बाबर की बेटी गुलबदन बेगम मुगल इतिहास की एक प्रभावशाली और शिक्षित महिला थी। फारसी, अरबी और तुर्की भाषाओं की जानकार गुलबदन बेगम कवयित्री होने के साथ-साथ एक बेहतरीन लेखिका भी थी, इसीलिए मुगल बादशाह अकबर ने अपनी बुआ गुलबदन बेगम से अपने पिता हुमायूं का इतिहास लिखने का अनुरोध किया था। इसके बाद गुलबदन बेगम ने ‘हुमायूंनामा’ लिखकर मुगल साम्राज्य की पहली और अंतिम महिला इतिहासकार होने का गौरव प्राप्त किया। गुलबदन बेगम की कृति हूमायूंनामा एक ऐसा दस्तावेज है जिसके बिना बाबर और हुमायूं का इतिहास अधूरा माना जाता है। गुलबदन बेगम की महत्वूर्ण कृति हुमायूंनामा से हमें किन-किन बातों की जानकारी मिलती है, यह जानने के लिए यह स्टोरी जरूर पढ़ें।
गुलबदन बेगम
मुगल बादशाह बाबर की तीसरी पत्नी दिलदार बेगम की बेटी गुलबदन बेगम का जन्म काबुल में 1523 ई. में हुआ था। गुलबदन बेगम जब आठ साल की थी तभी उनके पिता जहीरूद्दीन मुहम्मद बाबर का निधन हो गया। ऐसे में गुलबदन बेगम का पालन-पोषण हुमायूं की मां माहम बेगम ने किया। गुलबदन बेगम का बचपन सौतेले भाई हुमायूं की देखरेख में ही गुजरा।
अलवर मिर्ज़ा और हिन्दाल मिर्ज़ा दोनों ही गुलबदन बेगम के सगे भाई थे जबकि गुलबदन बेगम की बहनों का नाम गुलरंग बेगम और गुलचेहरा बेगम था। वहीं हुमायूं के भाईयों में कामरान और अस्करी थे। अपने भाई-बहनों में गुलबदन बेगम हिंदाल मिर्ज़ा के बहुत करीब थी।
गुलबदन एक फारसी नाम है जिसका अर्थ है- ‘फूलों का शरीर’। अपने नाम के ही अनुरूप बेहद खूबसूरत गुलबदन बेगम जब 17 साल की थीं तब उनकी शादी चगताई राजकुमार ख्वाजा खान से हुआ था जो बाबर के चचेरे भाई ख्वाजा सुल्तान का पुत्र था।
गुलबदन बेगम का भारत आगमन
गुलबदन बेगम 1528 ई. में काबुल से भारत आईं थी, तब उनके पिता बादशाह बाबर भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना कर चुके थे। हांलाकि 1540 ई. में अफगान शासक शेरशाह सूरी ने हुमायूं को भारत से बाहर खदेड़ दिया अत: वह पहले लाहौर फिर काबुल भाग गया। यही वजह है कि हुमायूं के साथ रहने के लिए गुलबदन बेगम भी काबुल वापस चली गईं।
हुमायूं की हिन्दुस्तान पुनर्वापसी के बाद भी गुलबदन बेगम तुरन्त आगरा नहीं लौटीं। 27 जनवरी, 1556 ई. में हुमायूं की मृत्यु के दो साल बाद यानि साल 1557 में मुगल बादशाह अकबर ने अपनी बुआ गुलबदन बेगम को शाही घराने में शामिल होने के लिए आगरा बुलवाया।
गुलबदन बेगम जब काबुल से आगरा आईं तब अकबर उनकी अगुवानी के लिए स्वयं आया था और गुलबदन बेगम के महल तक उनके साथ पैदल चलकर गया था। चूंकि गुलबदन बेगम मुगलिया राजघराने की एक सम्मानित महिला थीं ऐसे में स्वयं अकबर और उसकी मां हमीदा बानो बेगम दोनों ही गुलबदन बेगम को बहुत प्यार करते थे।
गुलबदन बेगम की हज यात्रा
तकरीबन 19 वर्षों तक आगरा में रहने के बाद गुलबदन बेगम ने साल 1576 ई. में हज यात्रा पर मक्का-मदीना जाने का निर्णय लिया। इसके लिए गुलबदन बेगम ने अपने भतीजे अकबर से बाकायदा अनुमति मांगी। गुलबदन बेगम को अकबर ने हज यात्रा पर जाने की अनुमति दे दी। इस प्रकार गुलबदन बेगम पहली शाही महिला थीं जिन्होंने 15 महिलाओं के साथ हज यात्रा के लिए पश्चिमी अरब की तरफ प्रस्थान किया।
सचमुच यह एक महान साहसिक कार्य था। चर्चित किताब ‘वेगाबॉन्ड प्रिंसेज : द ग्रेट एडवेन्चर्स आफ गुलबदन’ की लेखिका रूबी लाल के मुताबिक, गुलबदन बेगम की हज यात्रा के लिए अकबर ने ‘इलाही’ और ‘सलीमी’ नामक दो आलीशान समुद्री जहाज तैयार करवाए थे।
इतना ही नहीं, बादशाह अकबर ने गुलबदन बेगम के साथ सोने-चांदी और हीरे-जवाहररातों से भरे बक्सों के साथ ही हजारों रुपए की नकदी तथा एक से बढ़कर बेहतरीन कपड़े भी दिए जिससे कि हज यात्रा के बाद गुलबदन बेगम मक्का-मदीना में दान-पुण्य कर सकें। कहते हैं कि 15 महिलाओं के साथ गुलबदन बेगम का शाही लाव लश्कर जब फतेहपुर सीकरी महल से मक्का-मदीना के लिए निकला तब उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ लग गई थी।
यद्यपि गुलबदन बेगम एक साल तक सूरत बन्दरगाह पर ही फंसी रही, बावजूद इसके तमाम परेशानियों का सामना करते हुए वह मक्का पहुंच ही गईं। हज यात्रा के बाद गुलबदन बेगम तकरीबन चार साल तक मक्का में रहीं। इस दौरान गुलबदन बेगम ने मक्का में बेशुमार धन-दौलत लुटाना शुरू किया। देखते ही देखते गुलबदन बेगम की ख्याति बहुत तेजी से फैलने लगी। ऐसा कहते हैं कि गुलबदन बेगम से उपहार पाने के लिए सीरिया और एशिया माइनर से भी लोग उमड़ पड़े थे।
गुलबदन बेगम की इस कार्रवाई को अरब के सुल्तान मुराद अली ने बादशाह अकबर की ताकत के रूप में देखा। ऐसे में सुल्तान मुराद अली ने ताबड़तोड़ चार फरमान जारी किए जिसमें गुलबदन बेगम को तत्काल अरब छोड़ने का आदेश दिया गया था। परन्तु गुलबदन बेगम ने उन सभी फरमानों को अनदेखा कर दिया।
आखिरकार अपने पांचवे फरमान में मुराद अली ने क्रोधित होकर अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। हांलाकि अकबर को जब इस बात की जानकारी मिली तो वह काफी नाराज हुआ। आखिरकार 1580 ई. में गुलबदन बेगम मक्का से भारत के लिए रवाना हुईं, चूंकि वापसी के दौरान गुलबदन बेगम का एक जहाज अदन में डूब गया इसलिए भारत आने में उन्हें देरी हुई। अन्तत: दो साल की लम्बी यात्रा के बाद गुलबदन बेगम 1582 ई. में फतेहपुर सीकरी पहुंच गईं।
हुमायूं की जीवनी लिखने के लिए अकबर का अनुरोध
बचपन के दिनों में अकबर के कुछ साल अपनी बुआ गुलबदन बेगम के साथ ही बीते थे जिसे वे रोज कहानियां सुनाया करती थीं। चूंकि गुलबदन बेगम फ़ारसी और तुर्की भाषा में कविताएं लिखा करती थीं, अत: अकबर इस बात से भलीभांति परिचित था कि गुलबदन बेगम एक अच्छी लेखिका भी हैं और मुगल राजवंश की महत्वपूर्ण घटनाओं की साक्षी हैं। ऐसे में गुलबदन बेगम के हज यात्रा वापसी के कुछ साल बाद अकबर ने अपने दादा बाबर और पिता हुमायूं से जुड़े इतिहास को लिखने के लिए गुलबदन बेगम से अनुरोध किया। इस प्रकार गुलबदन बेगम ने जब हुमायूंनामा लिखना शुरू किया तब उनकी उम्र 63 वर्ष थी।
गुलबदन बेगम की महत्वपूर्ण कृति ‘हुमायूंनामा’
गुलबदन बेगम कृत ‘हुमायूंनामा’ दो भागों में बंटा हुआ है। हुमायूंनामा के पहले भाग में बाबर के इतिहास का उल्लेख है और दूसरे भाग में हुमायूं का वर्णन है। चूंकि बाबर की मृत्यु हुई तब गुलबदन बेगम महज आठ वर्ष की थीं ऐसे में उनकों बाबर से जुड़ी बहुत सारी बातें याद नहीं रही थीं, अत: उन्हें दूसरों से जानकारी लेनी पड़ी। यद्यपि गुलबदन बेगम ने बाबर के बारे में थोड़ा बहुत लिखा है जो उसकी जाती जानकारी पर आधारित है, इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है।
गुलबदन बेगम ने अपनी कृति हुमायूंनामा में बाबर की आत्मकथा बाबरनामा का नाम ‘वाकेआनामा’ लिखा है। चूंकि बाबरनामा में बीच-बीच में समयान्तराल दिखता है इसलिए इस कमी को पूरा करने के लिए विद्वानों को गुलबदन बेगम की हुमायूंनामा का सहारा लेना ही पड़ता है।
गुलबदन बेगम ने हुमायूंनामा में यह भी लिखा है कि भारत में मुगल सत्ता स्थापित करने के बाद बाबर ने किस प्रकार से एक बड़ा सोने का सिक्का ढलवाया तथा उस भारी सिक्के को काबुल भेजा था। चूंकि बाबर ने यह निर्देश दिया कि उसके दरबारी विदूषक असस के साथ मजाक किया जाए जो काबुल में ही रह गया था। अत: असस की आंखों पर पट्टी बांधकर सोने के भारी सिक्के को उसके गले में बांध दिया गया। असस को अपने गले में पड़े ज्यादा वजन के सिक्के को महसूस कर यह चिन्ता हुई कि पता नहीं यह क्या है। हांलाकि जब उसे मालूम पड़ा कि यह स्वर्ण सिक्का है तो वह खुशी से उछल पड़ा था। विदूषक असस कमरे में घूम-घूमकर बार-बार यही कहता रहा कि अब यह सिक्का उसे कभी कोई छीन नहीं पाएगा।
गुलबदन बेगम ने अपने पिता बाबर की मृत्यु का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है। वह लिखती हैं कि “जब 22 वर्षीय हुमायूं गम्भीर रूप से बीमार पड़ गए तब अपने बेटे को मरता हुआ देखकर बाबर उदास हो गए थे। बाबर अपने बेटे के बिस्तर के चारों तरफ चार दिनों तक चक्कर लगाते हुए अल्लाह से प्रार्थना करते रहे। बाबर अपनी दुआओं में बेटे हुमायूं की जगह स्वयं को इस दुनिया से उठा लेने की प्रार्थना करते रहे। आखिर में मानो चमत्कार हुआ, खुदा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और हुमायूं के स्वस्थ्य होने के कुछ ही दिन बाद बाबर की मृत्यु हो गई।”
गुलबदन बेगम द्वारा लिखे गए हुमायूंनामा का वह हिस्सा जो हुमायूं से सम्बन्धित है, तीन भागों में बंटा हुआ है। पहले भाग में हुमायूं के सिन्ध छोड़ने और काबुल पहुंचने से लेकर कामरान को अन्धा करने तक की घटनाओं का जिक्र है। दूसरे हिस्से में हुमायूं की सिन्ध से ईरान तक की यात्रा और काबुल जीत का वर्णन है। इस घटना का विवरण स्वयं हुमायू की पत्नी हमीदा बानो बेगम ने गुलबदन बेगम को दिया था। तीसरे हिस्से में खिज्जर ख्वाजा और हुमायूं के दूसरे रिश्तेदारों के बयान किए हुए हालात हैं।
हुमायूंनामा में गुलबदन बेगम ने हुमायूं के जीवन, उसके युद्धों, दु:ख और संकट आदि का विस्तार से जिक्र किया है। इसी के साथ गुलबदन बेगम ने शादी-ब्याह की रस्मों और मुगल हरम के रीति-रिवाजों का विवरण भी बड़े चाव से किया है। गुलबदन बेगम ने हुमायूं और हमीदा बानू के विवाह का जिक्र भी बड़ी शरारत के साथ अपनी पांडुलिपि में किया है। चूंकि गुलबदन बेगम अपने भाई हिन्दाल से बहुत ज्यादा प्यार करती थीं इसीलिए उन्होंने हिन्दाल की शादी की रस्मों का जिक्र काफी विस्तार से किया है। इसी के साथ साल 1551 में कामरान से युद्ध में हिन्दाल की मौत का विवरण भी बड़ा करूण है।
हुमायूंनामा से ही हमें यह जानकारी मिलती है कि कामरान को समझाने के लिए बाबर की बहन खानजादा बेगम को भेजा गया था लेकिन कामरान ने खानजादा बेगम के सुझाव को ठुकरा दिया था। यह महत्वपूर्ण जानकारी हमें किसी भी अन्य दूसरे स्रोत में नहीं मिलती है। गुलबदन बेगम की इस कृति से पता चलता है कि किस प्रकार से हुमायूं अफीम के नशे में दिल्ली के पुराना किला की सीढ़ियों से गिर पड़ा था और उसकी मृत्यु हो गई।
हुमायूंनामा का मूल्यांकन
16वीं शताब्दी में लिखी गई महत्वपूर्ण कृति ‘हुमायूंनामा’ मुगल राजघराने की एक प्रभावशाली महिला गुलबदन बेगम की एक मात्र पांडुलिपि है। ऐसे में गुलबदन बेगम मुगल साम्राज्य की एकमात्र ऐसी महिला इतिहासकार हैं जिन्होंने बाबर और हुमायूं से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं को लिखा है।
गुलबदन बेगम की पांडुलिपि पूरी तरह से संरक्षित नहीं है, इसके कई पन्ने गायब हैं तथा अंतिम अध्याय भी नहीं है। हुमायूंनामा की एक टूटी-फूटी प्रति ब्रिटिश लाइब्रेरी में मौजूद है। दरअसल हूमायूंनामा की मूल पांडुलिपि जीडब्ल्यू हैमिल्टन नामक एक अंग्रेज कर्नल के हाथ लगी थी। परन्तु उसकी विधवा ने साल 1868 में इस पांडुलिपि को ब्रिटिश संग्रहालय को बेच दिया था।
1901 ई. तक हुमायूंनामा के अस्तित्व को लेकर बहुत कम लोगों को जानकारी थी परन्तु एनेट एस. बेवरिज ने जब इसका अंग्रेजी अनुवाद किया तब इसका पेपरबैक संस्करण साल 2001 में भारत में प्रकाशित हुआ। प्रदोष चट्टोपाध्याय ने साल 2006 में हुमायूंनामा का बंगाली में अनुवाद किया। इसके बाद से यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज चर्चा का विषय बन गया।
गुलबदन बेगम की मृत्यु
गुलबदन बेगम जब 80 वर्ष की थीं तब कुछ दिनों तक बुखार से पीड़ित रहने के कारण फरवरी 1603 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। गुलबदन बेगम के जीवन के अंतिम दिनों में हमीदा बानो बेगम उनके साथ रहीं। यहां तक कि मुगल बादशाह अकबर ने गुलबदन बेगम के जनाजे को कन्धा दिया था और कुछ दूर तक जनाजे के साथ चला भी था। यही नहीं, गुलबदन बेगम की आत्मा की शांति के लिए अकबर ने गरीबों में खूब उपहार बांटे थे।
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