उड़ीसा के पुरी जिले में चंद्रभागा समुद्र तट से कुछ ही दूरी पर स्थित कोणार्क का ‘काला पगोड़ा’ नामक सूर्य मंदिर भारतीय वास्तुकला की एक महान उपलब्धि है जो पूरे विश्व में कोणार्क सूर्य मंदिर के नाम से विख्यात है। कोणार्क मंदिर के भवनों के सभी हिस्से उकेरी हुई आकृतियों से सजे हुए हैं। इन उकेरी हुई आकृतियों में फूल-पत्तियां, पशु, देव-दानव तथा कुछ काल्पनिक पशुओं की मूर्तियां छोटे या बड़े आकार में उत्कीर्ण हैं। हांलाकि अधिकांश उभरी आकृतियां स्त्री-पुरुषों की हैं, इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का कहना है कि वे कामसूत्र में वर्णित कामपरक विषयों का चित्रण करती हैं। वहीं अन्य विद्वानों का मत है कि तांत्रिक पद्धति सम्बन्धी क्रियाओं को मंदिर के बाह्य भागों में दर्शाया गया है।
अद्वितीय है कोणार्क का सूर्य मंदिर
भगवान सूर्य की पौराणिक कथा को एक मंदिर के रूप में अभिव्यक्ति किया गया है। पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान सूर्य अपने साथ घोड़े वाले रथ पर आकाश में गतिमान रहते हैं। अत: इस मंदिर को एक रथ का रूप दिया गया है और इसके चारों तरफ पत्थर से तराशे हुए बारह पहिए लगाए गए हैं। भगवान सूर्य के रथ का पूरा आभास देने के लिए चबूतरे के सामने जो सीढ़ियां हैं उनमें सात अश्वों की स्वतंत्र मूर्तियां लगी हुई हैं, मानों ये सात घोड़े रथ को खींच रहे हों। इस मंदिर के सात घोड़े सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं जबकि 12 जोड़ी पहिए दिन के चौबीस घंटे की स्थिति को प्रकट करते हैं। जबकि इन पहियों में लगी 8 तीलियां पूरे दिन के आठों प्रहर के प्रतीक स्वरूप हैं।
कोणार्क सूर्य मंदिर के चबूतरे पर दो भवनों सहित देबुल और जगमोहन का निर्माण करवाया गया था। शिखर सहित देबुल की ऊंचाई तकरीबन 225 फुट रही होगी। जबकि जगमोहन 100 वर्ग फुट का एक मंडप था। देबुल तो अब भग्न अवस्था में है। एक ही पत्थर से निर्मित भगवान सूर्य देव की तीन प्रतिमाएं हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर बने दो शेर हाथियों पर सवार दिखाए गए हैं जो अपनी आक्रामक मुद्रा को दर्शाते हैं। इसके साथ ही मंदिर के प्रवेश द्वार पर नाट्यशाला भी है जहां नर्तकियां भगवान सूर्यदेव के सम्मुख नृत्य किया करती थीं। मंदिर शिखर के तराशे हुए पत्थर आज भी नीचे बिखरे पड़े हैं।
कोणार्क सूर्य मंदिर का पौराणिक महत्व
भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को महर्षि गर्ग के श्राप से कुष्ठ रोग हो गया था। ऐसे में इस रोग से मुक्ति के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने साम्ब को सूर्य उपासना करने की सलाह दी। इसके बाद साम्ब ने नियमित 12 सालों तक सूर्य उपासना की। कुष्ठ रोग से मुक्ति पाने के बाद साम्ब ने 12 स्थानों पर सूर्य मंदिरों का निर्माण करवाया। इनमें उड़ीसा सहित गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड, कश्मीर और उत्तरप्रदेश के सूर्य मंदिर खास हैं। भविष्य पुराण के मुताबिक भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब ने जिन 12 सूर्य मंदिरों का निर्माण करवाया उनमें से एक काणार्क का सूर्य मंदिर भी है।
राजा नरसिंह देव ने बनवाया था कोणार्क का सूर्य मंदिर
अधिकांश इतिहासकारों के मुताबिक कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण राजा नरसिंह देव ने सन् 1253 से 1260 ई. के मध्य करवाया था। कोणार्क सूर्य मंदिर की अपूर्णता को लेकर सर्वाधिक प्रचलित मत यह है कि राजा नरसिंह देव की असामयिक मृत्यु के कारण इसे अव्यस्थित स्थिति में छोड़ दिया गया। जबकि जगन्नाथ पुरी मंदिर के अभिलेखों तथा 1278 ई. के कुछ ताम्रपत्रों से यह पता चलता है कि राजा नरसिंह देव का शासनकाल 1282 ई. तक रहा। इन अभिलेखों से यह भी पता चलता है कि यह सूर्य मंदिर कभी अपनी पूर्ण अवस्था में था और इसमें सक्रिय रूप से पूजा-अर्चना की जाती थी।
ऐसे में यह तथ्य गलत साबित होता है कि कोणार्क सूर्य मंदिर भारत का एक ऐसा रहस्यमयी मंदिर है, जहां आज तक कभी पूजा नहीं हुई। इसके साथ ही यह तथ्य भी तर्क संगत नहीं है कि निर्माण कार्य पूरा नहीं होने के कारण यह मंदिरा अधूरा रह गया। जबकि सच्चाई यह है कि कोणार्क का सूर्य मंदिर कभी अपनी पूर्ण स्थिति में था, यह कैसे ढह गया इसे आज तक कोई भी स्पष्ट नहीं कर पाया है।
मंदिर विखंडन के कारणों में विभिन्न विद्वानों द्वारा वास्तुदोष, भूकम्प, शक्तिशाली चुम्बकीय पत्थर तथा 1508 में कालापहाड़ के विध्वंसकारी आक्रमण को प्रमुख रूप से गिनाया जाता है। बता दें कि 18वीं शताब्दी के अन्त तक कोणार्क मंदिर का वैभव नष्ट हो चुका था। जंगल में तब्दील हो चुके इस मंदिर क्षेत्र में केवल जंगली जानवर और डाकू निवास करते थे। स्थानीय लोग तो यहां दिन में भी जाने से डरते थे।
मंदिर में मौजूद चुम्बकीय आकर्षण का रहस्य
ऐसी मान्यता है कि कोर्णाक सूर्य मंदिर के गर्भगृह में स्थित भगवान सूर्यदेव की मूर्ति शिखर में मौजूद चुम्बकीय प्रभाव के कारण हवा में ऊपर व नीचे दोलित होती थी। वहीं प्रात:काल सूर्य की किरणें कुछ देर के लिए गर्भगृह में स्थित मूर्ति पर पड़ती थीं। कोणार्क मंदिर शिखर के पत्थर आज भी नीचे पड़े हुए हैं। मंदिर शिखर के अधूरे दिखने व चुम्बकीय प्रभाव से सूर्य मूर्ति के हवा में दोलित होने की कहानी जो लोगों में विख्यात है, वह यह है कि पूर्व में कोणार्क मंदिर के शिखर 52 टन का चुम्बक लगा था। अत: मंदिर के शक्तिशाली चुम्बकीय प्रभाव से समुद्र से गुजरने वाले जहाज इसकी तरफ आकर्षित होते थे, ऐसे में इन जलवाहनों को भारी क्षति पहुंचती थी। ऐसा भी कहा जाता है कि इस चुम्बकीय प्रभाव से जहाजों पर मौजूद मैग्नेटिक कम्पास भी बाधित होते थे यानि वे ठीक ढंग से काम नहीं करते थे। ऐसे में सामुद्रिक जहाजों को सुरक्षित रखने के लिए मुस्लिम नाविकों अथवा पुर्तगाली यात्रियों ने मंदिर में मौजूद इस चुम्बक को हटवा दिया।
ऐसा कहा जाता है कि यह शक्तिशाली चुम्बक मंदिर की दीवारों के सभी पत्थरों तथा उनमें इस्तेमाल किए गए लोहे के स्तम्भों को संतुलन में रखता था। ऐसे में इसके विस्थापन के कारण मंदिर के दीवारें अपना संतुलन खो बैठीं और आखिर में गिर गईं। हांलाकि मंदिर शिखर पर 52 टन के चुम्बक होने तथा इसके द्वारा समुद्री जहाजों को आकर्षित होने की कहानी महज एक किंवंदती है, किसी भी ऐतिहासिक अभिलेख में इस घटना का उल्लेख नहीं मिलता है और न ही कोर्णाक मंदिर में ही इस शक्तिशाली चुम्बक के अस्तित्व का कोई प्रमाण मौजूद है।
गौरतलब है कि लाल बलुआ पत्थरों तथा काले ग्रेनाइट के पत्थरों से निर्मित कोणार्क सूर्य मंदिर को साल 1984 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्रदान की गई। इतना ही नहीं, भारत की सांस्कृति विरासत के महत्व को दर्शाने लिए रिजर्व बैंक ने 10 रुपए के नोट के पीछे भी कोणार्क सूर्य मंदिर को अंकित किया है।
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