श्री नारायण गुरु, टीके माधवन और डॉ. भीमराव अम्बेडकर ऐसे नाम हैं जिन्होंने ब्रिटिश शासनकाल में दलितों के लिए मंदिरों के द्वार खुलवाने के लिए आन्दोलन किए। दलितों के लिए मंदिरों के द्वार खुलवाने का असली मकसद समाज में व्याप्त छूआछूत और जातिगत भेदभाव को खत्म करके सामाजिक समरसता लाना था। आजादी के दौरान दलितों के लिए चलाए गए मंदिर प्रवेश आन्दोलनों का ही परिणाम है कि दक्षिण भारत के 70 फीसदी मंदिरों में दलित पुजारी हैं, यह तथ्य स्वयं में अद्वितीय है।
सच भी है, भारतीय आध्यात्म में साधु-संत की कोई जाति नहीं होती है क्योंकि वह अपने ज्ञान और तपस्या से मानव जाति को सिंचित करने का काम करता है। कबीरदास जी ने कहा- “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।।” उपरोक्त पंक्तियों को चरितार्थ करते हुए आज हम आपको उत्तर भारत के ऐसे पांच विख्यात मंदिरों के बारे में बताएंगे जहां दलित पुजारी नियुक्त हैं।
1— राम मंदिर, अयोध्या
भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर स्थित अयोध्या का राम मंदिर केवल भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। 22 जनवरी 2024 को सम्पन्न हुए प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम के बाद पहले दिन ही तकरीबन 5 लाख श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी थी। एक आंकड़े के मुताबिक अयोध्या राम मंदिर दर्शन करने वाले दैनिक आगन्तुकों की संख्या तकरीबन एक से डेढ़ लाख है।
सूर्यवंशी कुल में जन्म लेने वाले भगवान श्रीराम ने अपने वनवास के दिनों में दलितों-वंचितों को स्वयं में समाहित कर सामाजिक समरसता का अनूठा संदेश दिया था। निषादराज गुह्य और केवट को बार-बार गले लगाना, माता सबरी के जूठे बेर खाना और गिद्धराज जटायु का अपने हाथों से अन्तिम संस्कार करना इस बात का द्योतक है कि भगवान श्रीराम की दृष्टि में मानवता से बड़ी कोई जाति नहीं थी।
ऐसे में भगवान श्रीराम के सिद्धान्तों को चरितार्थ करने के लिए अयोध्या के राम मंदिर में नियुक्त 24 पुजारियों में से तीन दलित पुजारियों की नियुक्ति की गई है। इन दलित पुजारियों में से दो अनुसूचित जाति (एससी) व एक पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से हैं। हांलाकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, इसके पूर्व भी राम मंदिर में मुख्य पुजारी अन्य पिछड़ा वर्ग से थे। राम मंदिर, अयोध्या में नियुक्त पुजारियों की नियुक्ति जाति-पाति के आधार पर नहीं बल्कि सिर्फ योग्यता के आधार पर की गई है।
2— महावीर मंदिर, पटना
बिहार की राजधानी पटना में स्थित महावीर मंदिर भगवान हनुमान को समर्पित है। पटना के महावीर मंदिर में दर्शन-पूजन करने वाले श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। महावीर मंदिर प्राचीन काल से ही अस्तित्व में है, हांलाकि मंदिर स्थापना के बारे में कहा जाता है कि रामानंदी संप्रदाय के एक तपस्वी स्वामी बालानंद इसके मूल संस्थापक हैं। पटना के महावीर मंदिर में संकटमोचन की मूर्ति स्थापित है।
वैसे तो प्रत्येक वर्ष लाखों तीर्थयात्री मंदिर में दर्शन करने आते हैं लेकिन शनिवार और मंगलवार के दिन महावीर मंदिर में श्रद्धालुओं की लम्बी-लम्बी कतारें देखी जा सकती हैं। रामनवमी के दिन तो भक्तजनों की कतारें एक किलोमीटर से भी ज्यादा लम्बी होती हैं।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि बजंरगबली के इस प्रख्यात मंदिर में साल 1993 से ही नियुक्त दलित पुजारी का नाम सूर्यवंशी दास है। राम मन्दिर आंदोलन के प्रमुख संत व श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास, गोरखनाथ धाम के महंत अवैद्यनाथ और महंत अवध किशोर दास की अनुशंसा पर महावीर मंदिर, पटना में दलित पुजारी सूर्यवंशी दास की नियुक्ति की गई थी। पटना महावीर मंदिर न्यास समिति के सचिव का नाम आचार्य किशोर कुणाल (पूर्व आईपीएस) है, जिनकी निगरानी में मंदिर का कामकाज और विकास संचालित होता है।
3 —बागनाथ मंदिर, बागेश्वर उत्तराखंड
उत्तराखंड के बागेश्वर में स्थित बागनाथ के नाम से विख्यात शिव मंदिर का निर्माण सन 1602 ई. में चन्द्रवंशी राजा लक्ष्मीचन्द ने करवाया था। इस प्राचीन शिव मंदिर को लेकर कई पौराणिक मान्यताएं हैं। तीन नदियों (सरयू, गोमती और सरस्वती नदी) के संगम पर स्थित यह शिव मंदिर कभी मार्कंडेय ऋषि की तपोस्थली थी।
उत्तराखंड का यह एकमात्र शिव मंदिर है जो दक्षिणमुखी है और शिव शक्ति की जल लहरी पूर्व दिशा की ओर है। इस शिव मंदिर के बारे में जो विख्यात पौराणिक कथा है, उसके मुताबिक अनादिकाल में जब महर्षि वशिष्ठ अपने तपोबल से परमपिता ब्रह्मा को प्रसन्न कर उनके कमंडल से प्रवाहित मां सरयू को लेकर इसी मार्ग से जा रहे थे, तभी तपस्या में लीन मार्कंडेय ऋषि के तेज से मां सरयू आगे नहीं बढ़ पा रही थीं क्योंकि तीव्र जलप्रवाह से उनकी तपस्या भंग होने का खतरा था। ऐसे में मुनि वशिष्ठ ने भगवान भोलेनाथ की आराधना की, तत्पश्चात बाघ के रूप में महादेव और गाय के रूप में माता पार्वती यहां विराजमान हुईं। तब से यह स्थान बागनाथ के नाम से विख्यात हो गया।
आपको जानकारी के लिए बता दें कि बागनाथ मंदिर में पुरोहित के रूप में ब्राह्मण भी हैं तो दलित भी। इस शिव मंदिर में दलित पुजारियों का वैदिक मंत्रोच्चार स्वयं में एक गौरवमयी विषय है। श्रद्धालुजन इन दलित पुजारियों का पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं और दान-दक्षिणा भी देते हैं।
कभी ऐसा समय था जब इस देवभूमि के मंदिरों में दलितों के प्रवेश की अनुमति नहीं थी परन्तु आज बागनाथ मंदिर में नियुक्त दलित पुजारियों में भतौड़ा निवासी भूपाल लोबियाल और जौलकांडे निवासी डुंगर राम विगत कई वर्षों से पंडिताई कर रहे हैं। ऐसे में सर्वण समाज की युवा पीढ़ी द्वारा इन दलित पुजारियों की स्वीकारोक्ति सामाजिक समरसता के लिए एक बड़ा सन्देश है।
4— रामदेवरा मंदिर, जैसलमेर
राजस्थान राज्य के जैसलमेर में रामदेवरा रेलवे स्टेशन से तकरीबन 700 मीटर की दूरी पर स्थित बाबा रामदेव की समाधि है। इस गांव का नाम पहले रूणिचा था परन्तु बाद में बाबा रामदेवजी के नाम पर ‘रामदेवरा’ पड़ गया। राजपूत परिवार में जन्में रामदेवजी के पिता का नाम अजमालजी तंवर और माता का नाम मैणादे था। रामदेव की पत्नी का नाम निहालदे था जो अमरकोट के सोढ़ा राजपूत दलै सिंह की पुत्री थीं।
पोखरण से 12 किमी. उत्तर दिशा में मौजूद रामदेवरा मंदिर वह स्थान है जहां तंवर वंश के राजपूत रामदेव जी ने 1834 ई. में समाधि ली थी। श्रद्धालुजन बाबा रामदेवजी को भगवान कृष्ण का अवतार मानते हैं। मध्ययुगीन समाज में व्याप्त छूआछूत, जात-पांत के भेदभाव को मिटाने तथा पाखंड और आडंबर का विरोध करने वाले रामदेवजी को ‘रामशा पीर’ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि रामदेव की शक्तियों से प्रभावित होकर पांचों पीरों ने उनके साथ रहने का निश्चय किया। उनकी मज़ारें भी रामदेव की समाधि के निकट स्थित हैं।
रामदेवजी ने अपने जीवनकाल में दलितों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही उन्हें आत्मसम्मान के साथ जीने के लिए प्रेरित किया। घोड़े पर सवार बाबा रामदेवजी के अनुयायी पूरे देश में फैले हुए हैं। प्रतिवर्ष भाद्रपद के महीने में रामदेवरा में ‘भादवा का मेला’ लगता है, जहां मंदिर में बाबा के दर्शनों हेतु लाखों हिन्दू-मुस्लिम श्रद्धालु आते हैं।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि रामदेवरा मंदिर में पिछले कई दशकों से गढ़वाल समाज के ही पुजारी बाबा रामदेव की पूजा-अर्चना करते हैं। इनमें से ज्यादातर लोग अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के हैं। यही नहीं, मुस्लिम समाज के लोग भी रामदेवरा मंदिर में पूजा करने आते हैं।
5— कालिका देवी मंदिर, लखना (इटावा)
उत्तर प्रदेश में इटावा के लखना कस्बे में मौजूद यमुना नदी तट पर स्थित कालिका देवी मंदिर में तकरीबन 200 वर्षों से दलित पुजारी ही मां शक्ति की पूजा- अर्चना करते आ रहे हैं। कालिका देवी मंदिर में आने वाले श्रद्धालु चाहे किसी भी जाति के हो, इन दलित पुजारियों के आगे अपना सिर झुकाते हैं।
कालिका देवी मंदिर के दलित पुजारी ही हवन कुंड में बैठते हैं, प्रार्थना करते हैं और श्रद्धालुजनों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। स्थानीय प्रशासक जसवंत राव ने साल 1820 में कालिका देवी मंदिर का निर्माण करवाया था और उन्होंने दलित जाति के छोटे लाल को पहला पुजारी नियुक्त किया था। तभी से दलित पुजारी छोटे लाल के वंशज ही कालिका देवी मंदिर में पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं।
कालिका देवी मंदिर में बधाई डालने और ढोल बजाने का कार्य दलित और कोरी जाति की महिलाएं ही करती हैं। कालिका देवी का मंदिर स्थानीय जिलों के श्रद्धालुओं के अतिरिक्त डकैतों के लिए भी आस्था का विषय रहा है। दस्यु सुन्दरी फूलन देवी से लेकर मोहर सिंह, मलखान सिंह और निर्भय गूजर जैसे कई नामीगिरामी डकैत इस मंदिर में झंडा और घंटा चढ़ा चुके हैं।
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