का उदय हुआ।
— भारतीय संस्कृति के विकास में आर्यों के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
—उत्तर वैदिककालीन धर्म तथा दर्शन की विवेचना कीजिए।
— उत्तर वैदिक युग में सामाजिक परिवर्तनों पर प्रकाश डालिए।
— उत्तर वैदिक कालीन आर्थिक जीवन का विस्तार से वर्णन कीजिए।
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