गुरु गोबिंद सिंह ने सन् 1706 ई. में मुगल बादशाह औरंगजेब को ‘जफरनामा’ नाम से फारसी भाषा में एक पत्र लिखा जिसका हिन्दी अर्थ है-‘ विजय पत्र’। गुरु गोबिंद सिंह ने यह पत्र उन दिनों लिखा था जब उनके चारों पुत्र तथा सैकड़ों साथी युद्ध में बलिदान हो चुके थे। बादशाह औरंगजेब भी 90 वर्ष की उम्र में अहमदाबाद में अपने आखिरी दिन काट रहा था। गुरु गोबिंद सिंह अपने पत्र ‘जफरनामा’ में औरंगजेब की झूठी कसमों एवं उसके कुशासन की चर्चा के साथ ही उसकी क्रूर व बर्बर सोच की भी भर्त्सना करते हैं। इतना ही नहीं, गुरु गोबिंद सिंह यह भी लिखते हैं कि दुनिया में सिर्फ़ एक सर्वशक्तिमान ईश्वर है जिसके मैं और आप दोनों आश्रित हैं। परन्तु आप लोगों के साथ भेदभाव करते हैं तथा नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं, जो आपके धर्म के नहीं है। वहीं ईश्वर ने मुझे न्याय करने के लिए भेजा है। आपके और मेरे रास्ते अलग है अत: हमारे बीच शांति सम्भव नहीं है। गुरु गोबिंद सिंह के पत्र को पढ़कर तिलमिलाए औरंगजेब ने क्या आदेश जारी किया था, यह जानने के लिए पूरी स्टोरी पढ़ें।
गुरु गोबिंद सिंह : एक योद्धा संत (Guru Gobind Singh: A Warrior Saint)
लम्बे कद काठी वाले, बेहतरीन कपड़े पहनने वाले तथा हथियारों से सुसज्जित गुरु गोबिंद सिंह को तस्वीरों में हमेशा एक सफ़ेद बाज़ के साथ दिखाया जाता है जिनकी पगड़ी में एक कलगी लगी होती है। 19 साल की उम्र तक गुरु गोबिंद सिंह ने स्वयं को एक लड़ाकू योद्धा के रूप में तैयार कर लिया था क्योंकि जब वह 9 वर्ष के थे तब उनके पिता गुरु तेग बहादुर का कटा हुआ सिर अंतिम संस्कार के लिए आनंदपुर साहब लाया गया था। पिता गुरु तेग बहादुर की शहादत ने गुरु गोबिंद सिंह को आजीवन प्रभावित किया। दरअसल सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर ने भी मुगल दरबार से जमकर लोहा लिया था, ऐसे में गुस्साए औरंगजेब ने 1675 ई. में उन्हें कैद कर लिया और इस्लाम धर्म स्वीकार करने को कहा, परन्तु गुरु तेग बहादुर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। इसके बाद सबके सामने गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया।
खुशवंत सिंह की चर्चित किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स’ के मुताबिक, गुरु गोबिंद सिंह पंजाबी तथा हिन्दी के साथ ही संस्कृत व फारसी भाषा भी जानते थे। गुरु गोबिंद सिंह कभी-कभी अपनी कविता में इन चारों भाषाओं का इस्तेमाल करते थे। गुरु गोबिंद सिंह एक अप्रतिम योद्धा ही नहीं अपितु एक महान कर्मयोगी तथा उच्चकोटि के आध्यात्मिक चिंतक भी थे। सिख कानून को संहिताबद्ध करने वाले गुरु गोबिंद सिंह ने सिख धर्म के ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ का अंतिम भाग लिखा था। गुरु गोबिंद सिंह के दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ‘योद्धा संत’ भी कहा जाता था।
सिखों के दसवें व अंतिम गुरु गोबिंद सिंह ने साल 1699 ई. में खालसा पंथ की स्थापना की। इसके बाद सिख समाज अपनी धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हो गया। खालसा पंथ की सिख सेना का नेतृत्व करते हुए गुरु गोबिंद सिंह ने अपने चार बेटों का भी बलिदान कर दिया। इस संघर्ष में उनकी मां तथा पत्नी की भी मृत्यु हो गई। गुरु गोबिंद सिंह ने भी महज 42 साल की उम्र में महाराष्ट्र के नांदेड़ स्थित श्री हुजूर साहिब में अपने प्राणों का त्याग कर दिया। बता दें कि सरहिन्द के नवाब वजीर खान ने सैन्य शिविर में सो रहे गुरु गोबिंद सिंह की धोखे से हत्या करवा दी थी।
गुरु गोबिंद सिंह का पत्र जफरनामा (Guru Gobind Singh's letter Zaafarnama)
यह महत्वपूर्ण घटना उस दौर की है जब मुगल बादशाह औरंगजेब की दक्कन में तूती बोलती थी। छत्रपति शिवाजी की मृत्यु हो चुकी थी, दक्षिण में औरंगजेब को चुनौती देने वाला कोई नहीं रह गया था। हांलाकि उसने गुरु गोबिंद सिंह को व्यक्तिगत रूप से तब चुनौती दी जब वह 90 वर्ष हो चुका था और अपने जीवन के आखिरी दिन काट रहा था। औरंगेजब ने अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार करवाने के लिए गुरु गोबिंद सिंह को एक पत्र लिखा था जिसके मुताबिक, “आपका और मेरा धर्म एक ईश्वर में यकीन रखता है। फिर हम दोनों के बीच गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। आपके पास मेरी प्रभुसत्ता मानने के सिवाय कोई चारा नहीं है। यदि आपको कोई शिकायत हो तो मेरे पास आइए। मैं आपके साथ एक धार्मिक व्यक्ति की तरह बर्ताव करूंगा। परन्तु मेरी सत्ता को चुनौती न दें अन्यथा मैं हमले का नेतृत्व स्वयं करूंगा।”
मुगल बादशाह औरंगजेब के इसी पत्र के जवाब में गुरु गोबिंद सिंह ने मोगा जिले के गांव दीना साहिब में पड़ाव के दौरान साल 1706 ई. में फारसी में एक पत्र लिखा जो भारतीय इतिहास में ‘जफरनामा’ के नाम से विख्यात है। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा फारसी भाषा में लिखे गए पत्र ‘जफरनामा’ का शाब्दिक अर्थ है- विजय पत्र। कुल 111 काव्यों वाले जफरनामा का अबतक कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। जफरनामा में गुरु गोबिंद सिंह के युद्धों के अतिरिक्त खालसा पंथ की स्थापना, आनंदपुर साहिब छोड़ना, फ़तेहगढ़ की घटना, चालीस सिखों की शहीदी, दो गुरु पुत्रों का दीवार में चुनवाया जाना, चमकौर संघर्ष के साथ ही मराठों तथा राजपूतों द्वारा औरंगजेब की करारी हार का भी उल्लेख मिलता है।
गुरु गोबिंद सिंह अपने पत्र जफरनामा में लिखते हैं, “दुनिया में सिर्फ सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं जिसके हम दोनों ही आश्रित हैं। परन्तु आप उन्हें नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं जो आपके धर्म से अलग हैं। ईश्वर ने मुझे न्याय बहाल करने के लिए इस दुनिया में भेजा है। इसलिए हमारे बीच शांति कैसे हो सकती है। मेरे और आपके रास्ते अलग हैं। इसके साथ ही गुरु गोबिंद सिंह ने औरंगजेब को यह चेतावनी भी दी है कि उन्होंने पंजाब में उसके पराजय की पूरी व्यवस्था कर ली है। गुरु गोबिंद सिंह ने वीरता का परिचय देते हुए लिखा कि मैं युद्ध के मैदान में अकेला आऊंगा। तुम दो घुड़सवारों को अपने साथ लेकर आना। इतना ही नहीं, औरंगजेब को ललकारते हुए गोविंद सिंह लिखते हैं कि अगर तुम कमजोरों पर जुल्म करते हो, उन्हें सताते हो, कसम है कि एक दिन आरे से चिरवा दूंगा।
जफरनामा पढ़ने के बाद औरंगजेब का शाही फरमान (Aurangzeb's royal decree after reading Zafarnama)
1706 ई. में खिदराना युद्ध के बाद गुरु गोबिंद सिंह ने जफरनामा पत्र के साथ भाई दया सिंह को मुगल बादशाह औरंगजेब के पास भेजा। गुरु गोबिंद सिंह का पत्र पढ़कर औरंगेजब ने अहमदनगर से दिल्ली के लिए एक शाही फरमान भेजा। जिसमें गुरु गोविंद सिंह को किसी भी प्रकार का कष्ट न देने तथा सम्मानपूर्वक लाने का आदेश था। वहीं दूसरी तरफ गुरु गोबिंद सिंह को काफी दिनों तक यह पता नहीं चल सका कि भाई दया सिंह अहमदनगर में औरंगजेब को जफरनामा देने में सफल हुए या नहीं। ऐसे में औरंगजेब से मिलने के लिए गुरु गोबिंद सिंह ने स्वयं दक्कन की ओर प्रस्थान किया। इसी दौरान पंजाब लौटते समय बापौर में भाई दया सिंह की मुलाकात गुरु गोबिंद सिंह से हुई। इसके बाद गुरु गोबिंद सिंह को भाई दया सिंह ने सभी समाचारों से अवगत कराया। दक्कन यात्रा के दौरान ही 20 फरवरी 1707 को गुरु गोबिंद सिंह को औरंगजेब के निधन का समाचार मिला, ऐसे में औरंगजेब से उनकी मुलाकात नहीं हो सकी। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि जफरनामा पढ़ने के बाद औरंगजेब ने गुरु गोबिंद सिंह से मिलने की इच्छा भी प्रकट की थी। परंतु वह इतना शोकाकुल हो गया था कि उसकी मौत हो गई।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद हुए उत्तराधिकार युद्ध के पश्चात शहजादा मुअज्जम जून 1707 में बहादुरशाह के नाम से मुगल गद्दी पर आसीन हुआ। कहा जाता है कि 'जाजऊ' के युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह ने बहादुरशाह का साथ दिया था। इसके बाद बहादुरशाह ने गुरु गोबिंद सिंह का राजकीय सम्मान किया। बादशाह बहादुरशाह ने गुरु गोबिंद सिंह जी को आगरा बुलाया। बहादुरशाह ने गुरु गोबिंद सिंह जी को बेहद क़ीमती सिरोपायो (सम्मान के वस्त्र) तथा धुकधुकी (गर्दन का गहना) भेंट की।
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