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Dalit Saints who brought revolution in Indian society

भारतीय समाज में क्रांति लाने वाले मध्यकालीन दलित संत

संस्कृत भाषा में ‘दलित’ से तात्पर्य- विभाजित, टूटा हुआ अथवा बिखरा हुआ से है, जबकि व्यापक अर्थों में ‘दलित’ उन अछूत लोगों को कहा जाता है जो पारंपरिक हिंदू जाति पदानुक्रम से बाहर थे। मध्यकालीन भारत सामाजिक दृष्टि से अति दुर्बल था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अतिरिक्त समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी था जिसे अछूत पुकारते थे, जिन्हें आज की तारीख में दलित कहा जाता है। इस प्रकार दलितों को समाज के किसी भी वर्ग में स्थान प्राप्त नहीं था। चमार, जुलाहे, मछली पकड़ने वाले, टोकरी बनाने वाले, शिकारी आदि दलित वर्ग का हिस्सा थे। इनसे भी निम्न स्तर पर हादी, डोम, चाण्डाल, बधाटू आदि वर्ग का था जिन्हें नगरों अथवा गावों के बाहर रहना पड़ता था।

समाज में दलितों की स्थिति वैश्यों तथा शूद्रों से भी निम्न थी। जातिप्रथा के कारण भारत का समाज ऊँच-नीच की भावनाओं से विषाक्त हो चुका था। जातिगत बन्धन इतना कठोर था कि जाति परिवर्तन और अन्तर्जातीय खानपान तथा वैवाहिक सम्बन्ध सम्भव नहीं थे। समाज में स्त्रियों की दशा भी निरन्तर गिरती जा रही थी।

हिन्दू और बौद्ध, इन दोनों ही धर्मों में अनाचार फैल चुका था। धर्म की मूल भावना समाप्त हो चुकी थी, उसका स्थान कर्मकाण्ड और बाह्यडम्बर ने ले लिया था। बौद्ध विहार, मठ तथा हिन्दू मंदिर अनाचार, भोग विलास के अड्डे बन चुके थे। मंदिरों में देवदासियों की प्रथा भ्रष्टाचार का एक मुख्य कारण बन गई थीं। इन परिस्थितियों में दलितों का मंदिरों में प्रवेश तथा पूजा-पाठ करना निषेध था। अतः समाज में व्याप्त जातिगत और धार्मिक विषमता से व्यथित होकर दलित जाति से ही कुछ ऐसे संतों का जन्म हुआ जिन्होंने अपने विचारों और सुकर्मों से भारतीय समाज की तस्वीर बदल दी। इस स्टोरी में हम  आपको कुछ ऐसे ही दलित संतों के बारे में बताने जा रहे हैं जो आज की तारीख में केवल दलित समाज ही नहीं बल्कि हर वर्ग में पूजनीय माने जाते हैं।

संत रविदास (रैदास)

एक महान दलित संत जिसकी जयंती प्रत्येक वर्ष माघी पूर्णिमा के दिन पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। जी हां, मध्ययुगीन साधकों में संत रविदास का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। संत रैदास को कबीर का समकालीन माना जाता है।

संत रैदास की शक्तियों से प्रभावित होकर सुल्तान सिकन्दर लोदी ने उन्हें दिल्ली आने का न्यौता भेजा था, जिसे उन्होंने बड़ी विनम्रता से ठुकरा दिया। संत रैदास की रचनाओं में खड़ी बोली, अवधी, राजस्थानी, उर्दू-फारसी आदि भाषाओें का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। संत रैदास की रचनाओं से तकरीबन 40 पद सिख धर्मग्रन्थ ‘गुरूग्रन्थ साहिब’ में भी सम्मिलित किए गए हैं । उनकी काव्य रचनाएं ‘रैदासी’ के नाम से जानी जाती हैं।

उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी बनारस के सीर गोवर्धन में जन्मे संत रैदास के पिता का नाम रग्घु और माता का नाम कलसा था। संत रैदास के पत्नी का नाम लोनाजी और बेटे का नाम श्रीविजयदासजी है। चर्मकार (चमार) जाति में जन्म लेने के कारण संत रैदास जूते बनाने का काम करते थे।

संत रैदास कहते हैं-

जाति भी ओछि, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा। नीचे से प्रभु ऊँच कियो है, कह रविदास चमारा।।

संत रैदास ने मध्ययुग के उस दौर में जन्म लिया था जब दलित जाति के लोगों को समाज में प्रताड़ित होना पड़ता था। उन्होंने अंधविश्वास, ढोंग, छूआछूत, जातिप्रथा रूपी विष को जड़ से मिटाने का प्रयास किया था।

जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात। रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहीं जात कुजात ।।

अर्थ- संत रैदास कहते हैं किसी की जात नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि संसार में कोई जाति-पांति नहीं है, सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है। यहां कोई जाति बुरी जाति नहीं है।

रैदास प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय। प्रेम न मुख खोलै कभऊँ, नैन देत हैं रोय॥

अर्थ- रैदास कहते हैं कि प्रेम कोशिश करने पर भी छिप नहीं पाता, वह प्रकट हो ही जाता है। प्रेम का बखान वाणी द्वारा नहीं हो सकता। प्रेम को तो आँखों से निकले हुए आँसू ही व्यक्त करते हैं।

पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत। रैदास दास पराधीन सौं, कौन करैहैं प्रीत।।

अर्थ- हे! मित्र जान लो कि पराधीनता एक बड़ा पाप है। रैदास कहते हैं कि पराधीन व्यक्ति से कोई भी प्रेम नहीं करता है, उससे सभी घृणा करते हैं।

संत रैदास की एक कहावत आमजन में आज भी बेहद प्रचलित है- मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसका तात्पर्य है कि मन जो काम करने के लिए अन्तकरण से तैयार हो वही काम करना उचित है। यदि मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। संत रैदास ने अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों से यह साबित कर दिया कि कोई भी मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है बल्कि उसके विचार, व्यवहार और कर्म उसको महान बनाते हैं।

संत घासीदास

सतनाम पंथ के संस्थापक गुरू घासीदास की जयंती प्रत्येक वर्ष पूरे छत्तीसगढ़ में 18 दिसम्बर को मनाई जाती है। 18 दिसम्बर 1756 ई. को नागपुर के गिरौदपुरी गांव (वर्तमान में छत्तीसगढ़ के बलौदा बाजार स्थित गिरौदपुरी) में जन्मे संत घासीदास के पिता का नाम महंगू दास और माता का नाम अमरौतिनी था। संत घासीदास की पत्नी का नाम सफुरा था जोकि सिरपुर निवासी थीं। घासीदास जाति के चमार थे। घासीदास के जीवनकाल में भारत की सामाजिक दशा अत्यन्त सोचनीय थी लिहाजा संत रैदास की तरह ही उन्हें भी अपने जीवन के शुरूआती दिनों में ही जातिगत व्यवस्था के तहत छूआछूत का सामना करना पड़ा।

उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के खिलाफ ‘मनखे-मनखे एक समान’ का संदेश दिया। उन्होंने समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता के विरोध में पूरे छत्तीसगढ़ की यात्रा की। जातिगत भेदभाव और दुव्यर्वहार को देखकर वह बहुत व्यथित थे। समाज को इस समस्या से मुक्ति दिलाने के लिए वे लगातार प्रयास करते रहे। संत घासीदास ने सत्य और ज्ञान की खोज के लिए सोनाखान के जंगलों में लम्बी तपस्या की। इस दौरान उन्होंने गिरौदपुरी में अपना आश्रम बनाया और और छाता पहाड़ पर समाधिस्थ भी रहते थे। 

महाज्ञानी संत घासीदास के गुरु के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती है। उन्होंने ब्राह्मण धर्म और परम्परागत जाति व्यवस्था का खुलकर विरोध किया। संत घासीदास मूर्ति पूजा के विरोधी थे, उनका मानना था कि उच्च वर्ण के लोगों और मूर्ति पूजा में गहरा सम्बन्ध है। संत घासीदास समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान अधिकार की बात करते थे। गुरू घासीदास के संदेशों का समाज के पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा।

संत घासीदास ने 1820 ई. में सतनामी पंथ की स्थापना की। सतनामी पंथ से तात्पर्य है- सच्चे नाम का पथ। उन्होंने सतनामी पंथ के तहत सात महत्वपूर्ण शिक्षाएं दी। जो इस प्रकार हैं- 1-सतनाम में विश्वास रखना। 2-मूर्ति पूजा नहीं करना। 3- जीव हत्या नहीं करना। 4-मांसाहार नहीं करना। 5- नशा सेवन नहीं करना, चोरी-जुआ से दूर रहना । 6-जाति-पाति के प्रपंच में नहीं पड़ना । 7- व्यभिचार नहीं करना। इस प्रकार छत्तीसगढ़ी चमारों के लिए एक धार्मिक और सामाजिक पहचान प्रदान करने में सतनामी पंथ की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1901 की जनगणना के मुताबिक, उन दिनों ही तकरीबन 4 लाख लोग सतनामी पंथ के अनुयायी थे। छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर नारायण सिंह पर भी गुरू घासीदास के सिध्दांतों का गहरा प्रभाव था। छत्तीसगढ़ में सामाजिक तथा आध्यात्मिक जागरण की आधारशिला स्थापित करने में सफल रहे संत घासीदास के सतनामी पंथ से जुड़ने वाले अनुयायियों की संख्या आज की तारीख में लाखों से भी ज्यादा है।

संत घासीदास की स्मृति में उनके जन्म स्थान गिरौदपुरी में 52 करोड़ की लागत से कुतुबमीनार से भी ऊंचे जैतखाम का निर्माण करवाया गया है जिसकी ऊंचाई 77 मीटर है। इतना ही नहीं साल 1983 में तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने बिलासपुर में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय की स्थापना की जिसे जनवरी 2009 में केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिल गया।

संत-कवि चोखामेला

भगवान विठ्ठल के भक्त संत-कवि चोखामेला के अभंगों से उनकी महानता का पता चलता है। तेरहवीं सदी के आखिर और चौदहवीं सदी के प्रारम्भ में पंढरपुर के निकटवर्ती गांव मंगलवेढा में जन्म लेने वाले चोखामेला महार जाति के थे। महार जाति में जन्मे चोखामेला की आंखें भगवान विठ्ठल के दर्शनों के लिए तरस रही थीं लेकिन उन्हें पंढरपुर के मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था।

इसके लिए पंढरपुर मंदिर के पुजारियों ने संत चोखामेला पर कई आरोप भी लगाए। यहां तक कि एक बार उन्हें बैलों के पैरों में बाधकर घसीटने तक का दंड सुनिश्चित कर दिया, हैरानी की बात यह है कि पुजारी बैलों को मार-मारकर थक गए लेकिन बैल अपनी जगह से हिले तक नहीं। कहा जाता है कि उस दौरान उन सभी ने अनुभव किया कि पीताम्बरधारी पांडुरंग ही उनके सम्मुख खड़े हैं। इस घटना से सभी को यह अहसास हो गया कि भगवान विठ्ठल ही संत चोखामेला के असली रक्षक हैं।

चोखामेला अपने अभंग में लिखते हैं-(मराठी भाषा)

जन्मला देह सुखाचा। काय भरवसा आ​हे याचा।

एकलेचि यावें, एकलेचि जावें। हेचि अनुभवावें आपणचि।।

कोण हे अवघे सुखाचे संगति। अंतकालि होती पाठीमारे।

चोखा म्हणे याचा न धरी भरवसा। शरण जो सर्व विठोबा सी।।

चोखामेला के उपरोक्त अभंग का हिन्दी अर्थ है कि जीवन, जगत, शरीर सब क्षणभंगुर है। किसी का कोई साथी नहीं है, सब अकेले ही आते हैं और अकेले ही जाते हैं।

संत- कवि सोयराबाई

संत-कवि चोखामेला की पत्नी थी सोयराबाई, ऐसे में उनके अभंगों में भगवान विट्ठल की समतावादी भक्ति की झलक मिलती है, जो समाज के सबसे उत्पीड़ित वर्गों को आकर्षित करता है। बता दें कि सोयराबाई को भी अपने पति की ही तरह पंढरपुर के ब्राह्मणवाद के आध्यात्मिक अतिक्रमण का शिकार होना पड़ा था।

संत-कवि सोयराबाई का एक चर्चित अभंग कुछ इस प्रकार से है- (मराठी भाषा)

अवघा रंग एक झाला। रंगी रंगला श्रीरंग।।

मी तूंपण गेलें वायां। पाहतं पंडरीच्या राया।।

नाही भेदाचें तें काम। पळोनी गेले क्रोध काम।।

देही असुनी तूं विदेही। सदा समाधिस्थ पाही।।

रंग माळा सडे गुढीया तोरणे। आनंद किर्तन वैष्ण्ववांचे।।

असंख्य ब्राम्हण बैसल्या पंगती। विमानी पाहती सुरवर।।

तो सुख सोहळा दिवाळी दसरा। वोवाळी सोयरा चोखीयासी।।

हिन्दी अर्थ है- पंढरी के ब्राह्मणों ने चोखामेला को बहुत परेशान किया। इस पर भगवान को आश्चर्य हुआ। सभी लोग चोखामेला के घर पर एकत्र हुए। ऋद्धि और सिद्धि दरवाजे पर खड़ी थी। प्रवेश द्वार पर रंगोली, द्वार पर झंडे। वैष्णवों का हर्षोल्लास कीर्तन। जश्न दिवाली और दशहरा जैसा था। सोयराबाई, चोखामेला से पहले आरती की रोशनी लहराती हैं।

गौरतलब है कि दलित जाति से होने के कारण सोयराबाई के अभंगों में उनके जीवन की दुर्दशा का उल्लेख मिलता है, हांलाकि ये अभंग बहुत कम हैं। सोयराबाई के कुछ ही अभंग बचे है, जो मौखिक रूप से संरक्षित हैं। शायद इसलिए कि विट्ठल भक्तों ने केवल वही अभंग गाए होंगे जिन्हें उन्होंने पंढरपुर की तीर्थयात्रा के लिए उपयुक्त समझा होगा।

संत तिरूवल्लुवर

संत तिरूवल्लुवर को दक्षिण भारत का संत कबीर कहा जाता है। मद्रास स्थित मायलापुर के एक शूद्र परिवार में जन्मे संत तिरूवल्लुवर एक गृहस्थ संत थे। उनकी पत्नी वासुकी एक साध्वी व भगवद्भक्त थी। उच्च कोटि के साधक व गृहस्थ संत तिरूवल्लुवर कपड़ा बुनकर अपना जीवन-यापन करते थे। सहनशीलता और तपस्या की प्रतिमूर्ति संत तिरूवल्लुवर का नाम भारत के महान कवि-संतों की श्रेणी में बड़े आदर के साथ लिया जाता है।

भगवद् भक्ति में सर्वदा लीन रहने वाले संत तिरूवल्लुर के विचार कुछ इस प्रकार हैं - झूठ और बईमानी से कमाए गए धन का तत्क्षण त्याग कर देना चाहिए। दूसरों की सेवा करना ही परमधर्म है। मन की दीनता ही परम दीनता है, ज्ञानीजन धन की कमी को दीनता नहीं मानते हैं। आत्मनियंत्रण से मानव स्वर्ग को प्राप्त करता है, इसका अभाव उसे नरक में झोंक देता है।

संत तिरुवल्लुवर एक प्रख्यात तमिल कवि भी थे जिन्होंने 133 अध्याय और 1330 छंदों से परिपूर्ण नीति पर आधारित कृति ‘तिरुक्कुरल’ का सृजन किया। वह थेवा पुलवर, वल्लुवर और पोयामोड़ी पुलवर आदि कई नामों से विख्यात हैं। नैतिक शिक्षा से लबरेज ‘तिरुक्कुरल’ को तमिल भाषा के प्रतिष्ठित साहित्यों में से एक माना जाता है। धर्म, अर्थ और काम पर लिखा गया यह महान ग्रन्थ अपनी सार्वभौमिकता और धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के लिए जाना जाता है।

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