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Giri Sumail War: SherShah Suri had resorted to deception to defeat Rao Maldev's powerful army

गिरी-सुमेल युद्ध : राव मालदेव की शक्तिशाली सेना को हराने के लिए शेरशाह ने लिया था धोखे का सहारा

शेरशाह सूरी ने हिन्दूस्तान पर महज पांच वर्ष (1540-1545 ई.) ही शासन किया लेकिन उसके पराक्रम और प्रशासनिक नीतियों की वजह से उसका नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। मुगल बादशाह हुमायूं को इस देश से बाहर खदेड़ने के पश्चात उसने अपना ध्यान राजपूताना पर केन्द्रित किया। शेरशाह को वास्तविक खतरा मारवाड़ यानि जोधपुर के शक्तिशाली शासक मालदेव से था।

मालेदव ने 1541 ई. में हुमायूं की सहायता की थी जब वह बिलग्राम के युद्ध में पराजित होकर यहां-वहां भटक रहा था। इतिहासकार के. आर. कानूनगों और ए.एल.श्रीवास्तव जैसे इतिहासकारों का मत है कि हुमायूं को सहायता प्रदान करने के पीछे मालदेव का वास्तविक लक्ष्य मारवाड़ की स्थिति को उपर उठाना था। उसे वह वही स्थान दिलवाना था जो कभी मेवाड़ का रहा था। कदाचित मालदेव यह भी जानता था कि उसे कभी न कभी शेरशाह से युद्ध करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त मेड़ता के वीरमदेव और बीकानेर के कल्याणमल, जिनके राज्यों पर मालदेव ने अधिकार कर लिया था, भागकर शेरशाह की शरण में चले गए थे।

हुमायूं के मारवाड़ से चले जाने के अठारह महीने बाद शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर चढ़ाई करने का निर्णय लिया। अब्बास खां सरवानी का मत है कि “नागौर और अजमेर में मालदेव ने जो मुसलमानों को पराजित किया था, उसी का बदला लेने के लिए शेरशाह ने मालदेव पर आक्रमण किया था।”  कुछ इसी तरह तारीखे शेरशाही में लिखा है कि रायसीन युद्ध के बाद शेरशाह ने अपने अमीरों की सभा में कहा कि, “जब तक मैं देश को अन्धविश्वासियों के प्रभाव से रहित नहीं कर दूंगा, तब तक दूसरे किसी देश के लिए नहीं जाउंगा, पहले मैं काफिर मालदेव को जड़ से उखाडूंगा।”

लेकिन राणा मालदेव और शेरशाह सूरी के बीच युद्ध का वास्तविक कारण कुछ और ही था। मालदेव ने पहले हुमायूं की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था और बाद में शेरशाह के कहने पर भी उसने हुमायूं को गिरफ्तार नहीं किया था। इससे शेरशाह मारवाड़ के शासक मालदेव से पहले से ही नाराज था। इसके अ​तिरिक्त राणा मालदेव शेरशाह के लिए खतरनाक प्रतिद्वंदी हो चुका था। मारवाड़ की उत्तर-पूर्वी सीमाओं एवं दिल्ली में केवल पचास मील का अंतर रह गया था। अत: मारवाड़ का स्वतंत्र रहना दिल्ली साम्राज्य की स्थिरता के लिए खतरा बन चुका था। चूंकि मेड़ता के वीरमदेव और बीकानेर के कल्याणमल भी मालदेव के विरूद्ध सहायता के लिए शेरशाह  के पास जा पहुंचे थे, ऐसे में राजपूतों की आपसी फूट का लाभ उठाकर मालदेव को परास्त करने का अवसर शेरशाह खोना नहीं चाहता था।

फारसी तवारीखों के अनुसार, शेरशाह सूरी 80 हजार घुड़सवार सैनिकों, एक शक्तिशाली तोपखाने (तकरीबन 40 तोपें) के साथ आगरा से प्रस्थान किया और दिल्ली-नारनोल होते हुए फतेहपुर शेखावटी पहुंचा और यहां से रेतीले मार्ग को पारकर डीडवाना पहुंचा। डीडवाना में मालदेव का सेनानायक कूंपा मोर्चा जमाए हुए था जिसे शेरशाह ने आसानी से परास्त कर खदेड़ दिया। कूंपा ने शेरशाह की गतिविधियों से मालदेव को तुरन्त अवगत करवा दिया था। चूंकि मालदेव ने अजमेर तथा जोधपुर में मजबूत मोर्चाबन्दी कर रखी थी इसलिए शेरशाह डीडवाना से सीधे बाबरा नामक स्थान पर पहुंचा। यह स्थान अजमेर से 28 मील दूर था। जबकि मालदेव भी अपनी शक्शिाली सेना लेकर गिरी-सुमेल नामक स्थान पर पहुंच गया। बता दें कि मारवाड़ का छोटा सा गांव गिरी-सुमेल जो वर्तमान में पाली जिले की जैतारण तहसील में पड़ता है।

गिरी-सुमेल युद्ध (5 जनवरी, 1544 ई.)

जोधपुर के महाराजा राव मालदेव ने निमंत्रण पर आसोप के ठाकुर राव जैताजी, राव कुंपाजी, जैतारण के शासक राव खीमकरण उदावत, पाली के शासक अखेराज सोनीगरा, धंधेड़ी के ठाकुर कुंपा, कुशालपुरा के ठाकुर जैतसिंह उदावत, सिरोही के ठाकुर अखेराज देवड़ा, बगड़ी के ठाकुर चेता पचायणरत, भारमल, बाला, प्रतापसिंह आदि सरदार अपने राजपूत सैनिकों के साथ उसकी सहायता के लिए पहुंच चुके थे। ऐसे में राव मालदेव की शक्तिशाली सेना से शेरशाह घबरा गया, लेकिन उसने अपना मानसिक सन्तुलन कायम रखा।  राजपूतों के सम्भावित आक्रमण से बचने के लिए उसने अपने सैन्य शिविरों की स्थिति को मजबूत बनाया। शिविर के चारों तरफ खाइयां खोदी गईं और जहां खाइयां बनाना सम्भव नहीं था, वहां रेत के बोरों से रक्षा प्राचीरें बना ली गईं। शेरशाह ने मालदेव को गुमराह करने के लिए आगरा से कुछ सैनिक दस्ते और बुलवा लिए और उन्हें आदेश दिया कि वे अजमेर पर आक्रमण का दिखावा करें। शेरशाह ने सोचा कि ऐसा करने से मालदेव या तो अजमेर की तरफ बढ़ेगा या फिर उस पर सीधा आक्रमण करेगा क्योंकि शेरशाह अपनी तरफ से पहले आक्रमण नहीं करना चाहता था। दूसरी तरफ मालदेव भी पहले आक्रमण नहीं करना चाहता था।

तारीखे शेरशाही से जानकारी मिलती है कि तकरीबन एक महीने तक दोनों सेनाएं एक दूसरे के सामने पड़ी रहीं। इस स्थिति से मालदेव को विशेष कठिनाई नहीं थी क्योंकि उसे अपने राज्य से सेना के लिए रसद-पानी जुटाना बिल्कुल आसान था। इसके विपरीत शेरशाह के लिए इस स्थिति में अधिक दिनों तक टिके रहना संकट का सबब बन सकता था। चूंकि सुमेल दिल्ली से काफी दूर था, इसलिए सेना के लिए रसद जुटाना अथवा सुरक्षा का कोई अन्य स्थान ढूंढना खतरे से खाली नहीं था। मालदेव को युद्ध में आसानी से पराजित कर देना, ये भी सुनिश्चित नहीं था अत: शेरशाह सूरी ने एक कूटिल युक्ति से राजपूतों में फूट डालने का निश्चय किया।

मुहणौत नैणसी लिखता है कि शेरशाह के आदेश पर मेड़ता के वीरमदेव ने मालदेव के सेनापति कूंपा तथा जेता के पास 20-20 हजार रुपए भिजवाए। कूंपा से कम्बल खरीदने तथा जेता से सिरोही की तलवारें खरीदने का अनुरोध किया। इसी के साथ मालदेव को भी यह सूचना दी गई कि उसके दोनों सेनापतियों ने शेरशाह से घूस लेकर युद्ध के समय उसका साथ देने का आश्वासन दिया है।

एक अन्य साक्ष्य के अनुसार, शेरशाह ने अपने नाम से एक जाली पत्र ​लिखा। इस पत्र का आशय यह था कि शेरशाह को किसी प्रकार की शंका नहीं होनी चाहिए, युद्ध के दौरान हम लोग (जैता-कूंपा) राव मालदेव को पकड़कर आपकी सेवा में उपस्थित कर देंगे। इस पत्र को शेरशाह ने मालदेव के शिविर के पास रखवा दिया। जो थोड़े ही समय पश्चात मालदेव के हाथों में पहुंच गया। शेरशाह की तरकीब काम कर गई, पत्र को पढ़ते ही मालदेव अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा और उसने अपने प्रमुख सरदारों से सलाह लिए बिना ही अचानक रात्रि के अंधेरे में अपनी मुख्य सेना सहित युद्ध क्षेत्र से भाग निकला।

हांलाकि मालदेव के दोनों सेनापाति कूंपा और जेता जिन पर मालदेव ने अविश्वास किया था, अपने 12 हजार राजपूत सैनिकों के साथ वहीं डटे रहे। राव मालदेव के पलायन कर जाने के बाद 5 जनवरी 1544 ई. को कूंपा और जेता ने शेरशाह की सेना पर आक्रमण कर दिया। शेरशाह सूरी जैसे योग्य सेनानायक के नेतृत्व में लड़ रहे 80 सैनिकों तथा एक शक्तिशाली तोपखाने पर 12 हजार राजपूत भारी पड़ गए। स्थिति यह हो चुकी थी कि शेरशाह ने मैदान छोड़ने की तैयारी कर ली थी। वह युद्ध के दौरान ही नमाज पढ़ने लगा ​और अपनी जीत के लिए अल्लाह से दुआ करने लगा। इसी बीच जलालखां जुलानी की मदद ने युद्ध का पासा ही पलट दिया।

शेरशाह के सेनापति खवास खां ने जब यह सूचना दी कि कूंपा और जेता मारे जा चुके हैं तथा हम जंग जीत चुके हैं तब जाकर शेरशाह सूरी ने राहत की सांस ली। तारीख-ए-दाउदी में इस बात का उल्लेख है कि राठौड़ राजपूतों के पराक्रम और त्याग को देखकर युद्ध के बाद शेरशाह सूरी के मुंह से अनायास ही ये शब्द निकल पड़े- मैंने मुट्ठीभर बाजरे के लिए दिल्ली सल्तनत ही खो दिया होता।

गिरी-सुमेल युद्ध की सफलता के बाद शेरशाह ने अपनी एक सैन्य टुकड़ी मालदेव का पीछा करने के लिए भेज दी। इसके बाद वह अजमेर पर अधिकार करने के बाद मेड़ता आया और मेड़ता को वीरमदेव को सौंपकर बीकानेर पहुंचा। इसके पश्चात कल्याणमल को बीकानेर सौंपने के बाद वह जोधपुर की तरफ बढ़ा। इससे पूर्व ही मालदेव सिवाना के पर्वतीय भाग में जा चुका था अत: मामूली संघर्ष के बाद शेरशाह ने जोधपुर पर अधिकार कर लिया। शेरशाह सूरी चित्तौड़ की तरफ बढ़ ही रहा था, इससे पूर्व ही चित्तौड़ के राणा की तरफ से किले की चाबियां तथा अधीनता का सन्देश मिलते ही शेरशाह सूरी सन्तुष्ट होकर दिल्ली वापस लौट गया।

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