
मध्यकालीन इतिहासकार मुगल बादशाह हुमायूं का मूल्यांकन वीर एवं साहसी बादशाह होने के साथ-साथ उदार एवं क्षमाशील व्यक्ति के रूप में करते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि मुगल बादशाह हुमायूं उत्सव मनाने, इनाम देने तथा नृत्य-संगीत के अतिरिक्त भोग-विलास का अत्यधिक शौकीन था।
बतौर बादशाह हुमायूं में दूरदर्शिता की कमी थी और उसका एक भी सैनिक अभियान योजनाबद्ध नहीं था, यही वजह है कि शेरशाह सूरी ने उसे हिन्दुस्तान से बाहर खदेड़ दिया। हुमायूं को 15 वर्षों तक निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ा। हांलाकि हुमायूं में हिम्मत नहीं हारने का गुण था, जिसकी वजह से वह अपनी खोई हुई सत्ता दोबारा पाने में सफल रहा। इन सब बातों के अतिरिक्त के हुमायूं से जुड़े कुछ ऐसे काले सच भी जिनके बारे में जानकर आप दंग रह जाएंगे।
1-अव्वल दर्जे का अफीमची था हुमायूं
साल 1530 में बाबर की मृत्यु के ठीक चौथे दिन 30 दिसम्बर को हुमायूं ने दिल्ली का सिंहासन सम्भाला, उन दिनों उसकी आयु 22 वर्ष रही होगी। आपको यह बात जानकर हैरानी होगी कि हुमायूं अव्वल दर्जे का अफीमची था, मतलब दिन में कम से कम तीन बार अफीम का सेवन जरूर करता था।
गुलबदन बेगम अपनी कृति ‘हुमायूंनामा’ में लिखती हैं कि साल 1556 में 24 जनवरी के दिन कड़ाके की ठंड पड़ रही थी, हुमायूं ने गुलाब जल मंगवाकर अफीम की आखिरी खुराक ली। वह अफीम का बहुत ज्यादा सेवन करता था। दिल्ली सल्तनत के कुछ लोग हज यात्रा करके लौटे थे, अत: हुमायूं उनसे मिलने के लिए लाल पत्थरों से बने अपने पुस्तकालय ‘दीनपनाह’ में बुलाया जो पुराने किले की छत पर मौजूद था।
छत पर हाजियों से मिलने का एक कारण यह भी था कि बगल की मस्जिद में लोग जुमे की नमाज पढ़ने के लिए एकत्र हुए थे, जो अपने बादशाह की एक झलक पा सकें। तेज हवा चल रही थी, हुमायूं अपने पुस्तकालय ‘दीनपनाह’ की दूसरी सीढ़ी पर ही पहुंचा था तभी मस्जिद से 'अल्लाह हो अकबर’ की अजान सुनाई दी। यह शब्द सुनते ही हुमायूं ने वहीं झुककर सजदा करने की कोशिश की तभी उसका पैर जामे में फंस गया जिससे वह लड़खड़ा कर सिर के बल सीढ़ियों से गिरता हुआ जमीन पर आ गया। हुमायूं की खोपड़ी की हड्डी टूट गई थी और उसके दाहिने कान से तेजी से खून निकल रहा था।
दीनपनाह पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के बाद हुमायूं ने आंख नहीं खोली और तीन बाद उसकी मौत हो गई। मुल्ला बेकसी नाम के एक एक हमशक्ल को हुमायूं की पोशाक पहनाकर 17 दिनों तक उसकी मौत को छुपाया गया ताकि विद्रोह न हो सके। इसके बाद अकबर को उत्तराधिकारी घोषित कर दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया गया।
2- चौसा युद्ध में अपनी बेटी को छोड़ भागा था हुमायूं
यह घटना है साल 1539 की जब 26 जून की अलसुबह बिहार में बक्सर से 10 मील दक्षिण-पश्चिम में चौसा नामक स्थान पर अफगान सरदार शेर खां (शेरशाह सूरी) और मुगल बादशाह हुमायूं के बीच एक खतरनाक जंग लड़ा गया। शेरशाह सूरी के तीव्र आक्रमण से मुगलों में भगदड़ मच गई और बड़ी संख्या में मुगल सैनिक मारे गए और कुछ ने जानकर बचाकर अपनी रक्षा की। इस युद्ध से भागते समय स्वयं हुमायूं डूबते-डूबते बचा और बड़ी कठिनाई से एक भिश्ती की सहायता से गंगा नदी पार कर सका।
हैरानी की बात यह है कि अपनी जान बचाने के लिए हुमायूं अपनी मुगल बेगमों के साथ ही 8 वर्ष की बेटी अकीक बेगम (बेगा बेगम की दूसरी संतान) को भी युद्धस्थल पर ही छोड़कर भाग गया था। गुलबदन बेगम अपनी कृति ‘हुमायूंनामा’ में लिखती हैं कि युद्ध से भागे हुए बादशाह हुमायूं ने मिर्जा हिंदाल से कहा कि “चौसा युद्ध में अकीक बेगम खो गई और दुःख इस बात का है कि उसे अपने सामने ही क्यों नहीं मार डाला?”
चौसा के युद्ध में हुमायूं तो अपनी जान बचाने में सफल रहा परन्तु उसकी 8वर्षीय बेटी अकीक बेगम कहां गई, कुछ पता नहीं चला। वहीं कुछ विद्वानों के अनुसार, हुमायूं की बेटी अकीक बेगम उसकी आंखों के सामने ही गंगा नदी में बह गई। यह सच है कि मुगल बादशाह युद्ध जीतने के बाद महिलाओं और लकड़ियों को कैदकर अपने हरम में रख लेते थे परन्तु शेरशाह सूरी ने मुगल परम्परा के विपरीत युद्धबंदी मुगल बेगमों तथा स्त्रियों को सम्मान के साथ वापस भेज दिया।
3- हुमायूं ने 20 साल छोटी लड़की से की शादी
साल 1539 में चौसा युद्ध हारने के बाद हुमायूं ने 1540 ई. में शेरशाह सूरी से कन्नौज में एक और युद्ध लड़ा परन्तु इस युद्ध में मुगलों की निर्णायक हार हुई। स्थिति यह हो गई हुमायूं को हिन्दुस्तान छोड़कर भागना पड़ा। हुमायूं ने सिन्ध की तरफ रूख किया और अपने सौतेले भाई हिन्दाल के यहां शरण ली। वहां हिन्दाल की मां दिलदार बेगम ने हुमायूं की खूब आवभगत की और बादशाह कहकर उसका मान-सम्मान बढ़ाया।
इस दौरान कुछ लड़कियां भी हुमायूं से मिलने आईं, तभी हुमायूं की नजर एक 14 साल की लड़की पर पड़ी। उसने हिन्दाल से पूछा यह लड़की कौन है? तब हिन्दाल ने बताया कि वह उसके उस्ताद गुरु मीरअली अकबर की बेटी हमीदा बानो है। उस समय हुमायूं की उम्र 34 साल थी और उसकी तीन बीवियां पहले से थीं। बावजूद इसके वह पहली नजर में ही महज 14 साल की हमीदा बानो को दिल दे बैठा।
हुमायूं ने दिलदार बेगम को यह बात बताई कि वह हमीदा बानो से शादी करना चाहता है। ऐसे में 40 दिनों के मान-मनौव्वल के बाद दिलदार बेगम के कहने पर हमीदा बानो शादी के लिए राजी हुई। इस प्रकार 26 अगस्त, 1541 ई. को हुमायूँ और हमीदा बानो की शादी हो गई और ठीक 14 महीने बाद दोनों से एक बेटा पैदा हुआ जिसे हम सभी अकबर के नाम से जानते हैं।
4- हुमायूँ ने नहीं की थी महारानी कर्णावती की मदद
भारतीय इतिहास में एक प्रचलित कहानी यह है कि जब गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन बहादुर शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण किया तब मेवाड़ की महारानी कर्णावती ने मुग़ल बादशाह हुमायूँ को पत्र लिखकर मदद की गुहार लगाई, साथ में एक राखी भी भेजी। इसके बाद महारानी कर्णावती का पत्र पाकर हुमायूं उसकी मदद के लिए तुरन्त निकल पड़ा था। इस कहानी का उल्लेख इतिहास की एकमात्र किताब ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ में मिलता है, जिसके लेखक का नाम कर्नल जेम्स टॉड है।
जबकि सच्चाई यह है कि किसी भी तत्कालीन इतिहासकार ने महारानी कर्णावती द्वारा हुमायूं को राखी भेजने की घटना का जिक्र नहीं किया है। वहीं गुजरात के शासक बहादुर शाह द्वारा चित्तौड़ पर कब्जा करने तथा लूटमार मचाने के कुछ महीनों बाद हुमायूं चित्तौड़ पहुंचा था। तब तक महारानी कर्णावती सहित अनेकों राजपूत स्त्रीयों ने जौहर कर लिया था। दरअसल हुमायूं चित्तौड़ साम्राज्य के ध्वस्त होने की प्रतिक्षा कर रहा था।
एक तथ्य यह भी सामने आता है कि चित्तौड़ आक्रमण के दौरान बहादुरशाह और हुमायूं के मध्य पत्राचार भी हुआ था जिसका उल्लेख एस.के.बनर्जी ने अपनी पुस्तक ‘हुमायूँ बादशाह‘ में किया है। बहादुर शाह ने पत्र लिखकर हुमायूँ को बताया था कि वो ‘काफिरों’ को मार रहा है। बदले में हुमायूँ ने भी लिखा था कि उसके दिल का दर्द ये सोच कर खून में बदल गया है कि एक होने के बावजूद हम दो हैं। ऐसे में चित्तौड़ हमले की कहानी को जानबूझकर रक्षाबन्धन के त्यौहार से जोड़ा गया है।
5- हुमायूं ने अपने छोटे भाई कामरान की आंखें निकलवा ली
यह घटना उस दौर की है जब हुमायूं ने अपने निर्वासित जीवन के दौरान मार्च 1545 ई. में कंधार और काबुल जीत लिया था। हिन्दाल, यादगार मिर्जा और सरदार बैरम खां ये सभी हुमायूं के साथ आ चुके थे। परन्तु कामरान और अस्करी हुमायूं का विरोध करते रहे। कामरान ने कभी अफगानों, कभी उजबेगों तथा कभी सिन्ध के अमीर की मदद से काबुल पर दो बार कब्जा कर लिया। हांलाकि प्रत्येक बार वह परास्त हुआ और हुमायूं हर बार कामरान और अस्करी को माफ करता रहा। आखिरकार साल 1553 में हुमायूं ने कामरान की आंखें निकलवा ली और उसे मक्का जाने का आदेश दे दिया जहां 1557 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
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