ब्लॉग

bishnoi community definitely tells the story of Amrita Devi to their children

अमृता देवी की कहानी अपने बच्चों को जरूर सुनाता है बिश्नोई समाज, जानते हैं क्यों?

बीस और नौ से मिलकर बिश्नोई शब्द की उत्पत्ति हुई है अर्थात जम्भेश्वर महाराज द्वारा बताये 29 नियमों का पालन करने वाला ही सच्चा बिश्नोई है। वहीं एक मान्यता यह भी है कि बिश्नोई समाज गुरु जम्भेश्वर को भगवान विष्णु का अवतार मानता है, ऐसे में विष्णु से बना शब्द विष्णोई कालान्तर में बिश्नोई में परिवर्तित हो गया।

राजस्थान के थार इलाके में पाया जाने वाला बिश्नोई समुदाय शुद्ध शाकाहारी होता है। पशु-पक्षियों और वृक्षों से जितना ज्यादा प्रेम बिश्नोई समाज करता है शायद उतना कोई भी नहीं करता होगा। बिश्नोई समाज के लोग इन बेजुबानों को भगवान की तरह प्यार करते हैं। बिश्नोई समाज का प्रकृति प्रेम ही इनकी विशेष पहचान है।

बिश्नोई समाज प्रकृति से इस कदर प्रेम करता है कि उसने वन्य जीवों के संरक्षण के लिए भारतीय जीव रक्षा बिश्नोई महासभा तथा बिश्नोई टाईगर फोर्स का गठन किया है। इन संस्थाओं के सदस्य हर पल वन्य जीवों की सुरक्षा के साथ ही शिकारियों के विरूद्ध कार्रवाई करने को तत्पर रहते हैं। इतना ही नहीं, घटनास्थल से पकड़े गए शिकारियों को वन विभाग पुलिस को सुपुर्द करने तथा उनके खिलाफ न्यायालय में पैरवी करने का काम भी करते हैं।

बिश्नोई समाज के प्रकृति प्रेम का एक अनोखा उदाहरण यह मिलता है कि खेजड़ी वृक्षों की रक्षा के लिए अमृता देवी बिश्नोई की अगुवाई में 363 लोग शहीद हो गए थे। इस स्टोरी में हम आपको अमृता देवी बिश्नोई सहित बिश्नोई समुदाय के उन 363 लोगों के आत्म बलिदान की गौरव गाथा बताने जा रहे हैं।

अमृता देवी बिश्नोई की गौरव गाथा

महाराजा अजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात उनका पुत्र अभय सिंह मारवाड़ (जोधपुर) की गद्दी पर बैठा। यह घटना है, साल 1730 की जब अभय सिंह जोधपुर दुर्ग में महलों का निर्माण करवा रहा था, अत: चूना पकाने के लिए लकड़ी आवश्यकता पड़ी। ऐसे में महाराजा अभय सिंह ने ईंधन की लकड़ी के लिए हरे वृक्ष काटने का आदेश दिया।

इसके बाद 28 अगस्त 1730 ई. को महाराजा अभय सिंह के एक हाकिम गिरधर दास भंडारी ने अपने कारिन्दों की मदद से बिश्नोईयों के खेजड़ली गांव से पेड़ कटवाना शुरू किया। पेड़ काटने की आवाज सुनकर अमृता देवी बिश्नोई पेड़ से आकर चिपक गईं और उन्हें ऐसा करने से मना किया।

बावजूद इसके पेड़ों को कटते देख अमृता देवी बिश्नोई ने ललकार कर कहा- ‘जो सिर सांठे रूख रहे तो भी सस्तो जाण। ​फिर क्या था, महाराजा के हाकिम गिरधर दास भंडारी ने गुस्से में आकर अमृता देवी बिश्नोई के दोनों हाथ काट दिए। फिर अमृता देवी बिश्नोई ने अपना सिर पेड़ पर रख दिया, इसके बाद भंडारी के आदेश पर उसके कारिंदों ने अमृता देवी का सिर काट दिया।

यह सिलसिला अमृता देवी बिश्नोई की दो बेटियों व पति रामो सहित बिश्नोई समुदाय के 363 लोगों के बलिदान तक जारी रहा। इस प्रकार खेजड़ली नरसंहार में बिश्नोई समुदाय के 69 स्त्रियां और 294 पुरूष पेड़ों की रक्षा के लिए शहीद हो गए। इस घटना के बाद महाराजा ने बिश्नोई समाज के लोगों से माफी मांगी तथा एक आदेश जारी किया जिसके तहत बिश्नोईयों के गांव के आसपास के पेड़ों को काटने तथा जानवरों को मारने का सिलसिला हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो गया।

अमृता देवी मृग वन व खेजड़ली दिवस

अमृता देवी बिश्नोई के इस बलिदान को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जोधपुर के खेजड़ली गांव में अमृता देवी मृग वन विकसित किया गया है। तकरीबन 50 हेक्टयर क्षेत्र में विकसित इस मृत वन में हिरण प्रजाति के 500 काले हिरणों को संरक्षण दिया जा रहा है।

खेजड़ली गांव के 363 बलिदानियों की स्मृति में खेजड़ली गांव में एक स्मारक बनाया गया है जहां प्रति वर्ष 12 सितम्बर को खेजड़ली दिवस मनाया जाता है। यहीं पर शहीद दिवस के रूप में प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल दशमी को विश्व का एकमात्र सबसे बड़ा वृक्ष मेला लगता है।

इतना ही नहीं, भारत सरकार द्वारा उन व्यक्तियों अथवा समुदायों को अमृता देवी बिश्नोई राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता है जो वन्यजीवों की रक्षा के समर्पित होकर असाधारण साहस का परिचय देते हैं।

काले हिरणों से इतना प्रेम क्यों करता है बिश्नोई समुदाय

बिश्नोई समुदाय के गुरू जम्भेश्वर महाराज के 29 नियमों में से 9 नियम जीव-जंतुओं की रक्षा के लिए बनाए गए हैं। कहते हैं कि बिश्नोई समुदाय के गुरू जम्भेश्वर महाराज ने कहा था कि वह काले हिरण को उन्हीं का स्वरूप मानकर पूजा करें। यही वजह है कि गुरू जम्भेश्वर को विष्णु का अवतार मानने वाले बिश्नोई समुदाय के लोग काले हिरणों से इतना प्रेम करते हैं। बतौर उदाहरण- बिश्नोई समाज की औरतें हिरणों को अपने बच्चों की तरह मानती हैं तथा दूध पिलाती हैं। सूर्यास्त होते ही बिश्नोई समुदाय के लोग काले हिरणों को दाना-पानी खिलाते हैं। काले हिरण और चिंकारा बिश्नोई समुदाय के जीवन का एक हिस्सा हैं जिन्हें उनकी बस्तियों के आसपास घूमते हुए आसानी से देखा जा सकता है।

तीर्थस्थल  मुक्ति धाम

बीकानेर जिला मुख्यालय के नोखा तहसील से तकरीबन 16 किमी. दूर मुकाम गांव में बिश्नोई समुदाय का तीर्थस्थल है, जो मुक्ति धाम के नाम से विख्यात है। बिश्नोई समुदाय के गुरू जम्भेश्वर महाराज ने यहीं समाधि ली थी। एक किंवदन्ती के मुताबिक, गुरू जम्भेश्वर महाराज ने स्वर्ग जाने से पूर्व इसी स्थान को समाधि के लिए चुना था। गुरू जम्भेश्वर के आदेश पर उनके अनुयायियों ने खेजड़ी वृक्ष के पास 24 हाथ खुदाई की तत्पश्चात उन्हें त्रिशूल और डमरू मिला, इसके बाद इसी स्थान पर मंदिर निर्माण किया गया। खेजड़ी का वह पेड़ आज भी मौजूद है, जो भक्तों के लिए पूजनीय है।

मुक्ति धाम पर साल में दो बार मेला लगता है। एक मेला फाल्गुल मास के अमावस्या को तथा दूसरा मेला आसोज यानि अश्विन मास के अमावस्या को लगता है। मेले में आए श्रद्धालु हवन-पूजन करने के साथ घी-नारियल का प्रसाद अर्पित करते हैं तथा पक्षियों को दाना खिलाते हैं। इस मेले में भंडारे का भी आयोजन होता है जहां बड़ी संख्या में भक्त मुफ्त भोजन करते हैं। मेले में बड़ी संख्या में आए बिश्नोई समुदाय के श्रद्धालु मुक्ति धाम के दर्शन कर अपने लिए मोक्ष का आशीर्वाद मांगते हैं।

इसे भी पढ़ें : अहिल्याबाई होल्कर द्वारा बनवाए गए भारत के पांच विख्यात शिव मंदिर

इसे भी पढ़ें : उत्तर भारत के पांच विख्यात मंदिर जहां नियुक्त हैं दलित पुजारी